भारतीय जनसंघ की अर्थ नीति

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(भारतीय जनसंघ उत्तर प्रदेश के प्रादेशिक सम्मेलन सीतापुर,1953 के अवसर पर कार्यकर्ता शिविर के लिए दीनदयालजी द्वारा जनसंघ की अर्थ नीति पर लेख)

दीनदयाल उपाध्याय

क्रमश:

भूमि व्यवस्था में परिवर्तन

कृषि-क्षेत्र में उत्पादन बढ़ाने और संपूर्ण जनशक्ति का उपयोग करने के लिए वर्तमान भूमि व्यवस्था को बदलने की आवश्यकता है। भूमि का पुन: वितरण करना होगा। प्रश्न खड़ा होता है कि इस वितरण का आधार क्या हो? काम का अधिकार सिद्धांत के अनुसार इसका सीधा उत्तर यह कि जीतने वाले ज़मीन के अधिकारी बनें। संत विनोबा इसी वितरण के लिए भूदान का महान् यज्ञ कर रहे हैं। वे वृत्ति परिवर्तन की बात कहते हैं, जो भारतीय सिद्धांत के अनुसार सही है। वृत्ति परिवर्तन के साथ इस आशय का क़ानून तो बनाना ही होगा। भूमि के पुनर्वितरण का दूसरा प्रश्न यह है कि जमींदार-नंबरदार आदि नामों से स्थान-स्थान पर रहने वाले बीच वालों का क्या हो। स्पष्ट है कि बिना मुआवजा दिए उनका उन्मूलन होना चाहिए, परंतु उनके पुनर्वास के लिए शासन की ओर से सहायता अवश्य दी जानी चाहिए। तीसरा प्रश्न भूमिहीन श्रमिकों (Landless labour) का है। वस्तुत: ग्रामोद्योगों की उचित व्यवस्था हो जाने पर यह प्रश्न इतना कठिन नहीं रहता, क्योंकि ग्रामवासी तब समग्र रूप से भूमि पर निर्भर नहीं रहते। फिर भी ऐसे श्रमिकों के हित में भूमि पर उनके लिए कुछ पारंपरिक अधिकारों का विकास करना होगा। जैसे भूमि पर से उनका हटाया न जाना। भूमि की बिक्री अथवा हस्तांतरण की स्थिति में भी उन्हें उस पर काम करने दिया जाएगा आदि।

कृषि का उत्पादन

कृषि का उत्पादन बढ़ाने के संबंध में कृषकों को अच्छा बीज, हल, आर्थिक सहायता आदि देने की भी व्यवस्था अवश्य करनी होगी। समुचित रूप से कृषि शिक्षा की भी व्यवस्था अनिवार्य है। आज धन प्राप्ति की दृष्टि से बहुत मात्रा में लगाई जाने वाली फ़सलों (Cash crops) के कारण अन्न की फ़सल (Food crops) का उगाया जाना घट गया है और खाद्याभाव का यह भी एक प्रमुख कारण है। अत: दोनों प्रकार की फसलों में संतुलन पैदा करते हुए उत्पादन की योजना की जानी चाहिए।

छोटी और सस्ती मशीनों का उपयोग

खेती में ट्रैक्टर आदि का उपयोग किया जाए अथवा नहीं, यह प्रश्न खड़ा होने पर यही कहना पड़ता है कि वर्तमान स्थिति में इनका उपयोग विशेष कृषि योजनाओं को छोड़कर अन्यत्र कहीं नहीं किया जाना चाहिए। अभी तो हल ही पर्याप्त है। उसमें जो सुधार संभव हो, किए जा सकते हैं। छोटे और सस्ते ट्रैक्टर जो सुना है, जापान में बनने लगे हैं, यदि हों तो उनका प्रयोग आरंभ करने का विचार किया जा सकता है।

भूमि कर कितना हो, यह भी महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। हमारा निश्चित मत है कि सरकार जमींदार से जितना कर लेती थी, उतना ही कृषक से भी ले। शेष धन का उपयोग विविध रूप से ग्राम सुधार में ही किया जाना चाहिए। ग्राम सुधार और कृषक उन्नति के लिए सहकारी संस्थाओं का बड़ा महत्व है और उनके विकास पर पूर्ण ध्यान दिया जाना चाहिए।

कुटीर उद्योग

औद्योगिक क्षेत्र में उत्पादन बढ़ाने, जनता को आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी बनाने तथा संपत्ति के सम विभाजन की व्यवस्था करने के लिए हमें कुटीर-उद्योगों को पुन: विकसित करना पड़ेगा। प्राचीन भारत का संपूर्ण आर्थिक ढांचा इन कुटीर उद्योगों पर ही खड़ा था। उस समय न केवल देश स्वावलंबी था, वरन् लघुतम इकाई ग्राम तक स्वावलंबी थे और संपत्ति के संचय का प्रश्न भी नहीं था। इसके अलावा उत्पादित सामग्री के कलात्मक मूल्य भी बहुत अधिक थे। अंग्रेजों ने भारतीय समाज जीवन की इसी रीढ़ को तोड़ने की सफल चेष्टा की और इसी के बाद वे अपने यहां उत्पादित अधिक सामग्री को यहां खपा सके। आर्थिक स्वाधीनता के लिए हमें इसी रीढ़ को पुन: खड़ा करना होगा। इस काल में विश्व जो वैज्ञानिक उन्नति कर चुका है, उसको ध्यान में रखते हुए इस व्यवस्था का बाहरी रूप कुछ बदलना होगा। जापान इस दिशा में भारत की बहुत कुछ सहायता कर सकता है। कुटीर-उद्योगों में ही हम संपूर्ण जनशक्ति का उपयोग कर सकते हैं, जो हमारी एक प्राथमिक ज़िम्मेदारी है।

