भारतीय जनसंघ की अर्थ नीति

| Published on:

भारतीय जनसंघ उत्तर प्रदेश के प्रादेशिक सम्मेलन सीतापुर,1953 के अवसर पर कार्यकर्ता शिविर के लिए दीनदयालजी द्वारा जनसंघ की अर्थ नीति पर लेख।

दीनदयाल उपाध्याय

भारतीय संस्कृति की सदैव से यही मान्यता रही है कि संपत्ति समाज की है। ईशावास्य के प्रथम मंत्र में ही यह मूलभूत प्रश्न पूछा गया है कि संपत्ति किसकी है- ‘कस्य स्विद्धनम्।’ वस्तुत: संपत्ति के स्वामित्व का प्रश्न मनुष्य समाज के संगठन की एक मुख्य शिला है और शास्त्र में जब यह कहा गया कि ‘सुखस्य मूलं धर्म:, धर्मस्य मूलं अर्थ, अर्थ एवं प्रधान:’ तब यह स्वीकार कर लिया गया कि सुख और धर्म दोनों के लिए अर्थ का समुचित संतुलन आवश्यक है। तो फिर पुन: यही प्रश्न पैदा होता है कि यह संतुलन किस प्रकार हो। इसके उसी मंत्र में प्रश्न का उत्तर भी देते हुए ऋषि ने असंदिग्ध रूप से यह घोषणा कर दी, हाथ उठाकर यह घोषणा कर दी कि संपत्ति समाज रूप ईश्वर की है।

ट्रस्टीशिप का सिद्धांत

भारतीय संस्कृति के आर्थिक पहलू का नियमन करने वाली यह आद्य और मूलभूत घोषणा है। इसी को आधार मानते हुए समाज के कुछ व्यक्तियों को अथवा एक वर्ग को संपत्ति का ट्रस्टी बनाकर उसके संयम और विनियोग के उत्तरदायित्व पूर्ण कार्य में पारंगत बनाने की दृष्टि से व्यवस्था की गई और ऐतिहासिक रूप में यह ध्यान देने की बात है कि जब संसार के अन्य देशों, विशेषकर यूरोप में जन-समाज राजाओं तथा सामंतों द्वारा विकृत अर्थव्यवस्था में शोषित हो रहा था, तब भारत में ट्रस्टीशिप के इस सिद्धांत के अंतर्गत संपूर्ण राष्ट्र विविध धन-धान्य से सुखी अपने जीवन को आध्यात्मिक, नैतिक तथा कलात्मक दिशाओं में विकसित करता हुआ जीवनयापन कर रहा था। आज भले ही ट्रस्टीशिप का यह सिद्धांत बिगड़ गया हो और राष्ट्र की संपत्ति के ट्रस्टी व्यक्तिगत सुख-संपन्नता बढ़ाने में ही उसका उपयोग करने लग गए हों, यह निर्विवाद है कि जब तक संपत्ति को समाज की मानने की यह भावना उनमें जीवित रही, तब तक उन्होंने आधी टांगों तक धोती-मिरजई और सिर पर पगड़ी लगाकर ही अपने कर्तव्य का पालन किया और देश को सुख-समृद्धि से भर दिया।

मानव समाज का वर्गीकरण

एक वर्ग को संपत्ति के संचय और विनियोग का समस्त कार्य साैंप देने का कारण यह था कि भारतीय संस्कृति हर व्यक्ति को हर कार्य के उपयुक्त नहीं मानती है। उसने मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मनुष्य समाज के चार भाग किए और वृत्तियों के आधार पर इनमें से एक वैश्य वर्ग को यह दायित्व दिया। मानव समाज को कुछ भागों में बांटने का यह भारतीय प्रयोग प्राय: सभी देशों में किसी-न-किसी रूप में किया जाता रहा है। अति प्राचीन काल में ग्रीक दार्शनिक प्लेटो ने भी अपनी आदर्श समाज जीवन की कल्पना देते हुए समाज को तीन भागों में बांटने की बात कही थी और आज कम्युनिस्ट देशों में चलने वाला वर्गविहीन समाज का प्रयोग भी उसे तीन वर्गों तक ही बांटकर रह गया है। अत: इन सबसे पहले किया गया भारतीय प्रयोग निस्संदेह विश्व इतिहास की एक सफल व्यवस्था कहा जाएगा। ट्रस्टीशिप की इस व्यवस्था की ओर ध्यान देने योग्य बात यह है कि वह अमर्याद नहीं था। उस पर सदा मर्यादाएं रहीं और इसी कारण वह समाज के लिए लाभकर सिद्ध हुआ। मर्यादित ट्रस्टीशिप अपने शुद्ध रूप में और शुद्ध भावनाओं के साथ चलने पर समाज के कल्याण का कारण होती है। यहां ट्रस्टीशिप से भी अधिक महत्त्व की बात मर्यादा की है। व्यक्ति, निगम या राज्य कोई भी ट्रस्टी हो, यदि वे अमर्याद हुए तो अव्यवस्था शुरू हो जाएगी। कम्युनिस्ट देशों में आज राज्य की अमर्याद ट्रस्टीशिप है और उसके राजनीतिक दुष्परिणामों से कौन अपरिचित है।

