राम का आदर्श, कृष्ण का सम्मोहन, बुद्ध का गांभीर्य, चाणक्य की नीति और विवेकानंद की ओजस्विता से परिपूर्ण था अटलजी का जीवन : शिव कुमार शर्मा

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स्व. अटल बिहारी वाजपेयी के साथ 50 साल तक छाया की तरह रहने वाले श्री शिव कुमार शर्मा उनकी अंतिम सांस तक सेवा में जुटे रहे। सर्वोच्च न्यायालय में अधिवक्ता रहे श्री शर्मा 1969 से उनके सहयोगी थे। पिछले दिनों नई दिल्ली स्थित उनके आवास पर कमल संदेश के सहायक संपादक संजीव कुमार सिन्हा ने उनसे अटलजी की पारिवारिक पृष्ठभूमि, संगठनात्मक दायित्वों, प्रशासनिक उपलब्धियों, रुचियों सहित अनेक अनछुए पहलुओं पर बातचीत की।
प्रस्तुत है मुख्यांश–

सबसे पहले यह बताइए कि आपका अटलजी से कब और कैसे संपर्क हुआ ?

मैं संघ का स्वयंसेवक हूं, जनसंघ का भी कार्यकर्ता था, तो इस नाते कार्यक्रमों में अटलजी से मुलाकात होती रहती थी। दीनदयालजी की हत्या के बाद मुझे ऐसा लगा कि अटलजी अकेले रहते हैं, किसी को उनके साथ रहना चाहिए। मैंने इस संबंध में उनसे प्रार्थना की। उन्होंने बहुत मना किया, ‘‘नहीं, भाई नहीं।’’ उन्होंने एक मार्मिक बात कही, “देखो शिवकुमार जी, आप तो परिवार वाले हो, सर्वोच्च न्यायालय में वकालत करते हो और मेरी पार्टी ऐसी नहीं है कि जो आपको कुछ दे सके या मैं कुछ दे सकूं”। तो मैंने कहा, “साहब ऐसा है, मैं जब आपके पास आऊंगा तो अपने सारे पुल तोड़कर आऊंगा। कोई जिम्मेदारी नहीं है मेरे पास। अगर आप सकुशल रहे तो भारतीय जनसंघ फलेगी–फूलेगी और मेरे जैसे करोड़ों लोगों का परिवार अपने आप पल जाएगा।” उन्होंने कहा, “अगर आपकी ऐसी दृढ़ स्थिति है तो चलिए, लग जाइए हमारे साथ।” तो 1969 से उनके साथ हूं और आखिरी सफर तक भी उनके साथ रहा।

अटलजी की पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में बताइए ?

देखिए, इनके पूर्वज बटेसर के रहनेवाले थे। इनके बाबा भागवत कथा में प्रवीण थे। गांवों में जा–जाकर भागवत सुनाया करते थे। लोगों को जागृत करते थे। वो आशुकवि थे। हाथ के हाथ कविता बना देते थे। इनके पिताजी विद्यालय में शिक्षक थे और कवि थे। कवि सम्मेलनों में अटल जी भी उनके साथ जाते थे। ये भी कविताएं करने लग गए। तो कविता इनको विरासत में मिली है। दोनों पिता–पुत्र ने लॉ की पढ़ाई एक ही कक्षा में, एक ही हॉस्टल में और एक ही कमरे में रहकर की। इनके पिताजी तो एलएलबी पास कर गए। उस समय एक साथ दो परीक्षाएं पास कर सकते थे, एमए भी कर सकते थे। अटलजी एलएलबी तो पूरा नहीं कर पाए, राजनीतिक शास्त्र में प्रथम श्रेणी से एमए उत्तीर्ण किया। बीए में भी फर्स्ट डिवीजन आए थे सारे मध्य प्रदेश क्षेत्र में। वहां राज्य का नियम था कि जो फर्स्ट क्लास आता था, उसको वजीफा देते थे। परंतु एक शर्त रहती थी कि आपको राजा की नौकरी करनी पड़ेगी। अटलजी ने कहा कि आपका वजीफा नहीं चाहिए और नौकरी भी मुझे नहीं करनी। वो कानपुर गए। डीएवी कॉलेज से एमए किया। फिर वो लखनऊ आ गए।लखनऊ में पांचजन्य के संपादक रहे। राष्ट्रधर्म, स्वदेश, वीर अर्जुन, तरुण भारत का भी संपादन किया। उसके बाद फिर राजनीति में आ गए।

अटलजी में ऐसी क्या बातें थीं जिसके चलते आप आधी सदी तक उनसे जुड़े रहे ?

