आत्मिक सुख की आवश्यकता

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गतांक से आगे

दीनदयाल उपाध्याय

क बार का मुझे अनुभव है। यह पिछली लड़ाई के समय की बात है। उस समय गाड़ी में भीड़ बहुत रहती थी। भीड़ होने के कारण लोग स्टेशन पर टिकट भी नहीं ले पाते थे। कई बार टिकट मिलना भी बंद हो जाता था। लेकिन टिकट मिलना बंद होने के कारण बहुत कम लोग होंगे जो यह सोचेंगे कि चलो आज नहीं तो कल की गाड़ी से चले जाएंगे। नहीं तो ज्यादातर लोगों को तो, किसी भी तरह पहुंचे, पहुंचना ज़रूरी होता है। फिर यह भी आवश्यक नहीं था कि आज टिकट नहीं मिला तो कल मिल ही जाएगा। लोग बिना टिकट लिये गाड़ी में बैठ जाते थे, सोचते थे कि भगवान् जो कुछ करेगा, देखा जाएगा, ऐसा सोचकर उन दिनों लोग चला करते थे। इसी तरह गांव का एक किसान बिना टिकट गाड़ी में बैठा था। वह बड़ा चिंतित था। उससे पूछा कि भाई, क्या बात है? तो बोला, ‘क्या करें बाबूजी, टिकट नहीं मिला। न मालूम क्या होगा?’ वहीं पर एक व्यक्ति और बिना टिकट बैठा था। वह बोल पड़ा, ‘तुम्हें ही क्या, टिकट तो मझे भी नहीं मिला।’
इसी तरह एक और व्यक्ति बिना टिकट वाला बोल पड़ा। अब सभी जो बिना टिकट वहां बैठे थे, बोलने लगे, ‘अगर टिकट नहीं मिला तो क्या सफर करना बंद कर दें? कोई ज़बरदस्ती थोड़े ही है। ज्यादा-से-ज्यादा पैसे अधिक चार्ज कर लेगा और क्या करेगा?’ इस प्रकार सभी की हिम्मत बढ़ गई। उनका भय ख़त्म हो गया। एक-दूसरे की चिंता करके समाज में चलना पड़ता है। यदि यह सोच लिया जाए कि पड़ोसी के घर में आग लगी है, अपने घर में थोड़े ही लगी है। उसके घर की आग क्यों बुझाएं? तो इस प्रकार काम नहीं चलता। पड़ोसी का विचार करके चलना ही पड़ता है। यदि पड़ोसी स्वच्छ नहीं है तो उसकी गंदगी से सभी को बीमारी हो सकती है। उसकी भी चिंता करनी पड़ेगी। कोई भी व्यक्ति अकेले चलना चाहे तो वह नहीं चल पाएगा। दूसरों के सहारे ही उसको विचार कर चलना होगा। सड़क पर भी दूसरे को देखकर चलना पड़ता है। हम तो यह सोचकर चल रहे हैं कि हम ठीक हैं, लेकिन सामने से जो आ रहा है, उसके कारण टक्कर हो सकती है।
एक बार इसी तरह का क़िस्सा है। एक सज्जन सड़क पर चले जा रहे थे। अपने ध्यान में मग्न थे। सामने से एक व्यक्ति आ गया। उनकी टक्कर हो गई। उन्होंने उसे डांटकर कहा, ‘अंधे हो क्या, देखकर नहीं चलते।’ वह व्यक्ति सचमुच अंधा था। अब वह तो अंधा था, लेकिन स्वयं इनको देखकर चलना चाहिए था। एक घटना और याद आती है। अपने एक स्वयंसेवक थे। वे साइकिल बहुत अच्छी चलाते थे। कभी हाथ छोड़कर चलाते थे। कभी पैर ऊपर रखकर चलाते थे। अर्थात सरकस में जितने प्रकार होते हैं, सब उनको आते थे। वह इस प्रकार का सरकस सड़क पर भी करते थे। उनको एकाध बार कहा भी था कि उनको ऐसा नहीं करना चाहिए, क्योंकि सड़क पर चलते-चलते ना मालूम क्या हो जाए? उसने कहा, ‘नहीं, साइकिल तो हमारे लिए ऐसी है जैसे बतख पानी पर चलती है। वैसे ही हम साइकिल पर चलते हैं।’ मैंने कहा, ‘यह तो ठीक है, लेकिन फिर भी सावधानी बरतनी चाहिए।’ एक दिन वह रिक्शा पर बैठकर आ रहे थे और उनकी टूटी हुई साइकिल रिक्शा पर रखी थी। वे कार्यालय में पहुंचे। उनको रिक्शे से उतारा गया। उतारकर उनकी जो मरहम-पट्टी करवानी थी, वह करवाई गई। उनसे पूछा कि क्या हो गया?
