सांगोपांग समाज जीवन की शर्त है अन्त्योदय

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-डाॅ. महेशचन्द्र शर्मा

दीनदयाल जी अंत्योदय के लिये लोकतंत्र को आवश्यक मानते थे, लोकतंत्र राजनीति में अंतिम व्यक्ति की सहभागिता का आश्वासन देता है। दीनदयाल जी राजनैतिक लोकतंत्र की सार्थकता के लिये आर्थिक लोकतंत्र को भी परमावश्यक मानते थे। उनका मत है ‘‘प्रत्येक को वोट जैसे राजनीतिक प्रजातंत्र का निकष है, वैसे ही प्रत्येक को काम यह आर्थिक प्रजातंत्र का मापदण्ड हैं।’’

अर्थनीति का भारतीयकरण एवं आर्थिक लोकतंत्र भौतिक विकास किसी भी राष्ट्र की अर्थनीति का स्वाभाविक लक्ष्य होता है। दीनदयाल जी विकास के पाश्चात्य माॅडल को मानवीय एकात्मता के लिये अहितकर मानते थे, अतः उन्होंने अर्थनीति के भारतीयकरण का आह्वान किया ‘‘देश का दारिद्रय दूर होना चाहिये, इसमें दो मत नहीं, किंतु प्रश्न यह है कि यह गरीबी कैसे दूर हो? हम अमेरिका के मार्ग पर चलें या रूस के मार्ग को अपनावें अथवा युरोपीय देशों का अनुकरण करें? हमें इस बात को समझना होगा कि इन देशों की अर्थव्यवस्था में अन्य कितने भी भेद क्यों न हों इनमें एक मौलिक साम्य है। सभी ने मशीनों को ही आर्थिक प्रगति का साधन माना है। मशीन का सर्वप्रधान गुण है कम मनुष्यों द्वारा अधिकतम उत्पादन करवाना। परिणामतः इन देशों को स्वदेश में बढ़ते हुये उत्पादन को बेचने के लिए विदेशों में बाजार ढूंढने पड़े। साम्राज्यवाद-उपनिवेशवाद इसी का स्वाभाविक परिणाम बना। इस राज्य विस्तार का स्वरूप चाहे भिन्न भिन्न हो किन्तु क्या रूस को, क्या अमेरिका को तथा क्या इंग्लैण्ड को, सभी को इस मार्ग का अवलम्बन करना पड़ा। हमें स्वीकार करना होगा कि भारत की आर्थिक प्रगति का रास्ता मशीन का रास्ता नहीं है। कुटीर उद्योगों को भारतीय अर्थनीति का आधार मानकर विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था का विकास करने से ही देश की आर्थिक प्रगति संभव है।
;पिलानी, शेखावटी जनसंघ सम्मेलन मे उदघाटन भाषण, पांचजन्य 12 दिसम्बर, 1955 पृ 11द्ध
दीनदयाल जी अंत्योदय के लिये लोकतंत्र को आवश्यक मानते थे, लोकतंत्र राजनीति में अंतिम व्यक्ति की सहभागिता का आश्वासन देता है। दीनदयाल जी राजनैतिक लोकतंत्र की सार्थकता के लिये आर्थिक लोकतंत्र को भी परमावश्यक मानते थे। उनका मत है ‘‘प्रत्येक को वोट जैसे राजनीतिक प्रजातंत्र का निकष है, वैसे ही प्रत्येक को काम यह आर्थिक प्रजातंत्र का मापदण्ड हैं।’’ प्रत्येक को काम के अधिकार की व्याख्या करते हुये वे कहते है: ‘‘काम प्रथम तो जीविकोपार्जनीय हो तथा दूसरे, व्यक्ति को उसे चुनने की स्वतंत्रता हो। यदि काम के बदले में राष्ट्रीय आय का न्यायोचित भाग उसे नहीं मिलता हो तो उसके काम की गिनती बेगार में होगी। इस दृष्टि से न्यूनतम वेतन, न्यायोचित वितरण तथा किसी न किसी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था आवश्यक हो जाती है।’’ दीनदयाल जी आगे कहते हैंः

‘‘जैसे बेगार हमारी दृष्टि में नहीं है वैसे ही व्यक्ति के द्वारा काम में लगे रहते हुये भी अपनी शक्ति भर उत्पादन न कर सकना काम नहीं है। अण्डर इम्पलाॅइमेण्ट भी एक प्रकार की बेकारी है।’’
उपाध्याय उस अर्थव्यवस्था को अलोकतांत्रिक मानते हैं जो व्यक्ति के उत्पादन-स्वातंत्र्य या सृजनकर्म पर आघात करती है। अपने उत्पादन का स्वयं स्वामी न रहने वाला मजदूर या कर्मचारी अपनी स्वतंत्रता को ही बेचता है। आर्थिक स्वतंत्रता व राजनीतिक स्वतंत्रता परस्पर अन्योन्याश्रित हैं। ‘‘राजनीतिक प्रजातंत्र बिना आर्थिक प्रजातंत्र के नहीं चल सकता। जो अर्थ की दृष्टि से स्वतंत्र है वही राजनीतिक दृष्टि से अपना मत स्वतंत्रतापूर्वक अभिव्यक्त कर सकेगा। अर्थस्य पुरुषो दासः, पुरुष अर्थ का दास हो जाता है’’

