संस्कृति और समाज

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दीनदयाल उपाध्याय

गतांक का शेष…

संघ के काम में वह चीज़ अपने आप आती है। इसलिए हमने वहीं पर इस बात पर जोर दिया कि हम संघ का कार्य निस्स्वार्थ बुद्धि से करेंगे। प्रामाणिकता और निस्स्वार्थ बुद्धि हमें धोखा दे जाती है। आदमी को अपने आपको जैसे जब लगता है कि मानो हम निस्स्वार्थ हैं, पर वास्तव में निस्स्वार्थ होते नहीं। कहीं-कहीं मन के अंदर स्वार्थ छिपा रहता है। इसलिए वह छिपा हुआ स्वार्थ कहीं आ न जाए, उसके लिए अपने पास प्रामाणिकता है। प्रामाणिकता अपने मन में रहे और तब तक यह संघ का काम करेंगे। ये चीजें स्वत: प्रकट होती हैं, जब संघ की शाखा हम चलाते हैं। उदाहरण के लिए अच्छी शाखा में काम करने वाले स्वयंसेवकों के गुणों का विचार, स्वयंसेवक में कौन-कौन से गुण चाहिए, इसका विचार करना तो शायद भारतीय संस्कृति के विशेष लक्षण स्वयं प्रकट हो जाते हैं। क्योंकि अपनी शाखा में किसी भी स्वयंसेवक को यह नहीं कहते कि हम क्यों आते हैं, क्या सोचकर आते हैं, हमारे सामने कौन सा विचार आता है। हमारे सामने, हम हिंदू हैं, इसका भी विचार आता है। हिंदू संगठन करेंगे, गौरव से रहेंगे, सामर्थ्य के साथ रहेंगे। सामूहिक भाव से रहेंगे, फिर मैं इतना ऊंचा उठूगा, मैं यह स्थान प्राप्त करूंगा, समाज के अंदर मेरा इतना ऊंचा स्थान हो जाएगा, समाज के दस लोग मेरी तारीफ़ करेंगे, मेरी जयकार होगी-यह सोचकर शाखा पर नहीं आते।

कोई भी यह विचार नहीं करता कि कल ईरान के ऊपर आक्रमण करेंगे, परसों अफगानिस्तान के ऊपर, इसके बाद रूस के ऊपर अपना आधिपत्य जमाएंगे और इस तरह की बातें करने के लिए शाखा पर नहीं जाते हैं। दूसरों को गुलाम बनाने के लिए शाखा पर नहीं जाते हैं। हम अपने अंदर निस्वार्थ भाव लेकर एक हिंदू के नाते संसार में सुख के साथ शांति से विचार करने के लिए शाखा पर जाते हैं। हिंदू के नाते से हम सोचते हैं कि वह क्यों आया है, इसके जीवन के साथ इस प्रकार से एकरूप हो जाएं इसका हम बराबर विचार करते हैं। यानी दूसरे स्वयंसेवक के जीवन के साथ एकरूप हो जाएं, इस बात का बराबर विचार, लोक-संग्रह का हमेशा यही विचार रखा कि लोगों को इकट्ठा कैसे करेंगे, लोगों के साथ एकरूप होकर जीवन के साथ तादात्म्य स्थापित करके, उनकी सेवा करके, उनको सुखी बनाकर कैसे अपनी ओर आकृष्ट करेंगे इस बात की चिंता करते हुए कार्य करते चले जाना है।

इसमें कोई स्वार्थ नहीं, हिंदू के नाते, उसके लिए हम बराबर जो काम करते चले जाते हैं, इससे दूसरे के जीवन के साथ एकात्मता आती है। हमारे तुम्हारे अंदर से भी एक वही भगवान् बोल रहा है। वही एक सत्य उद्भाषित हो सकता है, जो मेरे अंदर है। इस नाते से यह विचार जब हम करते हैं कि जो शाखा में आता है, वह भी स्वयंसेवक है और वह भी स्वयंसेवक है, जो निस्स्वार्थ बुद्धि से काम कर रहा है। उसके कहने में, विचारों में, मन में भी सत्य हो सकता है। वह सत्य का जो सारा ठेका है, वह मेरे पास ही नहीं है, जिस निस्स्वार्थ बुद्धि से मैं काम करता हूं और मेरे अंदर कोई विचार आता है। इतना ही विचार उसके अंदर भी निस्वार्थ बुद्धि से काम करने से आता है। इसलिए उसके विचारों के प्रति आदर का भाव रखते हुए यह दृष्टि स्वयं प्राप्त होती है। यह सहिष्णुता की वृत्ति संघ के स्वयंसेवक के अंदर होती है। फिर वह इसके साथ एकरूप होता है। इस सहिष्णुता के साथ-साथ सेवा की भी वृत्ति आती है। उसके साथ सेवा करना, किसी को सुख देना, आनंद मानना-यह सेवा का भाव रखता है।