देखिए, ताली एक हाथ से नहीं बजती है। मैंने तो पूरा समर्पण कर दिया। मैंने उनसे कहा था कि मैं आपसे कुछ मागूंगा नहीं, न राजनीतिक पद मांगूगा, न पैसा मांगूगा। मैं सिर्फ आपकी सेवा करूंगा। तो सेवा करने गया था वहां और वो सेवा मैंने की है। इसलिए 50 साल तक निभ गया। उनका भी स्नेह मिला हमको। अगर उनका स्नेह नहीं होता तो कैसे इतना संभव हो पाता! मैंने कहा न, दिस इज नॉट ए वनवे ट्रैफिक। उनकी कृपा रही हम पर। मैंने अपने आपको उन्हें समर्पण कर दिया और उनका मेरे ऊपर वरदहस्त रहा।

आपका काम क्या रहता था अटल जी के साथ ?

मैं उनके सारे कागज–पत्र संभालता था। प्रवास में साथ जाता था। उनकी जो जरूरत होती थी उसको पूरी करने की कोशिश करता था।

अटल जी की दिनचर्या क्या रहती थी ?

जब वे स्वस्थ थे तो दिन–रात भ्रमण किया करते थे। दिल्ली में बहुत कम रुकते थे, जब संसद के सत्र होते थे तभी रुकते थे अन्यथा सारे देश का हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक, अटक से लेकर कटक तक दौरा करते रहते थे। 2005 में उन्होंने सार्वजनिक घोषणा की थी कि मैं राजनीति में सक्रिय नहीं रहूंगा, तबसे वे राजनीति में सक्रिय नहीं रहे। हां राष्ट्रपति का जो चुनाव होने वाला था, जिसमें भैंरोसिंह शेखावत खड़े हुए थे, तो एनडीए के जितने घटक थे, उनको अटलजी ने बुलाया था और हमारे घर पर ही बैठक हुई। उसके बाद से कुछ नहीं। 2009 में तो उन्हें स्ट्रोक हो गया। करीब दो महीने अस्पताल में रहे वेंटिलेटर पर और दो महीने बाद फिर आ गए।

अटल जी सबसे अधिक खुश और सबसे अधिक दु:खी कब होते थे ?

सबसे अधिक प्रसन्न तो तब हुए जब परमाणु विस्फोट किया और जब प्लेन हाइजैक हो गया तब वो दु:खी थे, हम भी दु:खी थे। हम लोगों को आश्वासन दिया था कि भई, सब सकुशल आ जाएंगे। अक्षरधाम पर हमला हुआ, संसद पर हमला हुआ, इन सबका उन्होंने हिम्मत से सामना किया।

कभी आपने उनको क्रोधित होते हुए देखा ?

मैंने कभी नहीं देखा।

राजनीति और साहित्य के अलावा अटल जी की अन्य रुचियां क्या थीं ? फुरसत के समय में वे क्या करते थे ?

भई, फुरसत थी कहां उनको ? दिन–रात पार्टी का काम करते थे। अध्यक्ष रहे 7 साल, पहले जनसंघ के, बाद में भाजपा के। फुरसत तो मिलती नहीं थी।
वैसे, वे खाने–पीने के शौकीन थे। खाना खुद बना लेते थे। सिनेमा देखने के शौकीन थे। नाटक देखना अच्छा लगता था उनको। संगीत बहुत पसंद था, विशेष रूप से शास्त्रीय संगीत। लता मंगेशकर को सुनते थे।

अटल जी ने संपादकीय लिखी, कविताएं लिखीं, लेख लिखे,  लेखन के लिए कब समय निकालते थे ?

उनका अधिकांश लेखन प्रवास में होता था। जब कार में जा रहे होते थे, उस समय मनन करते रहते थे, लिखते रहते थे। जो टुकड़ा मिला कागज का, उस पर कुछ लिख लिया। अटलजी कविताओं में व्यंग्य भी लिखते थे। हास्य भी लिखते थे और क्रोध भी लिखते थे। और सामयिक चीज भी लिखते थे। अटलजी ने कविताएं कभी अपने लिए नहीं लिखी। उनकी कविताएं समाज के लिए और पूरी मानवता के लिए होती है। जैसे उनकी कविताएं – आओ फिर से दीया जलाएं, पहचान, गीत नहीं गाता हूं, न चुप हूं न गाता हूं, गीत नया गाता हूं, ऊंचाई, कौन कौरव कौन पांडव, दूध में दरार पड़ गई, जीवन बीत चला, मौत से ठन गई, राह कौन सी जाऊं मैं, मैं नींव का पत्थर पार हुआ, आओ मन की गांठें खोलें, नई गांठ लगती है, अमर आग है, आज सिंध में ज्वार उठा है, परिचय, कदम मिलाकर चलना होगा, हिंदू तन मन, वज्र से कठोर सहित अनेक कविताएं उल्लेखनीय हैं।

अटल जी को भोजन में क्या प्रिय था ?

