सांस्कृतिक अधिष्ठान

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भारतीय जनसंघ के पूर्व अध्यक्ष एवं एकात्म मानववाद के प्रणेता पं. दीनदयाल उपाध्याय द्वारा 4 जून, 1959 को कानपुर में संपन्न संघ शिक्षा वर्ग में दिए गए बौद्धिक का द्वितीय भाग :

दीनदयाल उपाध्याय

दुनिया की और चीज़ों में भी चैतन्य है, शक्ति है। इसका भी विचार करें। हमारी संस्कृति में हमने जो विचार किया तो केवल मानव का ही विचार नहीं किया, अपितु बाकी की सारी सृष्टि का भी विचार किया है। इस सृष्टि के साथ भी हमारी एकता है। उसके साथ हमारा संबंध है। इस सत्य का विचार करके कि हम सृष्टि से अलग पैदा नहीं हुए, किसी शून्य में पैदा नहीं हुए, यहां केवल मानव का ही विचार करेंगे, तो पशुभाव है। बहुत ही निम्न विचार है। साधारण पशु जीवन में भी तो हम यह देखते हैं। कि वह अपनी जाति के अन्य जीवों का विचार करता है। कौआ कौए का विचार करता है। यदि एक कौआ मर जाए तो बाक़ी के तमाम कौए इकट्ठे हो जाते हैं। चींटियों का बड़ा संगठन हम देखते हैं। किसी एक प्राणी शास्त्री ने कहा है कि यदि चींटियां बिल्ली के बराबर होतीं तो मनुष्य को उठा ले जातीं। उनके पास इतनी बुद्धि है कि जिसके बारे में कुछ कहा ही नहीं जा सकता। ज्ञान की बातें पशुओं में भी दिखाई पड़ती हैं।

संपूर्ण सृष्टि के साथ हमने ही एकात्मता का विचार किया। इस एकात्मता का विचार एक भारतीय विचार है। इस आधार पर ही हमने सारे व्यवहारों को निश्चित किया और इसलिए जब हम अपनी संस्कृति का विचार करते हैं तो बताया कि सबके अंदर आत्मा है। अतः परार्थ भाव से ही विचार करते हैं। हम केवल अपना ही विचार करें, ऐसी बात नहीं है। आगे चलकर संपूर्ण सृष्टि का भाव लेकर हम विचार करते हैं, तो फिर प्रश्न होता है। कि सबके अंदर संपूर्ण सृष्टि का भाव लेकर परार्थ भाव के आधार पर हम सोचकर चलते हैं, यह व्यावहारिक कैसे होगा ? परंतु हमने एक प्रकार से सबमें मेल बिठाया है और उसमें हमें अपने व्यावहारिक जीवन की राह छोड़नी पड़े, ऐसा नहीं होता है।

हमारा व्यावहारिक जीवन यह बड़े महत्त्व का है। यह हमारा शरीर चलना चाहिए। हमारी संस्कृति की विशेषता इसी में है कि हमने एक बहुत बड़ा उच्चतम आदर्श अपने सामने जीवन का रखा है। इसके अनुसार ही हमारा व्यवहार होता है। सत्य का हमने निरूपण किया है। परंतु उसके साथ-साथ दुनिया में जो एक व्यवहार रखा, उस व्यवहार के आधार पर सत्य का विचार करते हुए वास्तविकताओं की भी अपने संपूर्ण जीवन को चलाने में व्यवस्था की। अर्थात् यह एक ऐसी व्यवस्था है कि जीवन तो चले, परंतु इस प्रकार चले कि दूसरे के जीवन में भी व्यवधान न आने पाए।