वह किसी भी बीमार स्वयंसेवक के पास यह सोचकर नहीं जाता कि आज वह बीमार है, कल जब मैं बीमार पड़ेगा तो वह मुझे देखने आएगा। इस प्रकार का विचार उसके मन में नहीं आता। वह तो यही सोचकर जाता है कि उसे जाना चाहिए। जब वह स्वयं बीमार हुआ तो उसे इस बात की भी चिंता या शिकायत नहीं रहती कि कोई उसे देखने क्यों नहीं आया। वह ऐसा भी नहीं सोचता कि एकात्मता आती है तो स्वाभाविक है, बहुत से गुण हमारे अंदर आते हैं। दूसरे, अपने जीवन के अंदर आत्मीयता का भाव लाकर पहली बात तो यही आती है कि उसके बारे में एक बड़ी सहनशीलता की भावना पैदा हो जाती है। वही सहनशीलता उसकी अच्छाई-बुराई जो कुछ भी है, उसे सहने के हम आदी बन जाते हैं। हम कठोर होकर उसको चार गालियां नहीं सुनाते, जिसके साथ एकरूप होना चाहते हैं। हमारे मन में सहिष्णुता आती है। यह सहिष्णुता स्वयंसेवकों के लिए नितांत आवश्यक है, कई बार हम यह भूल जाते हैं। हम ऐसा समझने लगते हैं कि उसे संघ का पता नहीं, उसे कुछ भी पता नहीं, उसे दुनिया का पता नहीं-ऐसा नहीं है, वरन् हम यह मानकर चलते हैं कि भाई उसे संघ का पता है। उसकी बात हम सुनते हैं। उसमें कुछ सच्चाई है। उस सच्चाई को हम ढूंढने का प्रयास करते हैं। उसको सामने रखते हैं। जहां दोनों के बीच सहिष्णुता का भाव रहता है, वहां पर यह कठिनाई नहीं होती है। यदि दोनों के भिन्न विचार रहे तो भी दोनों कंधे से कंधा मिलाकर चल सकते हैं। इस प्रकार की सहिष्णुता का भाव संघ के स्वयंसेवक में आता है। अपनी संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है, वह है सहिष्णुता।

पाश्चात्य संस्कृति में यह कहीं नहीं दिखाई देती। किसी स्वयंसेवक के मन में यह नहीं आता कि मैंने संघ के कारण अपना घर-बार छोड़ दिया और संघ ने मुझे क्या दिया? उसके मन में अपेक्षा भी नहीं होती कि संघ के स्वयंसेवक आकर उसका काम करें, क्योंकि उसने संघ का काम इसलिए नहीं किया कि उसकी कोई मदद करनेवाला हो। उसने तो निस्स्वार्थ बुद्धि से काम किया। यदि उस बीमार स्वयंसेवक को कोई चार स्वयंसेवक देखने भी आते हैं, तो वह उनसे यही कहता है कि अरे, तुम लोग अपना समय क्यों ख़राब करते हो? जाओ, देखो कि शाखा में और कौन-कौन आए हैं और कौन-कौन नहीं आए। उसके मन में तो चिंता का ही भाव पैदा होता है, किसी अपेक्षा का नहीं। जहां पर प्रतिफल का भाव आ जाए, वह सेवा नहीं है। सेवा में से ही एक दूसरा भाव आता है, जिसे हम कर्तव्य का भाव कहते हैं। वहां अधिकार का भाव नहीं आता। कर्तव्य इस नाते से करता है कि यह मेरा काम है, मुझे करना चाहिए। यह मेरा अधिकार नहीं है। हमारी भाषा में अधिकार का अर्थ भी कर्तव्य के रूप में ही किया है। पुत्र का अधिकार है कि पिता की सेवा करे, पिता का अधिकार है कि पुत्र का पालन करे। यह अधिकार इसी रूप में प्रयोग हुआ, जिस अर्थ में हम कर्तव्य करते हैं। अधिकार इस अर्थ में शायद हमारे यहां प्रयोग नहीं हुआ। यह हमारी संस्कृति की विशेषता रही है। हम देखते हैं कि अपनी शाखा में भी उस अधिकार की कल्पना नहीं आती। स्वयंसेवक भी उस नाते से कभी विचार नहीं करता। वह कर्तव्य के नाते से करता चला जाता है। कोई दूसरा स्वयंसेवक नाराज हो गया तो वह यह नहीं सोचता कि वह मुझसे माफ़ी मांगे, उसने यदि गाली दी तो भी वह यह नहीं सोचता कि वह अपनी ग़लती के लिए माफ़ी मांगे। वह तो सोचता है कि यदि किसी स्वयंसेवक ने कोई बात कह दी तो यह सिर्फ मेरा कर्तव्य है कि मैं उसके पास जाकर उसके गुस्से को शांत करूं, उसे समझाऊं। वह माफ़ी मंगवाने के लिए नहीं, बल्कि माफ़ी मांगने के लिए जाता है।

