राफेल पर कांग्रेस गढ़ रही है झूठ का पुलिंदा

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अरुण जेटली

राफेल सौदे पर बोले गए सभी झूठ उजागर हो गए हैं। सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी स्पष्ट है। सरकार के खिलाफ कहा गया हर एक शब्द झूठ साबित हुआ है। सौदा के खिलाफ निहित स्वार्थों से की गई प्रत्येक टिप्पणी अब बनावटी साबित हो रही है। सत्य ने एक बार फिर अपनी प्रधानता स्थापित किया है, लेकिन इस मुद्दे पर झूठ बोलने वाले अभी भी अपनी विश्वसनीयता को दांव पर लगाकर झूठ के साथ ही खड़े हुए है और केवल उनके चहेते ही उनका साथ दे रहे हैं।
राफेल एक लड़ाकू विमान है, जिसकी खूबियां भारतीय वायु सेना की मारक क्षमता में सुधार के लिए आवश्यक हैं। भारत भौगोलिक रूप से एक संवेदनशील क्षेत्र में स्थित है। इसे खुद को बचाने की जरूरत है। इस तरह के हथियार की जरूरत को कम करके नहीं आंका जा सकता है। जब इस तरह के रक्षा उपकरण खरीदे जाते हैं तो जाहिर तौर पर कुछ कंपनियों का नुकसान होता हैं, पर इन कंपनियों में भी चतुर लोग हैं। वे समझते हैं कि भारत में “कमजोर” कौन हैं।

राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी के रूप में राहुल गांधी का इस सौदे के विरोध में खड़ा होना उनकी हताशा को दर्शाता है। वह यूपीए सरकार थी जिसने राफेल को तकनीकी रूप से सबसे अच्छा और सस्ता विमान बताया था। एक इंटर-गवर्नमेंट समझौते में प्रधानमंत्री मोदी ने फ्रांसीसी सरकार के साथ जो करार किया है, उसमें यूपीए सरकार द्वारा सहमत नियमों एवं शर्तों तथा मूल्यों को बेहतर ही किया गया है।

राहुल का विरोध इन तीन कारणों से स्पष्ट है:-

सबसे पहले, वह इस बात को पचा नहीं पा रहे है कि हाल के भारतीय इतिहास में प्रधानमंत्री मोदी ने सबसे साफ सरकार चलाई है। इस सरकार के कार्यकाल में कोई घोटाला नहीं हुआ और बिचौलियों तथा घोटालेबाजों को देश के बाहर शरण लेनी पड़ी।

दूसरे, राहुल गांधी पर एक कलंकित विरासत का बोझ है जो बोफोर्स द्वारा दागी गई थी। वह राफेल और बोफोर्स के बीच एक ‘अनैतिक समानता’ लाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन राफेल सौदे में बिचौलिए नहीं थे, कोई रिश्वत नहीं दी गयी और जाहिर तौर पर कोई ओतावियो क्वात्रोची भी नहीं था।
तीसरा, अंतर्राष्ट्रीय सहयोग से अब यूपीए सरकार के घोटालेबाजों को भारत में प्रत्यर्पित किया जा रहा है। जाहिर है डर यह है कि कौन कितनी बात बोलेगा।
राहुल गांधी को लुटियंस दिल्ली के “कैरियर नेशनलिस्ट” का समर्थन तुरंत मिला। इन स्थायी जनहित याचिकाकर्ताओं ने हमेशा राष्ट्रीय सुरक्षा की चिंताओं पर रुकावटों को प्राथमिकता दी है। वे भारत को नुकसान पहुंचाने वाले किसी भी व्यक्ति के साथ सहयोग करने को तैयार रहते हैं। इसके साथ ही दिल्ली में इस एक नये रोजगार का सृजन होने लगा, जो केवल देश के खिलाफ है। इसलिए यह विघटनकारी गठबंधन काफी व्यापक है।

झूठ जो बोला गया

यूपीए द्वारा गुणवत्ता और कीमत दोनों के लिए बोफोर्स चयन किया गया था, जिसे भुला दिया गया।