अटलजी को भोजन में खिचड़ी बहुत पसंद थी। वो खुद बनाते थे खिचड़ी। ज्यादातर वो दाल–रोटी खाते थे। सुबह ब्रेड और दूध। रात को दूध पीते थे, क्योंकि बालपन से उनको दादा जी दूध पिलाते थे। एक बार दीनदयालजी और अटलजी घर गए। रात्रि को विश्राम किया तो दूध लाया गया। अटलजी ने कहा, ‘‘भई, दीनदयालजी को दूध पसंद नहीं है।’’ कहा गया, ‘‘दूध तो पीना पड़ेगा। तुम जैसे दूध पी रहे हो, वैसे वो पीएंगे।‘‘ तो दीनदयालजी को मुश्किल से दूध पिलाया गया। उनको दूध कम पसंद था। अटलजी को दूध चाहिए था। मिठाई भी खूब खाते थे।

कोई खास मिठाई पसंद थी उनको?

कोई खास मिठाई नहीं। एक बार मुंबई गए थे हम। वहां मेजबान के यहां खाना खाते–खाते रसगुल्ले आ गए, तो मेजबान ने पूछा– ‘‘रसगुल्ला कैसा लगा अटलजी आपको?’’ अटलजी बोले– ‘‘बहुत अच्छा।’’ तुरंत दो रसगुल्ले और डाल दिए। सात दिन का प्रवास था महाराष्ट्र का। अब जहां जाए वहां रसगुल्ला! अटलजी बोले– ‘‘अरे ये रसगुल्ला क्यों मेरे पीछे लगा हुआ है!’’ तो बात यह थी कि उनके साथ पत्रक में लिखा हुआ आया कि इनको रसगुल्ला बहुत पसंद है। अटलजी बोले, ‘‘अरे भई, मुझे तो सभी मिठाई पसंद है, रसगुल्ला का तो नाम हटाओ यहां से!”

अटल जी की भाषण कला के बारे में बताइए ?

सरस्वती इनकी जिह्वा पर विराजमान थी। ये शब्दों के जादूगर थे। अब क्या बोलेंगे, लोगों को इसकी उत्सुकता रहती थी। उनकी भाव–भंगिमा शब्द के अनुसार होती थी। अटलजी को अगर जानना है तो उनकी कविताओं को पढ़ना पड़ेगा। अटलजी सभाओं में लोगों का चेहरा देखकर समझ जाते थे कि क्या वे सुनना चाहते हैं? भाषण को रोचक बनाने के लिए कई चुटकुले सुना दिया करते थे। कई कहानियां बता दिया करते थे। उन्होंने कभी कमर से नीचे वार नहीं किया। अपनी बात कह देनी, जिसको चुभनी चाहिए थी, वह भी ताली बजा देता था। बाद में मालूम पड़ता था कि अरे ये तो मेरे पर कहा गया था। ये एक जादूगरी थी। अटलजी का भाषा पर जबरदस्त अधिकार था। वे शब्दों को स्वेच्छानुसार नचाने में एक बाजीगर थे। अटलजी के शब्द–सामर्थ्य की चर्चा प्राय: होती है। उनके पास पर्याय, विलोम, समानार्थी, अनेकार्थी शब्द, लोकोक्तियां, कहानियां, चुटकुलों का भंडार था। संसद में विदेश नीति पर अटल जी ने अपने पहले भाषण से ही सदन का ध्यान आकर्षित किया। सदन में तब अंग्रेजी छाई रहती थी। विदेश नीति में तो अधिकांश भाषण अंग्रेजी में ही होते थे। अटलजी ने हिंदी में प्रभावी भाषण दिया।

अटल जी किनसे प्रभावित रहे?

वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्रीगुरुजी और पं. जवाहरलाल नेहरू का बड़ा सम्मान करते थे, क्योंकि स्वतंत्रता आंदोलन में नेहरू जेल में रहे थे। संसद में भी मर्यादा बनाकर रखते थे। एक बार संसद में, तब हमारी ज्यादा सीटें नहीं होती थीं तो कभी–कभी नंबर आता था बोलने के लिए, बजट अनुदान पर चर्चा हो रही थी। अटलजी ने हिंदी में भाषण दिया। नेहरूजी ने भी जवाब हिंदी में दिया। नेहरू बोले, ‘‘मुझे इसका पता नहीं था कि कोई हिंदी में इतना अच्छा सारगर्भित भाषण कर सकता है!’’ उसके बाद रात में राष्ट्रपति भवन में ‘एटहोम’ था। कम्युनिस्ट देशों से गणमान्य लोगों का दल आया हुआ था। नेहरूजी भी आए थे। अटलजी को भी बुलाया था। वे दूर–दूर रहे कि नेहरूजी नाराज हो गए होंगे। पर नेहरूजी ने बुलाया, ‘‘अटलजी इधर आओ।’’ और मेहमान से कहा, ‘‘दिस इज आवर यंग अपोजिशन लीडर। यह देश का भावी कर्णधार है।’’ नेहरूजी के ये शब्द थे अटलजी के बारे में।

अटलजी ने भी नेहरूजी को जब श्रद्धांजलि देते हुए कहा, “सूर्य अस्त हो गया। तारों की छाया में हमें अपना मार्ग ढूंढना है।” तो लोग मुंह में उंगली दबाकर रह गए। 1977 में जब जनता पार्टी की सरकार बनी, तो विभिन्न दलों के लोग उसमें शामिल थे। कहा गया कि जवाहरलाल नेहरू की फोटो हटाओ। अटलजी ने कहा, ‘‘क्यों हटाओ? ऐसा काम करो कि लोग आपकी भी फोटो लगाए।’’

अटल जी के व्यक्तित्व के बारे में आप क्या कहेंगे?

समग्रता से देखें तो राम का आदर्श, कृष्ण का सम्मोहन, विवेकानंद की ओजस्विता, बुद्ध का गांभीर्य और चाणक्य की नीति से परिपूर्ण था अटलजी का जीवन। अजातशत्रु ने कभी कमर से नीचे तक वार नहीं किया। कुतर्क से नहीं तर्क से जवाब देते थे। अटलजी स्वतंत्र भारत के सर्वाधिक लोकप्रिय जननेता, अनुभवी पत्रकार, सहृदय कवि, उदारमना नेता, सर्वश्रेष्ठ सांसद, हिंदी गौरव, मंत्रमुग्ध करनेवाला वक्ता, सबको हृदय में बसानेवाला, सबके दिल में बस जाने की अनूठी विशेषता, बच्चों सी सरलता, संतों सी सहजता, निश्छल हंसी और उत्तम व्यवहार के धनी थे। देश के शीर्ष स्थान पर पहुंचे तो देश ने उत्सव मनाया और गए तो देश रोया। भारतीय राजनीति का प्रखरतम राष्ट्रवादी सूरज, प्रिय से लोकप्रिय और लोकप्रिय से सर्वप्रिय, जन–जन के अटल, वाणी में त्राण और त्राण लेकर विरले लोग होते हैं। शालीनता और विनम्रता की प्रतिमूर्ति थे। सर्वधर्म समभाव में विश्वास रखते थे। वे ‘सत्यम्, शिवम्, सुंदरम्’ के अनुयायी थे। अटलजी युद्ध के विरुद्ध थे, शांति के पुजारी थे।

अटलजी का आभामंडल प्रखर था। वे अपने निश्छल स्वभाव के कारण सर्वस्वीकार्य थे। वे रागों में राग–भैरव थे। सप्त–सुरों में सहज उनके कंठ का माधुर्य अद्भुत मृदुल था, इसलिए कि उन्हें रबड़ी मिश्रित मावा तथा पेड़े नामक मिठाई बहुत प्रिय थे। वे मीठा बोलते थे। विरोधियों को परास्त करने में ग्वालियर के चूड़े और आगरे के मंगोरे का भी कमाल है।

राजनीति की रपटीली राहों पर अटलजी सरपट दौड़े। वे आधे कवि – आधे राजनेता थे। अटलजी को भारत रत्न से नवाजा गया। कोई भी पद या पुरस्कार अटल जी से बड़ा नहीं है। वे जिस पद पर बैठे उस पद की गरिमा बढ़ गई। उनमें एक अच्छा गुण था कि वे धैर्य से सुनते थे। ‘तू आया-मैं गया’, ऐसा नहीं करते थे। आप अगर गए हैं और उनके पास समय है तो आपकी पूरी बात सुनेंगे। जब तक आप संतुष्ट नहीं हों, तब तक नहीं जाएंगे और कोशिश करेंगे वो आपकी मदद कर सकें। वे हरदम प्रयत्नशील रहते थे।

