संस्कृति और समाज

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दीनदयाल उपाध्याय 

प्रत्येक ‘समाज जिस एक विशिष्ट जीवन की दृष्टि को लेकर प्राप्त होता है, जिसे प्राचीन शास्त्रों में चिति कहा है, उसके आधार पर जो-जो इस ध्येय को पूर्ण करने के लिए व्यक्तिगत और सामाजिक संस्कार होते हैं, उन सब संस्कारों का एक समुच्यवाचक भावात्मक नाम यह संस्कृति है। यह भी हमने देखा कि इस प्रकार की यह संस्कृति गतिशील है। संस्कार जैसे-जैसे वर्धमान होते हैं, बढ़ते चले जाते हैं, वैसे ही यह संस्कृति वर्धमान होती जाती है।

अब हमें इसका थोड़ा सा विचार समाज और व्यक्ति के नाते से भी करना पड़ेगा, क्योंकि यह संस्कृति व्यक्ति और समाज दोनों से संबंध रखती है। यद्यपि संस्कृति का भाव मूलतः समष्टिगत होता है। वह समष्टि जीवन की जो एक विशेषता होती है, व्यक्त करने का एक माध्यम रहती है। समाज जिस एक अपनी आत्मा को लेकर पैदा होता है, उस आत्मा की अभिव्यक्ति संस्कृति के रूप में होती है। किंतु समाज आख़िर व्यक्तियों का बना होता है। यद्यपि हम जानते हैं कि व्यक्तियों का बना हुआ होने के बाद भी समाज का अपना एक अलग अस्तित्व होता है। समाज की अपनी एक सत्ता होती है। समाज की यह सत्ता केवल व्यक्तियों के मिलाने मात्र से ही नहीं बनती, केवल इतने मात्र से ही समाज नहीं बन जाता।

एक कल्पना करें कि अपना एक हिंदू समाज है। तीस करोड़, चालीस करोड़ जितने का भी आंकड़ा है, अभी जो संख्या बढ़ गई, उन सब लोगों को मिलाकर रख दिया, तो यह हिंदू समाज है-वास्तव में ऐसी बात नहीं है। जैसे ब्रह्म के बारे में कहते हैं कि जितनी भी सृष्टि है, उसके बाद भी वह दस अंगुल बचा रहता है। उसी प्रकार से अलग-अलग से जितने भी व्यक्ति हैं, उन सबको जोड़ा तो जोड़ने के बाद भी जो योग आएगा, समाज उससे भी कुछ आगे रहता है। परंतु यह सच है कि समाज जब अपना कोई भी काम करता है, जब वह क्रियाशील रहता है, जब अपनी किसी भी भावना को प्रकट करता है, उसे पूर्ण करने के लिए किसी भी प्रकार का पुरुषार्थ करता है, तो उसके लिए व्यक्तियों का ही सहारा लेता है। व्यक्तियों को यदि हटा दिया जाए तो समाज कुछ काम नहीं कर सकेगा।

जैसे यह आत्मा जब भी कुछ करना चाहती है तो शरीर के द्वारा करती है। शरीर। को हटाकर नहीं कर सकती। शरीर को चाहे फिर लोग नश्वर कहें। शरीर नश्वर है, हमेशा नहीं रहता। आत्मा सदैव रहती है। आत्मा की शक्ति अधिक होती है। शरीर की उस नाते से शक्ति नहीं है। परंतु फिर भी शरीर के द्वारा ही आत्मा काम कर सकती है। वैसे ही समाज भी व्यक्तियों के बिना काम नहीं कर सकता। व्यक्तियों के द्वारा ही समाज काम करता है और इसलिए संस्कृति का संबंध व्यक्तियों से बहुत आता है।

अब जब व्यक्ति का विचार करते हैं तो फिर यहां एक प्रश्न आता है कि व्यक्ति क्या केवल समाज के पुर्जे के समान है या उसका और भी अलग अस्तित्व है? उसे फिर देखते हैं कि व्यक्ति की अपनी एक अलग सत्ता है। वह एक ही समय पर मानो दोनों प्रकार का अस्तित्व लेकर चलता है। दोनों प्रकार का संबंध लेकर चलता है। वह व्यक्ति के नाते से भी काम करता है और समाज के नाते से भी। वह व्यक्ति के नाते भी जीवन प्रकट करता है और समाज के नाते भी। इसलिए दोनों के बीच में एक संबंध स्थापित करना बहुत आवश्यक चीज़ हो गई है।