इस मामले में भी पहला झूठ यह बोला गया था कि केवल एक आदमी – प्रधानमंत्री ने इस समझौते को अंजाम दिया और वायु सेना, रक्षा मंत्रालय या रक्षा अधिग्रहण परिषद के साथ इसकी कोई चर्चा नहीं हुई। यह आरोप लगाया गया था कि कीमत तय करने के लिए किसी समिति का निर्माण नहीं हुआ, कोई अनुबंध वार्ता समिति नहीं बनी और सुरक्षा पर कैबिनेट समिति की भी कोई मंजूरी नहीं ली गई। यह हर तथ्य झूठा है। इस मामले में कॉन्ट्रैक्ट निगोशिएशन कमेटी और प्राइस नेगोशिएशन कमेटी की दर्जनों बैठकें हुईं। वायु सेना के विशेषज्ञों द्वारा इन वार्ताओं में हिस्सा लिया गया और रक्षा अधिग्रहण परिषद एवं सुरक्षा पर कैबिनेट समिति दोनों की मंजूरी के बाद ही इस सौदे को किया गया।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले में इस मामले में प्रक्रियात्मक अनुपालन की बात कही गई है और कोर्ट काफी संतुष्ट दिखाई दिया।

दूसरा बड़ा झूठ यह था कि यूपीए सरकार द्वारा 500 मिलियन यूरो की तय कीमत के खिलाफ एनडीए सरकार ने प्रति विमान 1600 मिलियन यूरो का भुगतान किया। यह इलज़ाम कोरी कल्पनाओं और एक कमजोर मूल्यांकन पर आधारित था। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एक सीलबंद लिफाफा प्रस्तुत किया, जिसमें यूपीए सरकार और एनडीए सरकार द्वारा तय कीमतों का एक तुलनात्मक विवरण प्रस्तुत किया गया है। सरकार ने यूपीए के मुकाबले प्रत्येक विमान के लिए 9% और हथियारबंद विमान के लिए 20% सस्ता सौदा किया। चूंकि यूपीए ने 18 विमानों की आपूर्ति का सौदा किया था, इसलिए यह 9% और 20% का लाभ वर्तमान सौदे में और भी विस्तृत हो जाता है। न्यायालय ने कीमतों पर गौर किया और इस मामले में कोई प्रतिकूल टिप्पणी नहीं की।
तीसरा बड़ा झूठ न्यायालय के निर्णय को लेकर यह फैलाया जा रहा है कि कोर्ट ने भारत सरकार को एक विशेष व्यापारिक घराने का पक्ष लेने की बात कही है। जबकि कोर्ट ने स्पष्ट कहा कि सरकार का ऑफसेट सप्लायर्स तय करने की प्रक्रिया से कोई लेना-देना नहीं है, इसका निर्णय पूर्ण रूप से डसॉल्ट ने किया था।

कोर्ट के फैसले के बाद इस बहस पर विराम लग जाना चाहिए था, लेकिन न तो इस केस की पैरवी करने वाले और न ही हमारे राजनीतिक विरोधी इस बात को हजम कर पा रहे है।

संयुक्त संसदीय समिति (JPC) की मांग अनुचित

राफेल सौदे का विरोध करने वाले के पास अपनी बात रखने के विभिन्न मंच थे, लेकिन उन्होंने इसके लिए सर्वोच्च न्यायालय को चुना।

न्यायालय बिना पक्षपात करे, स्वतंत्र और एक निष्पक्ष समीक्षा करता है और संवैधानिक तौर पर भी कोर्ट ही सर्वोच्च संस्था है। अदालत का फैसला अंतिम होता है, उसकी समीक्षा केवल न्यायालय द्वारा ही की जा सकती है। एक संसदीय समिति कैसे कोर्ट के निर्णय की समीक्षा कर सकती है। क्या राजनेताओं की एक समिति कानूनी रूप से सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए फैसले की समीक्षा करने में सक्षम है? इस मामले में भी सौदे की प्रक्रिया, ऑफसेट सप्लायर्स और मूल्य निर्धारण जैसे मुद्दों पर क्या एक संसदीय समिति, कोर्ट ने जो कहा है, उससे अलग कोई दृष्टिकोण पेश कर सकती है? क्या राष्ट्र की सुरक्षा के साथ समझौता कर एवं दो देशों के बीच हुए अनुबंध का उल्लंघन कर, संसद/उसकी समिति को कीमतों की जनकारी दी जा सकती है? यह राष्ट्रीय हित के साथ गंभीर समझौता नहीं होगा? इस सौदे की कीमतें सार्वजनिक डोमेन में आ जाएगी। संयुक्त संसदीय समिति (JPC) ने एकमात्र अवसर पर क्या किया जब उन्होंने एक रक्षा लेनदेन की जांच की ?