यह वही वृत्ति है, जिसके बारे में कहते हैं कि एक बार भृगु ऋषि’ जब परीक्षा लेने गए तो उन्होंने विष्णु को लात मारी, लेकिन भगवान् विष्णु उनका पैर पकड़कर सहलाने लगे और बोले, ‘मेरा वक्ष स्थल कितना कठोर है, आपको तो पीड़ा पहुंची होगी।’ यह जो भाव है, यही बताता है कि जहां पर निस्वार्थ वृत्ति से काम करने की प्रवृत्ति होती है, वहां पर यह भाव स्वाभाविक रूप से आएगा कि अपने अंदर के जिस आधार पर खड़े हुए हैं, वह एक तपस्या का भाव है।
तपस्या के काम तो जीवन में सभी प्रकार के होते हैं। मेहनत, मज़दूरी, परिश्रम और तपस्या में अंतर होता है। जहां एक उदात्त ध्येय लेकर निस्वार्थ बुद्धि से काम किया जाता है, उसे हम तपस्या कहते हैं। कुछ भी काम करते रहते हैं, उसे परिश्रम कहते हैं। हम यहां पर परिश्रम नहीं, तपस्या करने चले हैं। तपस्या का भाव जीवन में आता है और इसलिए यह जो तपस्या है, वह आजीवन चलती है। जन्म-जन्मांतर तक चलती जाती है। इस प्रकार की तपस्या का आधार लेकर संघ में प्रविष्ट हुए हैं। हमारी संस्कृति भी इस प्रकार तपस्या के आधार पर खड़ी है। हमारा जीवन भारत में तपस्या के लिए पैदा होता है, मेहनत-मज़दूरी के लिए नहीं, भोग के लिए पैदा नहीं होता।

भोग के आधार पर हमने कल्पना नहीं की। हम तो यहां पर एक यज्ञ करने आते हैं। तपस्वी एवं जोगी का जीवन व्यतीत करने आते हैं। तपस्वी कर्मयोगी का जीवन व्यतीत करते चले जाते हैं। एक व्रत का पालन करते चले जा रहे हैं। यदि इस आधार पर हम देखें, प्रचार करें कि हमारी संस्कृति के जो-जो भी लक्षण हैं-कर्तव्य-भावना, सेवा, सहिष्णुता-यहां पर ये सारी चीजें होंगी। ये चीजें दूसरे के जीवन के साथ एकरूप होकर आत्मीयता के आधार पर खड़ी हैं। सेवा की भावना होगी, सहयोग की भावना होगी, व्यक्ति संयम करना सीखेगा। यहां पर भोग का आधार न होकर संयम का आधार होगा। संस्कृति की ये सारी चीजें उसकी सारी विशेषताएं हैं।