साधारणतया देखा जाता है कि शरीर में ऐसी व्यवस्था है, जिसे व्यक्त करने के लिए आत्मा सत्य है, तो ठीक है। इसका विचार करके चलने की जरूरत है, जो आत्मा है, उसके आधार पर एकता हो सकती है, हमने तो इसके भी आगे विचार किया है। भगवान् का ही नहीं, सृष्टि का विचार भी हमने परार्थ भाव के आधार पर किया, क्योंकि इससे ही व्यावहारिक जीवन चल सकता है। इन विशेषताओं को ही जीवन का उत्तम आदर्श बनाया। अपने समान की सृष्टि के प्रत्येक जीव में आत्मा है, यह विचार हमने सदैव किया। आत्मा के चैतन्य का ही नहीं, उसके लिए शरीर की आवश्यकता का भी हमने ध्यान रखा, जैसे हमने यह सोचा कि रोटी खाने से क्या लाभ, क्योंकि प्रतिदिन सुबह-शाम खाते-पीते भी शरीर का अंत होना है। अतः ज्ञान की बात ही अच्छी होती है। परंतु कोरे ज्ञानमात्र से ही कार्य का होना संभव नहीं। अतः जीने के लिए भोजन करना ही होगा। सबमें एक आत्मा का भाव रखते हुए भी यथायोग्य व्यवहार का ध्यान रखते हैं। जैसे-एक कुत्ता, ब्राह्मण तथा हाथी हैं और ये सभी भूखे हैं। यदि ब्राह्मण की खीर हाथी को खिला दी और हाथी का खाना कुत्ते को खिला दिया, तो यह तो गड़बड़ हो जाएगी। इसका हम सहज ही विचार कर सकते हैं। अतः वास्तविकताओं का विचार ही जीवन का विचार करना होता है।

राष्ट्र की एक सत्ता है। इससे अलग व्यक्ति की भी अपनी एक हस्ती है। इतना ही नहीं, तो व्यक्ति और राष्ट्र के बीच कुटुंब व अन्य इकाइयों का अपना विशेष महत्त्व है। उन्हें भुलाकर कोई कार्य करना संभव नहीं। जैसे यदि हमने यह विचार रखा कि संपूर्ण संपत्ति राष्ट्र की है। अत: बच्चा भी राष्ट्र का है। फिर उसके पालन-पोषण की जिम्मेवारी राष्ट्र की हो जाती है। परंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बच्चे के जीवन के विकास में मां का विशेष हाथ रहता है। उससे बच्चे को अलग कर उसका सही विकास संभव नहीं। अतः व्यक्ति को परिवार और परिवार को राष्ट्र से संबंध जोड़ना और उन्हें एक-दूसरे का पूरक बनाने का प्रयास चलता रहता है। यह एक प्रकार की व्यवस्था है, इसमें व्यक्ति, कुटुंब, ग्राम, जनपद, राष्ट्र एवं विश्व तथा संपूर्ण सृष्टि तक आती है। इनका आपस का संबंध स्थापित करते हुए एक-दूसरे का पूरक बनाया जाना चाहिए।

यह बात अवश्य है कि किसी विशेष संकट के समय किसी को कितना महत्त्व दिया जाए, इस पर विचार करना पड़ेगा। अपने यहां तो अत्यंत प्राचीन काल से विचार होता चला आया है, जैसे-

त्यजेत एकं कुलस्यार्थे, ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत।
ग्रामं जनपदास्यार्थे आत्मार्थे पृथ्वीं त्यजेत।।

कुल के लिए यदि व्यक्ति बाधक है तो उस व्यक्ति को त्याज्य मानो। इसी प्रकार गांव के लिए कुल को, जनपद के जिए गांव को और आत्मा के लिए पृथ्वी का त्याग उचित बताया गया है। जब श्रीकृष्ण ने देखा कि यादव आपसी द्वेषभाव से पीड़ित हैं, तब उन्होंने कौरवों-पांडवों का युद्ध करा दिया। यह युद्ध यानी महाभारत का युद्ध राष्ट्रहित को ध्यान में रखकर ही हुआ। इस कार्य में बंधु एवं संबंधी भाव मार्ग में बाधक नहीं हुए। इस प्रकार के अनेक उदाहरण अपने को भारत के इतिहास में मिलेंगे। इस विचार के कारण ही जब-जब राष्ट्र के ऊपर आपत्ति हुई, केवल एक राष्ट्रभाव को सम्मुख रखकर हमने कार्य किया और तभी देश की रक्षा संभव हो पाई।