वे धैर्यवान थे। वे कम बोलते थे। वे कहा करते थे, बोलने के लिए जिह्वा चाहिए और चुप रहने के लिए विवेक। वे कहते थे- जिसकी नीित ठीक है, जिसकी नीयत ठीक है, उसकी नियति मदद करती है।

सबको साथ लेकर चलने के पक्षधर, कुशल प्रशासक, छोटे से छोटे कार्यकर्ता की व्यथा–कथा मनोयोग से सुनने में सिद्धहस्त, राजनीति के दलदल से निकले कमल पुष्प के समान, हृदय-हृदय को जोड़नेवाले शिल्पी, मानव-मूर्ति को गढ़ना, उसमें प्राण–प्रतिष्ठा करना, वरना मूर्ति पाषाण है, एक कुशल पत्रकार, सांसद ही नहीं सर्वश्रेष्ठ सांसद, विपक्ष के सर्वमान्य नेता, सत्ता के उच्च सिंहासन पर पहुंचकर भी ये कहना, “हे प्रभु मुझे इतनी ऊंचाई मत देना कि गैरों को गले न लगा सकूं, इतनी रुखाई न देना,” अद्भुत है।

वे अपने बारे में कहते थे- ‘‘अंतिम यात्रा के अवसर पर विदा की बेला में जब सबका साथ छूटने लगता है, शरीर भी साथ नहीं देता तब आत्मग्लानि से मुक्त यदि हाथ उठाकर यह कह सकता है उसने जीवन में जो कुछ किया सही समझकर किया है किसी को जान–बूझकर चोट पहुंचाने को नहीं, सहज कर्म समझकर किया, तो उसका अस्तित्व सार्थक है, उसका जीवन सफल है, उसी के लिए कहावत बनी है मन चंगा तो कठौती में गंगा।’’

अटल जी से जुड़ी कुछ ऐसी घटनाएं जिनका आप पर प्रभाव पड़ा ?

मेरे ऊपर तो सारा प्रभाव खुद उन्हीं का है। घटनाएं बाद में घटी हैं मैं तो पहले से जुड़ गया था उनके साथ। जो अच्छा काम होता उनको खुशी होती, मुझे भी खुशी होती। जो बुरा काम होता, उन्हें दु:ख होता।

एक प्रेरक प्रसंग है। अटलजी को बैंगलोर से आना था। 10 बजे प्लेन आती थी। लेने मुझे जाना था। जगदीश माथुरजी उस समय सचिव थे। वे बोले, “क्या कर रहे हो?” मैंने कहा, “कागज-पत्र देख रहा हूं।” वे बोले, “चलो, सिनेमा देखने चलते हैं।” मैंने कहा, “नहीं।” वे बोले, “अरे चलो यार।” मैंने बोला, “10 बजे अटलजी को लेने जाना है, 9 बजे निकलूंगा यहां से।” वे बोले, “चलो, चलो, पिक्चर डेढ़ घंटे की है।” उन्होंने बहुत प्रेशर डाला। मैं चला गया। मेरा भाग्य खराब। एक तो पिक्चर लंबी निकली और फ्लाइट टाइम पर आ गई। जब मैं वहां गया तब तक अटलजी वहां से निकल चुके थे। घर की चाबी मेरे पास थी। जब मैं आया तो अटलजी को टहलता हुआ पाया। मेरी हिम्मत नहीं हुई कि मै अंदर जाऊं। मैं बहुत डर रहा था कि डांटेंगे, पता नहीं क्या कहेंगे? दरवाजा खोला और ब्रीफकेश लिया। अटलजी बोले, “आप कहां चले गए थे?” मैंने कहा, “साहब, सिनेमा देखने चला गया था।” वे बोले, “अरे तो हम भी चलते।” मैंने कहा, “साहब, कुछ ऐसा ही माहौल बना कि चला गया। मैं क्षमा चाहता हूं। आपको दिक्कत हुई।” वे बोले, “अरे नहीं, नहीं।” फिर बोले, “अरे चलो, चलना है एक दूसरी मीटिंग है।” ग्वालियर हाउस में मीटिंग होनी थी। इस तरह की अनेक घटनाएं हैं।

आपने अटल जी पर एक पुस्तक लिखने की योजना बनाई थी, इस बारे में बताएं ?

पुस्तक लिखने की तो योजना नहीं थी पर मैंने कुछ पन्ने लिख डाले हैं, उसका संकलन करने की सोच रहा हूं। देखो संभव होता है कि नहीं। उसका नाम होगा ‘श्रद्धा, संकल्प और संस्मरण।’