हमारी संस्कृति में तपस्या का आधार है संस्कृति का संरक्षण। यानी कोई ऐसा संरक्षण नहीं कि चलो भाई आज हम संगठन कर रहे हैं और जिस दिन दस लाख लोग इकट्ठे हो जाएंगे, तो रूट मार्च निकालेंगे, अपितु यहां पर स्वाभाविकता से संयम की बात सीख लेंगे। और फिर वहां जाकर जब संस्कृति के ऊपर हमला होगा तो रक्षण के लिए खड़े हो जाएंगे। चारों ओर से व्यूह बनाकर खड़े हो जाएंगे कि आओ, जिसको आना है, कौन आता है। यह कार्य संस्कृति का संरक्षण नहीं। इसलिए जब हमने कहा कि हम संस्कृति का संरक्षण करते हैं तो हमारे अपने जीवन के अंदर कर्म का भाव आता है और इसको छोड़कर हम भोग की भावना के आधार पर अपना जीवन पाश्चात्यों की तरह भोग प्रधान नहीं बनाते हैं। हम अपने स्वार्थों की रक्षा करते चले जाएं। व्यापार बुद्धि से ही सब चीज़ सोचते चले जाएं। पैसे की भावना से, यश की भावना से कुछ पदवी की कामना से ही कार्य करें, ऐसा नहीं होता है।

अपितु संस्कृति का संरक्षण, इसके माने कुछ और हैं। संस्कृति का संरक्षण न तो व्याख्यानों से होगा, न हमने उसके लिए कोई मोरचा निकाला। हमने संस्कृति के संरक्षण की दृष्टि से भावनाओं की उन बाह्य स्वरूपों की भी चिंता नहीं की। जीवन में कोई ऊंचा पद मिल जाएगा, इसका भी विचार नहीं किया। हमने कहा कि हमारी संस्कृति की जो आत्मा है, मूलमंत्र है, मुख्य-मुख्य चीजें हैं- यदि ये मानव जीवन में बनी रहीं, यह दृष्टि बनी रही तो हम अपनी संस्कृति का संरक्षण कर लेंगे। यह न व्याख्यानों से किया न पुस्तकों से किया।

हम एक विश्वास लेकर खड़े हुए हैं। इसलिए संस्कृति संरक्षण, मेहनत और बाक़ी की चीजों की एवं व्यवस्थाओं की चिंता न करते हुए यह एक मूल चीज़ कैसे आएगी, कैसे प्रगति होगी, इसका ही विचार अपने सामने रखा है तथा यह हमारे व्यवहार में कैसे

आएगी, प्रत्येक स्वयंसेवक इसको जानता नहीं। बाक़ी उसे कैसे व्यवहार में लाना है, इसके लिए एक छोटा सा रास्ता है, जिसमें शिशु स्वयंसेवक भी नए को लाने की सोचता है, नए को लाने की चिंता करता है। उसको फिर अपना मित्र बनाता है। उसके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए। वह अपने आप इस प्रकार का व्यवहार करता चला जाता है। इस प्रकार के निस्वार्थ भाव से हमने जहां इस बात की चिंता की उसके लिए दस स्वयंसेवक इकट्ठे हो गए और बीस स्वयंसेवक आ गए, इसे शाखा का रास्ता कहते हैं।

इन बीस स्वयंसेवकों का कोई काम आ गया या एक स्वयंसेवक को कोई काम आ गया तो सब वहां पहुंचकर उसका काम करेंगे। काम करते होंगे। यह मैं नहीं कहता, परंतु हमने ऐसा विचार नहीं रखा। हमने यह भी नहीं सोचा कि सामूहिक शक्ति का एक-एक व्यक्ति उपयोग कर लेगा। इसलिए अपना वह पुराना उदाहरण है कि अपने मुख्य शिक्षक की शादी है तो उसमें संघ बैंड का उपयोग नहीं होगा, फिर कहां होगा। परंतु कहा कि संघ बैंड इस प्रकार के कार्यों में नहीं लगेगा। निस्स्वार्थ बुद्धि बनी रहे, इस वृत्ति का हमने ध्यान रखा है। स्वार्थ बद्धि बैक डोर से भी न आए। टेढ़े तरीके से भी न आ जाए। इसलिए हम शाखाओं का जाल संपूर्ण देश में निस्स्वार्थ बुद्धि के आधार पर फैलाते जाएं और तब हम कहेंगे कि हमारी संस्कृति सुरक्षित है और हमारे साथ हमारी संस्कृति जीवन में प्रविष्ट हो रही है। यह व्यापक आधार पर खड़ी होती चली जाएगी। इस भाव की जितनी हम अभिवृद्धि करेंगे तो हम अपने धर्म, संस्कृति और समाज तीनों का संरक्षण करते हुए आगे बढ़ जाएंगे।

समाप्त
(संघ शिक्षा वर्ग, बौद्धिक वर्ग : कानपुर, -जून 4, 1959)