उन्होंने बताया कि एक जगह टक्कर हो गई। मैंने कहा कि तुम तो साइकिल चलाना अच्छी तरह जानते हो। उन्होंने बताया कि मैं तो ठीक तरह चला रहा था, लेकिन जो सामने से आ रहा था, उसे बहुत बचाने की कोशिश की, लेकिन फिर भी वह टकरा गया। अब यह कभी-कभी हो जाता है। इसलिए जब आप टकराने से बचना चाहते हो तो वह टक्कर एक को बचाने से नहीं बचेगी। वह दोनों की कोशिश से बचेगी। ताली एक हाथ से नहीं बज सकती। झगड़ा भी कभी एक व्यक्ति से नहीं होता। उसमें दो को तो सम्मिलित होना ही है। इसी तरह झगड़ा टालने के लिए भी दो व्यक्तियों की ज़रूरत होती है। दोनों व्यक्ति झगड़े को टालना चाहेंगे, तभी वह झगड़ा समाप्त होगा। इसी तरह अकेला कभी नहीं चल सकता।
जब बहुत दिनों के बाद कोई दूसरा व्यक्ति मिलता है, तो उससे गले मिलना होता है। जैसे कि निषाद भगवान् राम के साथ गले मिला था, वैसे ही अगर कोई मिलना चाहे। आप कितना ही हटें, वह आपको छोड़ने के लिए तैयार न हो, तब आप क्या करेंगे? आपको मिलना ही होगा। एक्सीडेंट की कितनी ही घटनाएं घटती रहती हैं। एक के कुशल होने से काम नहीं चलता। दोनों को कुशल होना चाहिए। मृत्यु न जाने कब आ जाए, कुछ पता नहीं चलता। ऐसे ही एक बार की बात है। लुधियाना स्टेशन पर गाड़ी का इंतज़ार करते हुए यात्री बैठे थे। एक व्यक्ति का अचानक दिमाग़ ख़राब हो गया। उन्होंने अचानक अपनी तलवार निकाली और जो व्यक्ति उनके पास बैठा था, उसके सीने में भोंक दी। दूसरे को, तीसरे को मारा। कुल छह व्यक्तियों को तलवार से मार दिया। बड़ी मुश्किल से उन्हें पकड़कर हवालात में बंद किया। अगर बाक़ी लोग भी यह सोच बैठते कि अब ये छह तो गए, इनको कैसे बचाएं, तो वह व्यक्ति और भी नुक़सान कर सकता था। उन्होंने अपनी परवाह न करते हुए उसे पकड़ा। हमारा यह जीवन कितनी ही दूसरी शक्तियों के ऊपर निर्भर है।
हमारा जीवन रेलगाड़ी की तरह है। जैसे ड्राइवर ज़रा सी गड़बड़ कर दे तो कितने ही लोगों का जीवन बरबाद हो जाए। उसी तरह हम भी गड़बड़ कर दें तो हमारा जीवन भी बरबाद हो जाता है। यह सारा सुख जीवन का इस आधार पर चलता है। यहां तक कि कई बार मन में आता है कि दूसरों के साथ मिलकर बैठने से आनंद आता है। कई बार इनसान मन की बात कहने को इतना लालायित रहता है कि कोई मिले तो झट से उसे सब कुछ बता दिया जाए और यदि कोई नहीं मिलता तो मन परेशान रहता है। कई बार दक्ष में खड़े-खड़े स्वयंसेवक भी आपस में विचार कर लेते हैं। क्यों कर लेते हैं? क्योंकि मन के अंदर से विचार उठता है। वे उसे रोक नहीं सकते।
उनकी हालत ऐसी होती है, जैसी कि एक नाई की हो गई थी। एक नाई था। वह राजा की हजामत बनाने के लिए गया। हजामत बनाते-बनाते एक दिन देखा कि राजा का कान जो है, कुछ कटा हुआ है। अब राजा का कटा हुआ कान देखा। राजा को भी ध्यान आ गया कि वह अपने कटे हुए कान को पगड़ी में छुपाए रखता है, लेकिन अब वह नाई से कैसे छुपाएगा। राजा ने नाई से कहा कि तूने तो मेरा कान देख लिया। लेकिन यदि किसी और को भी तूने यह बात बताई तो मैं तुझे फांसी लगवा दूंगा। नाई ने कहा हुजूर, मेरे मुंह से तो यह कभी निकल ही नहीं सकता। समझ लीजिए कि मेरे पेट में गई हुई बात ऐसी होती है, जैसे कुएं में गई वस्तु। आप चिंता मत कीजिए।’ अब वहां से तो वह कहकर आ गया। लेकिन इतनी बड़ी बात वह बेचारा किसी से न कहे तो क्या करे? उसका पेट फूलने लगा। वह बात हजम नहीं हो पा रही थी। उसका पेट फूलता ही जा रहा था। वैद्य को दिखाया। उन्होंने सोचा कि पेट ख़राब है। इसको जुलाब दे दिया जाए।