मनुष्य के उत्पादन स्वातंत्र्य पर सबसे बड़ा हमला पूंजीवादी औद्योगीकरण ने किया है। अतः उपाध्याय औद्योगीकरण का इस प्रकार ने नियमन चाहते हैं कि जिससे वह स्वतंत्र, लघु एवं कुटीर उद्योगों को समाप्त न कर सके: ‘‘आज जब हम सर्वांगीण विकास का विचार करते हैं तो संरक्षण की आवश्यकता को स्वीकार करके चलते हैं। यह संरक्षण देश के उद्योगों को विदेशी उद्योगों की प्रतिस्पर्धा से तथा देश के छोटे उद्योगों को बड़े उद्योगों से देना होगा।’’ उपाध्याय यह महसूस करते हैं कि पश्चिमी औद्योगीकरण की नकल ने भारत के पारम्परिक उत्पादक को पीछे धकेला है तथा बिचैलियों को आगे बढ़ाया है। ‘‘हमने पश्चिम की तकनीकी प्रक्रिया का आंख बंद करके अनुकरण किया है। हमारे उद्योग का स्वाभाविक विकास नहीं हो रहा। वे हमारी अर्थव्यवस्था के अभिन्न व अन्योन्याश्रित अंग नहीं अपितु ऊपर से लादे गये है। ;इनका विकासद्ध विदेशियों के अनुकरणशील सहयोगी अथवा अभिकर्ता कतिपय देशी व्यापारियों द्वारा हुआ है। यही कारण है कि भारत के उद्योगपतियों में, सब के सब व्यापारी आढ़तियों तथा सटोरियों में से आए हैं। उद्योग एवं शिल्प में लगे कारीगरों का विकास नहंी हुआ है’’

देश के आम शिल्पी व कारीगर की उपेक्षा करनेवाला औद्योगीकरण अलोकतांत्रिक है। पूँजीवाद व समाजवाद के निजी व सार्वजनिक क्षेत्र के विवाद को उपाध्यायजी गलत मानते हैं। इन दोनों ने ही स्वयंसेवी क्षेत्र का गला घोंटा है। आर्थिक लोकतंत्र के लिये आवश्यक है, स्वयंसेवी क्षेत्र का विकास करना। इसके लिये विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था जरूरी है।

‘‘राजनीतिक शक्ति का प्रजा में विकेन्द्रीकरण करके जिस प्रकार शासन की संस्था का निर्माण किया जाता है, उसी प्रकार आर्थिक शक्ति का भी प्रजा में विकेन्द्रीकरण करके अर्थव्यवस्था का निर्माण एवं संचालन होना चाहिये। राजनीतिक प्रजातंत्र में व्यक्ति की अपनी रचनात्मक क्षमता को व्यक्त होने का पूरा अवसर मिलता है। ठीक उसी प्रकार आर्थिक प्रजातंत्र में भी व्यक्ति की क्षमता को कुचलकर रख देने का नहीं, अपितु उसको व्यक्त होने का पूरा अवसर प्रत्येक अवस्था में मिलना चाहिये। राजनीति में व्यक्ति की रचनात्मक क्षमता को जिस प्रकार तानाशाही नष्ट करती है, उसी प्रकार अर्थनीत में व्यक्ति का रचनात्मक क्षमता को भारी पैमाने पर किया गया औद्योगीकरण नष्ट करता है। इसलिए तानाशाही की भाँति ऐसा औद्योगीकरण भी वर्जनीय है।’’ आर्थिक लोकतंत्र शीर्षक के अन्तर्गत आये सभी उ(रण दीनदयाल जी की पुस्तक भारतीय अर्थनीतिः विकास की एक दिशा से लिये गये हैं

एक गणितीय सूत्र ज × क × य × इ यन्त्रचलित औद्योगीकरण की मर्यादा को स्पष्ट करते हुये उपाध्याय एक समीकरण प्रस्तुत करते हैंः ‘‘प्रत्येक को काम का सि(ांत स्वीकार कर लिये जाए तो सम-वितरण की दिशा सुनिश्चित हो जाती है और हम विकेन्द्रीकरण की ओर बढ़ते हैं। औद्योगीकरण को उदेश्य मानकर चलना गलत है। इस सि(ांत को गणित के सूत्र में यों रख सकते हैंः ज × क × य × इ यहाँ ज जन का परिचायक है, क कर्म की अवस्था व व्यवस्था का, य यंत्र अथवा तकनीकि का तथा इ समाज की प्रभावी इच्छा या इच्छित संकल्प का द्योतक है। इ तथा ज तो सुनिश्चित है। इ और ज के अनुपात में क तथा य को सुनिश्चित करना है, लेकिन औद्योगीकरण लक्ष्य होने पर य सब को नियंत्रित करता है। य के अनुपात में जन की छँटनी होती है। य के अनुपात में इ को भी यंत्रों के अति उत्पादन का अनुसरण करना पड़ता है, जो कि सर्वथा अवांछनीय है। ज की छँटनी कर देनी वाली कोई भी अर्थव्यवस्था अलोकतांत्रिक है। इ को नियंत्रित करने वाली अर्थव्यवस्था तानाशाही है। अतः ज तथा इ के नियंत्रण मे क तथा य का नियोजन होना चाहिये। वही लोकतांत्रिक एवं मानवीय अर्थव्यवस्था कही जा सकती है।
दीनदयाल उपाध्याय ड्डत ‘राष्ट्र जीवन की समस्यायें’ पृष्ठ 42

एकात्म मानवदर्शन के अंत्योदय आयाम के लिये उन्होंने दृष्टिकोण के भारतीयकरण आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना, सत्ता एवं वित्त के विकेन्द्रीकरण तथा यंत्र योजित नहीं वरन् मानव योजित व्यवस्था के निर्माण का सांगोपांग आग्रह किया। हमें उनके इस आग्रह को दृष्टिपथ में रख कर सामाजिक अनुसंधान एवं प्रयोग संचालित करने चाहिये।