दुनिया के जितने भी समाजशास्त्री हैं, राजनीतिशास्त्री हैं एवं दार्शनिक हैं, उन सबके सामने यह बड़ा प्रश्न उपस्थित होता है कि व्यक्ति और समाज के बीच कौन सा संबंध रखा जाए? कहीं तो व्यक्ति को ही सर्वेसर्वा माना है और कहा है कि व्यक्ति ही सबकुछ है। बाक़ी समाज तो व्यक्ति की इच्छाओं की पूर्ति करने का साधन मात्र है। इसलिए उन्हें व्यक्ति को सभी प्रकार की स्वतंत्रता देनी चाहिए, ऐसी बात सामने रखी है। इस प्रकार से चलें तो देखेंगे कि व्यक्ति की रक्षा करने के लिए राज्य बनता है। व्यक्ति को सुविधा देने के लिए अन्य-अन्य प्रकार की संस्थाएं चलती हैं और इसलिए व्यक्ति प्रमुख है, ऐसा मानकर ही एक विचार पश्चिम में चला।

दूसरी ओर लोगों ने माना कि व्यक्ति तो कुछ भी नहीं है। व्यक्ति से ज्यादा समाज की उपयोगिता है। यदि समाज ठीक रहा तो व्यक्ति अपने आप ठीक हो जाता है। व्यक्ति को, समाज की आवश्यकताएं किस प्रकार पूर्ण हों, यह विचार करना पड़ता है। इतना मात्र विचार करके वह चले। यही बात मशीन के लिए लागू होती है। मशीन को भी और सभी कुछ चाहिए। तभी वह ठीक प्रकार से चल सकती है। जो मोटर को चलाता है, उसे विचार करना पड़ता है कि यह दिन भर में कितने मील चलती है और उसी के हिसाब से उसे पेट्रोल के बारे में भी सोचना पड़ता है। ठीक इसी तरह व्यक्ति है। व्यक्ति को कितना भोजन चाहिए, कितना कपड़ा चाहिए, जरूरत के अनुसार मकान भी चाहिए, उसकी जरूरत के अनुसार उसकी खुराक होनी चाहिए। ऐसा विचार किया गया। इसके आगे कोई विचार नहीं किया गया। वह समाज के एक साधारण अंग के रूप में है। उन्होंने कहा कि सब व्यक्तियों को समाज के लिए ही काम करना चाहिए। समाज एक प्रमुख चीज है और बाक़ी कुछ नहीं।

इस प्रकार से दो विचारधाराएं पश्चिम में चलती आ रही हैं। एक में समाज सब कुछ है तथा दूसरी में व्यक्ति ही सबकुछ है। समाज का काम इतना ही है कि इस प्रकार का व्यक्ति जो है, उसे अपनी स्वतंत्रता का पूरी तरह उपभोग करने देना चाहिए। फिर यदि वह व्यक्ति दूसरे की स्वतंत्रता का अपहरण करे अथवा अगर स्वतंत्रता के लिए संघर्ष हो, तो क्या करें? इसमें तो कोई रास्ता नहीं। यह तो दुनिया में जीवन के लिए संघर्ष चलता जाता है। इस संघर्ष में हमेशा जिसके पास ज्यादा ताक़त होती है, कम ताक़त वाले को वह हजम कर लेता है। जो योग्यतम है, वह दुनिया में जिंदा रहता है और बाक़ी के लोग समाप्त होते जाते हैं। इस नियम के अनुसार योग्यतम जिंदा रहेंगे। जो योग्यतम है, वह दुनिया में जिंदा रहता है, बाक़ी के जो पिछड़े लोग हैं, यदि वे समाप्त हो जाएं तो कोई बात नहीं, यह तो प्रकृति का नियम है। इस नियम के अनुसार ही सब चलते हैं।

इस प्रकार का विचार करके वे लोग चलते जा रहे हैं। हमारे यहां जिस बात का विचार किया गया, हमारी संस्कृति ने जो ध्यान रखा, वह यह कि व्यक्ति और समाज वास्तव में एक-दूसरे के साथ इतने अधिक जुड़े हैं कि हम इन दोनों को अलग नहीं कर सकते। इसके बाद भी दोनों की अपनी अलग एक सत्ता रहती है। दोनों को अपना अलग-अलग स्थान रहता है। इसलिए हमें दोनों का ही विचार करके चलना पड़ेगा। व्यक्ति की स्वतंत्रता का पूरा विचार करना पड़ेगा। व्यक्ति के अपने व्यक्तित्व का विचार करना पड़ेगा। उसी प्रकार समाज की जो सत्ता है, उसका भी विचार करना पड़ता है कि व्यक्ति कब अपनी स्वतंत्रता का उपभोग करता है और कब वह व्यक्ति समाज के एक घटक के नाते, समाज के एक उपकरण के नाते काम करता है। इस तरह का विचार करके हमें दोनों में मेल बिठाना पड़ता है। इसलिए उपनिषदों में कहा गया है कि जो लोग केवल एक ही बात का विचार करते हैं, वे लोग ग़लत रास्ते पर चलते हैं। जो लोग केवल व्यक्ति का विचार करते हैं, वे अंधकार को प्राप्त होते हैं और जो केवल समाज का विचार करते हैं, वे भी घोर अंधकार को प्राप्त करते हैं।