परंतु जुलाब देने से पेट की सफाई तो अच्छी हो गई, लेकिन पेट का फूलना बंद नहीं हुआ। बहुत परेशान हुआ। चिंता होने लगी। वहां एक साधू आया। उसने साधू को पेट दिखाया। साधु को लगा कि इसके पेट में कोई बात है। उसने नाई को सुझाव दिया कि तुम फलाने-फलाने जंगल में जाओ। वहां फलाने बांस का पेड़ है। वहां जाकर के गोबर का चौका लगाओ। उसके बाद वहां एक नारियल रखो और दीपक जलाकर मिठाई वगैरह रखकर बताशे, खीर, रोली, चंदन से बांस की पूजा करो। बांस से अपने दिल की सारी बात बता देना। पेट ठीक हो जाएगा। नाई ने वैसा ही किया। बांस को अपने मन की बात बता दी। नाई का पेट ठीक हो गया। अब उस बांस को जब काटा गया, उसकी बांसुरी बनाई गई। उस बांसुरी को जब बजाया गया तो यही स्वर निकलता था कि राजा का कटा कान। आख़िर राजा के कटे कान की बात सभी को पता चल गई। नाई से बात छुपाई नहीं गई। इसी तरह अपना यह पेट कभी कोई बात नहीं छुपा पाता और जब छुपाता है तो फूल जाता है।
यदि हमने अपने मन की बात किसी को नहीं बताई तो बुरा हाल हो जाता है। कभी-कभी- जब हमारी बात को कोई नहीं सुनता तो हमें बुरा लगता है। बैठक में भी ऐसा ही होता है। जब कोई सोने लगता है तो ऐसा लगता है कि वह हमारी बात नहीं सुन रहा है। कवि के बारे में कहते हैं कि कभी उससे कहो कि ज़रा कविता सुना दे तो वह बड़ी मनावने करवाता है, संगीतकार से कहो तो वह भी मनावने करवाता है। यदि उसकी इच्छा होगी तो वह मौक़ा ढूंढ़ता रहेगा अपनी रचना सुनाने के लिए। ऐसे ही एक कवि का मुझे मालूम है। उन्होंने मेरे पास आकर अपनी कविता पढ़नी शुरू कर दी। थोड़ी सी कविता पढ़ी। मुझे रस आया या नहीं, यह कहना कठिन है, क्योंकि मुझे कविता में कोई रस नहीं है। उसके लिए कोई रसज्ञ चाहिए। किंतु फिर एक स्वाभाविक शिष्टाचार के कारण उनकी तारीफ़ कर दी। उन्होंने इस बात को समझा कि कोई बड़ा कद्रदान मिल गया।
इसलिए उन्होंने कहा कि यह तो कुछ नहीं है, एक दूसरी सुनिए। मैंने सोचा कि तारीफ़ करके ग़लती कर दी। लेकिन उन्होंने तीसरी, चौथी और बस सुनाते ही गए। वे उठने का नाम ही नहीं ले रहे थे। मैं कहता कि मुझे कहीं जाना है तो वे कहते कि नहीं, यह तो सुनिए, क्या दूर की कल्पना इसके अंदर आई है। उनको इसी में आनंद आ रहा था। अब कल्पना कीजिए कि मैं उनकी बात नहीं सुनता तो शायद उनका आनंद किरकिरा हो जाता। इसलिए कवि ने भगवान से प्रार्थना की है कि उसे कोई भी दुःख दे देना, बस एक ही दुःख न देना, और वह यह है कि अरसिकेषुकवित्त निवेदनम शिरिस मा लिख मा लिख मा लिख’ कि अ-रसिक जो हैं, जिनको रस नहीं आता, ऐसे व्यक्ति से सामना न हो, जो मेरी कविता न सुन सके। कवि का सबसे बड़ा दुःख यही रहता है कि कोई ऐसा व्यक्ति न मिले, जो उसकी कविता को पसंद न करे या सुननी न चाहे। कवि का सुख भी दूसरे लोगों के ऊपर ही अवलंबित रहता है।
हमारा जो राज्य है, यह कहां से आता है? हम भाषा कहां से सीखते हैं? कहने को तो आदमी कह जाता है कि मेरा गला है, मेरी जीभ है, मैं इन्हीं से बोलना सीखता हूं। लेकिन उसे पता नहीं कि यदि यह समाज न हो तो उसे ज्ञान कहां से आएगा, बोलना कैसे आएगा? उसे चलना कैसे आएगा? जीने का ढंग कैसे आएगा? मनुष्य कितना भी कहे कि यह मेरी जो रीढ़ की हड्डी है, मैं इसी से चलना सीखता हूं। लेकिन उसकी बात बिल्कुल ग़लत है।

क्रमश:
-पाञ्चजन्य, मई 27, 1961, संघ शिक्षा वर्ग, बौद्धिक वर्ग : लखनऊ