पाश्चात्यों के अनुसार राष्ट्र मनुष्यकृत है, ऐसा हमने कभी नहीं माना। इसके विपरीत हम तो राष्ट्र को ईश्वरकृत मानते हैं। यदि राष्ट्र बनता भी है तो भी इसके पीछे हजारों वर्षों का इतिहास रहता है। हमने राष्ट्र को इकरारनामा कभी नहीं माना। अतः पाश्चात्य भावों से प्रेरित होकर इस राष्ट्र की एकता के प्रयत्न असफल हुए। संपूर्ण विश्व को अपने अधीन करने का स्वप्न साकार करने का प्रयास करनेवाले सिकंदर को भी यदि कहीं हार खानी पड़ी तो अपने ही देश में। इसके पीछे अन्य कोई भाव नहीं था। राष्ट्रीयता का भाव ही मुख्य था। यूरोप में सभी ईसाई हैं। रोम का पोप सब कुछ था। इस आधार पर उन लोगों ने संपूर्ण यूरोप को एक करने का प्रयास किया। परंतु इसमें हमने देखा कि प्रोटेस्टेंट्स और कैथोलिक्स में ही महान् संघर्ष हुए।

इसके पीछे भी राष्ट्रीयता मूल कारण थी। जहां कहीं ये सफल भी हुए उन स्थानों पर राष्ट्रीयता के पुनर्जागरण ने उन्हें जड़ से समाप्त कर दिया। इसलाम में भी इसी प्रकार, का एक प्रयास हमें दिखाई पड़ता है। सारी दुनिया को इसलाम धर्म के झंडे के नीचे लाकर उन्हें एकसूत्र में बांधने का प्रयत्न भी मोहम्मद को अल्लाह का रसूल मानकर चलने वालों के द्वारा हमने देखा। स्पेन से लेकर ईरान तक इनके सामने लोग झुक गए, किंतु अगर इनको भी कहीं हार खानी पड़ी तो भारत में ही। यद्यपि इनका साम्राज्य बहुत दिनों तक हमारे देश में था, परंतु राष्ट्रीयता के जाग्रत् भाव के कारण ही इनको यहां असफलता मिली। प्रसिद्ध मुसलिम कवि हाली ने भी कहा है कि जो इसलाम दुनिया के सुदूर देशों में कितने ही समुद्रों को, दुर्लंघ्य पर्वतों को पार करता चला गया, वह गंगा के दहाने में आकर डूबा।

इसी प्रकार प्रारंभ में तो संपूर्ण ईरान इनके प्रभाव में आ गया, परंतु जब वहां राष्ट्रीयता ने जोर पकड़ा तो इनके आडंबर को उखाड़ बाहर फेंका। ईरानी नेता रजा पहलवी ने अपने को श्रेष्ठ आर्य कहकर इनको वहां से समाप्त कर दिया। प्रथम महायुद्ध के बाद अंग्रेजों ने मुसलमान जगत् के ख़लीफ़ा को जब पदच्युत कर दिया तो उनको पुनः प्रतिष्ठित कराने का प्रयास इसलाम के अनुयायियों ने किया। हमारे देश में भी असहयोग आंदोलन के समय यह प्रश्न उठा और मुसलिम एकता के स्वप्न को साकार करने के लिए हमने भी इस आंदोलन के सहयोग में हाथ बढ़ाया, परंतु कुछ ही दिनों बाद देखा गया कि जब तुर्की में राष्ट्रीयता ने जोर पकड़ा तो इसलाम के इस स्वरूप को देश से बाहर फेंक दिया। आज वहां के लोग तुर्क के नाते अपना विचार करते हैं, न कि इसलाम के अंग के रूप में।

पाकिस्तान का उदाहरण तो हमारे सामने ही है। यद्यपि उन्होंने इसलाम के नाम पर इस राज्य का निर्माण किया, परंतु अपनी कल्पित राष्ट्रीयता का आधार लेकर उन्हें अपनी समस्याएं हल करनी पड़ रही हैं। यदि केवल धर्म का विचार होता तो अफगानिस्तान से उनकी टक्कर का कोई प्रसंग ही न उठता। मिस्र, इराक, अरब तथा अन्य मध्यपूर्व के राज्य यद्यपि इसलाम में विश्वास करते हैं, परंतु उन सबकी स्वतः एक-एक स्वतंत्र इकाई है। इतना ही नहीं, उनमें आपस की टक्कर भी प्रतिदिन की घटना है। इसके पीछे भी राष्ट्रीयता का ही प्रधान भाव है। क्रमश:…