वितरण व्यवस्था

उत्पादन के बाद अब वितरण का सवाल आता है। उत्पादन की जो उपर्युक्त व्यवस्था हमने देखी उसमें वितरण को असमान न होने देने की क्षमता है। समानता के लिए पूंजी का केंद्रीकरण न हो, इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है। इसीलिए विकेंद्रित उद्योग-धंधों की व्यवस्था है। जहां तक कुटीर उद्योगों का सवाल है, यह खतरा बहुत कम है, लेकिन जहां बड़े उद्योगों का क्षेत्र शुरू होता है, वहां यह खतरा उत्पन्न होता है। सुरक्षा उद्योगों का तो राष्ट्रीयकरण अनिवार्य है। अब प्रश्न बनता है पूंजी उद्योगों का। उनका भी अंतिम रूप से राष्ट्रीयकरण कर देना उद्देश्य होना चाहिए। आज पूंजी उद्योग व्यक्तिगत क्षेत्र में आते हैं। उनसे व्यक्तिगत क्षेत्र का क्रमिक उन्मूलन किया जाना चाहिए। जब तक यह राष्ट्रीयकरण अंतिम रूप से संपन्न नहीं हो जाता, तब तक बड़े उद्योगों के गुट (Cartela and combines) बनने देने की प्रवृत्ति को रोकना चाहिए। जिन उद्योगों में ये गुट बन गए हों, उनका राष्ट्रीयकरण कर लिया जाए। कुटीर उद्योगों का विकास करते समय भी इस बात का ध्यान रखना होगा कि उनके गुट बनाकर पूंजीपति उन पर नियंत्रण न स्थापित कर लें। जापान में वितरण तथा संपत्ति की असमानता का कारण वहां के कुटीर उद्योगों पर पूंजीपतियों का नियंत्रण ही है।

श्रम और पूंजी का संबंध

बड़े उद्योगों के साथ ही श्रम और पूंजी के संबंध का प्रश्न भी खड़ा होता है। उद्योगों पर दोनों का समान दायित्व और समान अधिकार मानना मूल बात है। इसका परिणाम होता है-अधिक काम और अधिक काम। मजदूरों की मांगों को मनवाने का अस्त्र हड़ताल है, लेकिन उसका उपयोग बहुत सोच-समझकर और अंतिम रूप में ही किया जाना चाहिए। भारतीय सिद्धांत के अनुसार श्रम यदि अधिकार है, तो कर्तव्य भी है, यह हम कह चुके हैं। कोई दूसरा हमें इस अधिकार से वंचित न करे और न हम स्वयं इससे स्वत: को वंचित होने दें। हड़तालों को घटाने के लिए औद्योगिक न्यायालयों में सुधार करना पड़ेगा। यह व्यवस्था करनी होगी कि वे शीघ्र निर्णय दें और उनके निर्णय पूंजीपतियों द्वारा भी मनवाए जाएं।

संयमित उपभोग

तीसरा और अंतिम प्रश्न है उपभोग का। पश्चिमी देशों की आर्थिक क्रांति और विचार प्रक्रिया के संपूर्ण इतिहास में अर्थव्यवस्था के इस तीसरे पक्ष की ओर प्राय: बिल्कुल ध्यान नहीं दिया गया है। भारतीय संस्कृति न केवल इसकी ओर ध्यान देती है, वह इस पर बल भी देती है। वह कहती है कि अनियंत्रित उपभोग असमान वितरण का कारण है। उपभोग में संयम बरतने वाला और सादा व्यक्ति अपनी चेष्टा से अपने परिवार का ही नहीं, संपूर्ण समाज और मानव मात्र का जीवन बदल दे सकता है। इस सिद्धांत के अनुसार उत्पादन उपभोग का नियंत्रण नहीं करता, उपभोग ही उत्पादन का नियंत्रण करता है। अमर्यादित और असंयत उपभोग की वह वृत्ति है, जो स्वदेश के उत्पादन से तृप्त न होकर विदेशों पर नजर डालती है और उन्हें खा डालने की इच्छा से साम्राज्यवाद के भयंकर रूप में प्रगट होती है।

मोटे तौर पर यह भारतीय विकेंद्रित अर्थ नीति की रूपरेखा है। इसमें संपत्ति सिद्धांत: समाज की है, मनुष्य को काम करने का अधिकार है और सभी व्यक्तियों को काम दिलाने की जिम्मेदारी भी है। विश्व की नई आर्थिक क्रांतियों में इस प्रकार के प्रयोग नहीं हुए हैं।
आमदनी के अनुपात के निर्णय का प्रश्न यद्यपि पीछे से नाक पकड़ना है, परंतु यदि उसे भी लें तो भारतीय जनसंघ आमदनियों का अनुपात 1 और 20 करने का निर्णय कर चुका है। यदि कम-से-कम आमदनी 100 रुपए हो तो अधिक-से-अधिक 2000 होनी चाहिए। कर्मचारियों, किसानों, मजदूरों तथा पूंजीपतियों सभी की आमदनी को इस अनुपात में लाने की चेष्टा की जानी चाहिए। (समाप्त)

– पांचजन्य, जनवरी 25, 1954