व्यापक, सर्वसमावेशी और भविष्योन्मुखी है हमारा संविधान

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किसी देश का संविधान उसके राजनीतिक जीवन और व्यवस्था का वह आधारभूत सांचा–ढांचा निर्धारित करता है, जिसके अंतर्गत उसकी व्यवस्था शासित होती है। किसी देश के संविधान को इसकी ऐसी आधारविधि भी कहा जा सकता है, जो उसकी राज्यव्यवस्था के मूल आदर्शों, मूल्यों और सिद्धांतों को मूर्त करती है और जिसकी कसौटी पर राज्य की अन्य सभी विधियों तथा कार्यपालक कार्यों को उनकी नैतिक तथा कानूनी वैध्यता के लिये जांचा जाता है। हम कह सकते हैं कि अपने आदर्श रूप में प्रत्येक संविधान उसके संस्थापकों एवं निर्माताओं के आदर्शों, सपनों तथा मूल्यों का प्रतिबिम्ब होता है।

डॉ. शिव शक्ति बक्सी

रतीय संविधान पर बराबर बहस होती रही है और किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र की यह पहचान है कि वह समय–समय पर अपने आधारभूत सिद्धांतों का परीक्षण करता रहे। भारतीय संविधान की व्यापकता, सर्वसमावेशी एवं भविष्योन्मुखी चरित्र पर शायद ही किसी को शंका रही होगी, परन्तु इसके विभिन्न पहलुओं पर व्याख्या को लेकर वैचारिक द्वन्द्व होते रहे हैं।

किसी देश का संविधान उसके राजनीतिक जीवन और व्यवस्था का वह आधारभूत सांचा–ढांचा निर्धारित करता है, जिसके अंतर्गत उसकी व्यवस्था शासित होती है। किसी देश के संविधान को इसकी ऐसी आधारविधि भी कहा जा सकता है, जो उसकी राज्यव्यवस्था के मूल आदर्शों, मूल्यों और सिद्धांतों को मूर्त करती है और जिसकी कसौटी पर राज्य की अन्य सभी विधियों तथा कार्यपालक कार्यों को उनकी नैतिक तथा कानूनी वैध्यता के लिये जांचा जाता है। हम कह सकते हैं कि अपने आदर्श रूप में प्रत्येक संविधान उसके संस्थापकों एवं निर्माताओं के आदर्शों, सपनों तथा मूल्यों का प्रतिबिम्ब होता है।

किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि संविधान के नियमों के अनुसार शासन–संचालन मात्र ही संविधानवाद है। एक निरंकुश तानाशाह या वैचारिक अंधत्व से चालित नेतृत्व भी इच्छानुसार संविधान बनाकर जनता की इच्छाओं और आकांक्षाओं की अवहेलना करता हुआ उन पर बलपूर्वक संविधान लागू कर सकता है। चूंकि ऐसे संविधान से जनता के आदर्शों, मूल्यों और संस्कृति और परम्परा का समावेश नहीं होता। अत: उस शासन व्यवस्था को संविधानवाद के अनुरूप नहीं माना जा सकता है। अत: संवैधानिक शासन का आदर्श, संविधान का अर्थ, लिखित मूर्त संविधान से कुछ अधिक है। आदर्श संविधान वही है, जिसमें मनुष्य की संस्कृति, मान्यताओं, आस्थाओं और मूल्यों की व्यवहार में उपलब्धि संभव हो सके, से है। इन्हीं मूल कसौटियों पर हम भारतीय संविधान की सार्थकता और प्रासंगिकता को जांच सकते हैं। संविधान को एक स्थिर घोषणापत्र मात्र लेना ठीक नहीं होगा, उसे देश की संस्कृति और वैश्विक तथा समसामयिक चुनौतियों में दबाव के तहत निरंतर पल्लवनशील होना चाहिए।

किसी भी संविधान की उद्देशिका (preamble) की भांति भारतीय संविधान की उद्देशिका से आशा की जाती है कि जिन मूलभूत मूल्यों तथा दर्शन पर संविधान आधारित हो तथा जिन तथ्यों उद्देश्यों को प्राप्ति का प्रयास करने के लिये संविधान निर्माताओं ने राज्य व्यवस्था को निर्देश दिया हो, उनका उसमें समावेश हो। हमारे संविधान की उद्देशिका में जिस रूप में उसे संविधान सभा ने पास किया था, कहा गया है कि ‘‘हम भारत के लोग’’ भारत को एक ‘‘प्रभुत्व संपन्न लोकतांत्रिक गणराज्य’’ बनाने के लिये तथा उसके समस्त नागरिकों को न्याय, स्वतंत्रता और समानता दिलाने और उनमें बंधुता बढ़ाने के लिये दृढ़ संकल्प करते हैं। हमारे संविधान की उद्देशिका में नि:संदेह बहुत ही भव्य और उदात्त शब्दों का प्रयोग हुआ है। हमारे संविधान निर्माता नहीं चाहते थे कि संविधान किसी विचारधारा या वाद–विशेष से जुड़ा हो या किसी आर्थिक सिद्धांत द्वारा सीमित हो। इसलिए वे उसमें, अन्य बातों के साथ, समाजवाद के किसी उल्लेख को सम्मिलित करने के लिये सहमत नहीं हुए थे। नवंबर 1948 में बिहार से सदस्य केटी शाह का प्रस्ताव कि संविधान की धारा 1, खंड 1 में ‘पंथनिरपेक्ष, संघ एवं समाजवाद’ जोड़ा जाए से बाबा साहेब अंबेडकर सहमत नहीं थे। जहां एक ओर उन्होंने पंथनिरपेक्षता को एक सार्वभौमिक मूल्य मानते हुए इसका संविधान में अलग से उल्लेख आवश्यक नहीं माना। समाजवाद के प्रश्न पर उनका मत था कि समय–समय पर आवश्यकतानुसार आने वाली पीढ़ियां कैसे स्वयं को संगठित करना चाहती हैं, यह उन पर छोड़ देना चाहिए। संविधान (42वां संशोधन) अधिनियम, 1976 के द्वारा हमारे गणराज्य की विशेषता दर्शाने के लिये ‘समाजवाद’ शब्द का समावेश दिया गया, पर हम जानते हैं कि ‘समाजवाद’ की परिभाषा करना कठिन है। विभिन्न लोग इसका भिन्न–भिन्न अर्थ लगाते हैं और इसकी कोई निश्चित परिभाषा नहीं है।