धर्म और श्रम

भारत की वर्तमान परिस्थितियों में जब उसे राजनीतिक स्वतंत्रता मिल गई है, आर्थिक स्वतंत्रता दिलाने का सवाल खड़ा होता है। यह आज का मुख्य राष्ट्रीय प्रश्न है। इस प्रश्न को हल करने के विभिन्न उद्योग विभिन्न प्रणालियों से तथा विभिन्न दिशाओं में किए जा रहे हैं। हमारे लिए यह प्रश्न इस रूप में आता है कि हम उसको भारतीय ढंग से किस प्रकार हल कर सकते हैं। हम जानते हैं कि भारतीय ढंग सदा से धर्म का (मज़हब का नहीं) ढंग रहा है और धर्म के इस ढंग पर ही आर्थिक नवनिर्माण के नए नियमों को तैयार करने की जरूरत है। भारतीय वांङमय में धर्म की जो व्याख्याएं समय-समय पर दी गईं, उनमें से सबसे पुरातन होने के कारण वेदों की व्याख्या को हम लेते हैं, जिसमें उसके 12 लक्षण गिनाए गए हैं। इनमें धर्म का आद्य लक्षण सबसे महत्त्वपूर्ण है। (श्रमेण तपसा सृष्टा..) और वह है ‘श्रम’ । भारतीय ऋषियों ने जीवन में श्रम की अन्यतम महत्ता को भलीभांति जान लिया था और इसीलिए उन्होंने ‘श्रम’ को धर्म का पहला लक्षण बताया। श्रम की महत्ता का ज्ञान मार्क्स और एंजेल्स के जन्म तक रुका नहीं रहा, वह अति पुरातन काल में सहज अनुभूति से हमने मानवता को दे दिया था।

श्रम मनुष्य का कर्तव्य

आधुनिक शब्दावली में इसी बात को यों कह सकते हैं कि श्रम करना मनुष्य का मूलभूत कर्तव्य है (Duty to work)। इसी प्रकार मनुष्य को श्रम करने का यह अधिकार देना राज्य का भी मूलभूत कर्तव्य हो जाता है। आज जब समाज व्यवस्था बिगड़ी हुई है और श्रम करने वाले मनुष्य को भी, पहले तो उसे श्रम करने का अवसर ही नहीं मिलता, अवसर मिले भी तो उसे भरपेट खाना नसीब नहीं होता, तब राज्य की अपेक्षा में मनुष्य का यह श्रम करने का कर्तव्य कर्तव्य न रहकर अधिकार बन जाता है और इसी अधिकार की मांग, उसकी स्थापना तथा उसी पर आधारित व्यवस्था की रचना ही उसका मुख्य कर्तव्य अथवा परम धर्म बन जाता है।

श्रम का अधिकार

अत: श्रम का अधिकार (Right to work) मनुष्य का संवैधानिक अधिकार है। राज्य का यह पहला कर्तव्य है कि वह प्रत्येक नागरिक को उसकी योग्यता और क्षमता के अनुसार काम करने का अवसर दे। इन अवसरों में किसी प्रकार का भेदभाव, न जाति का, न रंगभेद और न लिंग का होने दें। राष्ट्र के आर्थिक पुनर्निर्माण की जो भी योजना बनाई जाए उसका उद्देश्य सभी व्यक्तियों को काम दिलाना (Full employment) होना चाहिए। भारत की आर्थिक नवरचना के लिए जो पंचवर्षीय योजना बनाई गई है अथवा भविष्य में इस प्रकार की जितनी भी योजनाएं बनाई जाने की संभावना है, उनका उद्देश्य सभी व्यक्तियों को काम दिलाना ही होना चाहिए। इसके बिना ये योजनाएं न राष्ट्रीय कही जा सकती हैं और न भारतीय ही।

जनशक्ति का आधार

इस प्रकार भारतीय अर्थव्यवस्था में जो व्यक्ति काम करेगा, वही खाएगा। काम या श्रम वह है, जिसका परिणाम होता है उत्पादन। लोगों को अधिक-से-अधिक खाने को मिले, अर्थात् राष्ट्रीय वैभव अधिक-से-अधिक बढ़े इसके लिए उत्पादन को अधिक-से-अधिक बढ़ाने की चेष्टा करनी होगी। इस उद्देश्य को पूर्ण करने के लिए जिन साधनों का भी उपयोग करना पड़े, करना चाहिए। लेकिन साधन वाली इस बात की एक मर्यादा है। वह यह कि अपने ही पैरों पर खड़े होने का लक्ष्य लेकर आगे बढ़ना चाहिए। विदेशों की सहायता लेकर अर्थात् उनके पैरों पर खड़े होकर चलने का उपक्रम किसी दिन अपने आपको बिल्कुल लंगड़ा बना डालना है और यह गलत मार्ग है। इस दृष्टि से देखने पर लगेगा कि भारत में पूंजी की कमी भले ही हो, जनशक्ति की कमी कदापि नहीं है। उस जनशक्ति को काम का अधिकार (Right to work) देना भी है। अत: जनशक्ति के आधार पर ही अधिक उत्पादन की योजनाएं बनाई जानी चाहिए। कृषि और उद्योग दोनों को ही जनशक्ति के सहारे उठाने की जरूरत है।

(क्रमश:)