बोफोर्स सौदे पर साल 1987-88 में बी. शंकरानंद समिति का गठन किया गया। चूंकि सांसद हमेशा अपनी पार्टी लाइन पर विभाजित होते हैं, इसलिए इस समिति ने कहा कि इस सौदे में कोई रिश्वत नहीं दी गई है तथा बिचौलियों को दिए जाने वाले पैसे को ‘वाइंडिंग अप’ चार्ज बताया गया। उस समय केवल विन चड्ढा को बिचौलियों के रूप में प्रस्तुत किया गया, लेकिन इसके बाद ओतावियो क्वात्रोची सहित अन्य लोगों की जांच में पता चला कि जबकि यह लोग किसी वाइंडिंग अप चार्ज के हकदार नहीं थे फिर भी उनकों पैसों का भुगतान किया गया। चित्रा सुब्रमणियम और एन. राम द्वारा ‘द हिंदू’ में प्रकाशित रिपोर्ट और उसके बाद के सभी तथ्य में पाया गया कि जेपीसी ने इस मामले में उल्लिखित प्रत्येक तथ्य को तोड़ मरोड़ के प्रस्तुत किया है। यह केवल एक कवर अप एक्सरसाइज बन रह गया था। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को ही इस मामले में भी वैधता मिली। विभिन्न अवसरों पर ऐसा पाया गया है कि अदालत ने जो कहा हो, उसके मुकाबले एक राजनीतिक निकाय कभी भी कोई अलग या बेहतर दृष्टीकोण रखने में सक्षम नहीं रही है।

सीएजी पर अस्पष्टता

रक्षा सौदों को ऑडिट समीक्षा के लिए सीएजी के पास भेजा जाता हैं। सीएजी की सिफारिशें संसद में जाती हैं और उसे लोक लेखा समिति (पीएसी) के पास भेज दिया जाता है, जिसकी रिपोर्टें संसद के सामने रखी जाती हैं। यह तथ्य भी सरकार द्वारा न्यायालय के समक्ष रखा गया था। राफेल की ऑडिट समीक्षा सीएजी के समक्ष लंबित है। इसके साथ ही अन्य सभी तथ्य साझा किए गए। जब इसकी रिपोर्ट तैयार होगी, तो यह पीएसी के पास जाएगी। इस तथ्यात्मक रूप से सही बयान के बावजूद, अगर कोर्ट के आदेश में अस्पष्टता सामने आई है, तो सही तरीका यह है कि कोई भी न्यायालय के समक्ष आवेदन कर, इसे सही करवा सकता है। अतीत में भी ऐसा होता रहा है, यदि किसी तथ्यपूर्ण कथन में कुछ भी सही करने की आवश्यकता है, तो कोई भी व्यक्ति न्यायालय का रुख कर सकता है। यह पहले भी किया जा चुका है। अब यह बताना होगा कि सीएजी समीक्षा किस चरण में लंबित है, पर इस बात को अगर न्यायालय के विवेक पर छोड़ दें, तो ज्यादा बेहतर होगा। सीएजी समीक्षा सौदे की प्रक्रिया, मूल्य निर्धारण और ऑफसेट आपूर्तिकर्ताओं पर अंतिम निष्कर्षों के लिए प्रासंगिक नहीं है, लेकिन इस मुद्दे पर झूठ बोलने वाले कभी भी इस सच्चाई को स्वीकार नहीं करना चाहते। अपने झूठों प्रयासों में असफल होने के बाद अब इन लोगों ने न्यायालय के निर्णयों पर ही प्रश्नचिन्ह लगाना शुरू कर दिया है। कांग्रेस अब इस निर्णय को लेकर झूठ का पुलिंदा गढ़ रही है।

मुझे पूरा विश्वास है कि कांग्रेस पार्टी संसद के मौजूदा सत्र में भी राफेल पर चर्चा के बजाय गतिरोधों को ही प्राथमिकता देगी। कांग्रेस इस मुद्दे पर झूठ फैला रही है। सर्वोच्च न्यायालय का फैसला निर्णायक रूप से रक्षा लेनदेन पर चर्चा में कांग्रेस पार्टी की कमजोरियों को स्थापित करता है। यह कांग्रेस पार्टी की विरासत और उसके रक्षा अधिग्रहण की याद दिलाने का भी एक बड़ा अवसर होगा– वहीं हममें से कुछ लोगों के लिए बोलने का भी एक शानदार अवसर होगा।

         (लेखक केंद्रीय वित्त मंत्री हैं)