व्यक्ति के मूल अधिकारों की रक्षा के साथ–साथ संविधान निर्माता यह भी चाहते थे कि हमारा संविधान सामाजिक शांति के लिये एक प्रभावी साधन बने। अनुच्छेद 37 घोषणा करता है कि निदेशक तत्व देश के शासन के मूलाधार है और निश्चय ही विधि बनाने में इन सिद्धांतों को लागू करना राज्य का कर्तव्य होगा। किंतु विडम्बना है कि निदेशक तत्वों से ऐसे कोई कानूनी अधिकार नहीं मिलते, जिनका उल्लंघन होने पर कोई व्यक्ति उसका उपचार कर सके और न यह विधायिका को कोई अतिरिक्त शक्ति प्रदान करता है। ये समादेश न्यायालयों द्वारा अप्रवर्तनीय बनाए गये थे और इन्हें जानबूझकर ऐसे शब्दों में व्यक्त किया गया था, जिनसे विधायिका को क्रम, समय और पूरा करने की रीति का निर्णय करने की कुछ हद तक छूट रहे, क्योंकि उनका कार्यान्वयन अनेक सूक्ष्म तत्वों पर निर्भर करता है।

संविधान सभा में बोलते हुए डा. अंबेडकर ने स्पष्ट शब्दों मे कहा था कि निदेशक तत्वों का आशय यह नहीं है कि वे केवल पूजनीय आदर्श बनकर रह जाएं। उन्होंने कहा था कि ‘‘संविधान सभा का आशय यह है कि भविष्य में विधायिका तथा कार्यपालिका, दोनों इस भाग में अधिनियमित इन तत्वों के प्रति केवल मौखिक सहानुभूति न जताएं, बल्कि इन्हें कार्यपालिका तथा विधायिका के उन सभी कार्यों का आधार बना दिया जाए जो इसके बाद देश के शासन के मामले में किये जाएं। निदेशक तत्व से संबंधित अनुच्छेद 48 कार्यपालिका और व्यवस्थापिका को यह आदेश देता है कि ‘‘कृषि और पशुपालन का संगठन हो तथा गो–वध का प्रतिषेध हो। अनुच्छेद 49 समूचे देश के लिये समान नागरिक संहिता को रेखांकित करता है। 2 दिसंबर 1948 को बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर ने समान नागरिक संहिता का जोरदार समर्थन करते हुए कहा था कि यदि धर्म को कानून बनाने के आड़े आने दिया जाएगा तब इस स्वतंत्रता का कोई मतलब नहीं रह जाता है, लेकिन आज वही हो रहा है जिसकी कल्पना शायद हमारे संविधान निर्माताओं ने भी नहीं की होगी।

इस बात को समझा जाना चाहिए कि मूल अधिकार और निदेशक तत्व सभी एक ही संवैधानिक ढांचे के अभिन्न अंग हैं। वे सभी समान रूप से महत्वपूर्ण है और उन्हें एक–दूसरे के संदर्भ में पढ़ा जाना चाहिए। हमारे देश के वामपंथी और प्रतिक्रियावादी तत्त्व उद्देशिका और मूल अधिकारों के प्रति तो अतिवादी रूख रखते हैं पर नीति निदेशक तत्वों के प्रति नकारात्मक और प्रतिक्रियावादी दृष्टि रखते हैं। हमारे संविधान निर्माताओं ने व्यापक, सर्वसमावेशी एवं भविष्योन्मुखी संविधान हमें सौंपा है। संविधान की भविष्य की दिशा के लिए भी उन्होंने दिशा स्पष्ट की है और समाज के उत्तरोत्तर विकास के साथ देश की सामाजिक–आर्थिक आवश्यकता के सामंजस्य की संभावनाएं इसमें है। ‘उदारवाद’ का चोला ओढ़े विभिन्न विचार के लोग आज संविधान के इस विराट स्वरूप में असहज महसूस करते हैं। किसी भी संविधान प्रदत्त सकारात्मक परिवर्तन के लिए यह ‘उदारवादी’ तबका बड़ी ढ़िठाई से ‘अनुदार’ बन जाता है। इसका परिणाम अल्पसंख्यकवाद के नाम पर धर्मांधता के रूप में सामने आ रहा है, जिससे अल्पसंख्यकों के बीच सकारात्मक परिवर्तन की लड़ाई लड़ने वाले भी अकेले पड़ जाते हैं। अब समय आ गया है कि संविधान के महान सिद्धांतों की सकरात्मक व्याख्या हो और ‘उदारवादी’ तबका सही में उदारवाद की ओर प्रवृत्त हों और देश सकरात्मक परिवर्तन की ओर बढ़ सके।