इसलिए कहा गया है कि हमें दोनों का ही विचार करना चाहिए। यह विचार करते हुए उन्होंने कहा कि व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा तथा सब प्रकार से उसका संरक्षण समाज को करना चाहिए। उसके व्यक्तित्व का संरक्षण कर उसे विकास के अवसर देने चाहिए। हम व्यक्ति को मृत्यु से बचाएं, मृत्यु को जीतें और दूसरे, समाज का विचार करके हम समष्टि के आधार पर अमरता को प्राप्त करें। एक से मृत्यु को जीतना और दूसरे से अमरता को प्राप्त करना, यानी दो-दो चीजें एक साथ रखीं तो विचार आएगा कि कैसे दोनों का एक-दूसरे के साथ विचार करें? जैसे-हम भोजन करते हैं और रोटी के संबंध में विचार करें कि रोटी से ही आदमी जिंदा रहता है। लेकिन रोटी ही सबकुछ नहीं है। रोटी के बारे में एक कवि ने कहा है कि यदि खाने से ही व्यक्ति जिंदा रहता तो भी कोई भी व्यक्ति कभी मरता ही नहीं। खानेवाला व्यक्ति तो हमेशा जिंदा रहता। खाना और जीना-इन दोनों का संबंध यदि आपस में बिठाओगे तो यदि कार्य, कारण, भाव देखा जाए तो लोग कहेंगे कि फिर खानेवाला आदमी क्यों मरता है।

रोटी ही अगर जीवन है तो रोटी जब तक मिलती है, तब तक आदमी को मरना ही नहीं चाहिए। जैसे लकड़ी जलाने से आग जलती जाएगी तो उसी प्रकार उसने कहा कि यदि खाने से ही लोग जीते तो खानेवाले कभी नहीं मरते। यह तो पक्ष सामने रखा, लेकिन दूसरा भी पक्ष है कि खाना यदि नहीं खाया तो आदमी जिंदा नहीं रहेगा। यह भी सत्य है कि खाने से ही आदमी जिंदा रह सकता है, तो केवल इतना ही नहीं, खाते-पीते आदमी मरता है। परंतु किसी ने कहा कि खाते-पीते इतने आदमी मर गए, इसलिए मुझे इस खाने के झंझट में पड़ने की क्या जरूरत है? अगर ऐसा कोई कहे कि भाई, खाना है तो भी मरना ही है, इसलिए मैं तो भोजन नहीं करूंगा, उपवास रखेंगा, अगर ऐसा कोई तय कर ले तो वह जिंदा नहीं रहेगा। अर्थात् उसके कहने का भाव केवल इतना ही है कि भोजन के द्वारा जो मृत्यु तुम्हें प्राप्त हुई तो भोजन करने से तुम बच जाओगे। बिना भोजन के तुम दो-चार, दस-पांच दिन तो खिंच जाओगे, लेकिन उसके बाद तुम्हें मृत्यु ही प्राप्त होगी और नित्य-प्रतिदिन भोजन करने से मृत्यु से बच जाओगे।

लेकिन यदि तुम मृत्यु से बचने के लिए अमरता चाहो, तब दूसरा रास्ता है। फिर भोजन सहारा नहीं देगा। उसके लिए आगे का सहारा लेना पड़ेगा। यह भोजन एक हद तक ज़रूरी है, उसके आगे नहीं। उससे भी तो अमरता प्राप्त करनी है, तब इस शरीर का उपयोग कैसे करेंगे, शरीर के द्वारा अच्छे-अच्छे कर्म करेंगे इस बात का जो मनुष्य विचार करता है और उसकी ओर प्रवृत्त होता है तो वह दूसरे रास्ते पर जाता है। इसीलिए खाना व्यक्ति की दृष्टि से विचार करने योग्य है और व्यक्ति की दृष्टि से विचार किया तो उसके लिए जीवन प्राप्त करने के लिए मृत्यु को जीतना पड़ता है। अमरता प्राप्त करने के लिए मृत्यु को जीतना पड़ता है। अमरता प्राप्त करने के लिए हमें समाधि का सहारा लेना पड़ता है। इन दोनों में मेल बिठाने की जरूरत है।

दोनों का मेल बिठाना संस्कृति का बहुत बड़ा काम है, क्योंकि व्यक्ति को जो प्राप्त होता है, उसे हम कह सकते हैं कि यह प्रकृति है। प्रकृति में भिन्नता होती है। प्रकृति के नाते से व्यक्ति में भी भिन्नता होती है। प्रकृति के द्वारा हमें बहुत कुछ प्राप्त होता है। हमारा यह शरीर, मन, इंद्रियां-सभी कुछ प्रकृति की देन हैं। इसीलिए हम भी प्रकृति के अनुसार चलते हैं। प्रकृति का अपना धर्म है, हम उसका भी पालन करते चले जाते हैं। और संपूर्ण जगत् में प्रकृति भी अपने धर्म का पालन कर रही है मनुष्य को बहुत से काम प्रकृति के द्वारा ही करने पड़ते हैं। साधारणतया ऐसा होता है कि यह प्रकृति ईश्वर की ही दी हुई चीज़ है। इसमें संदेह नहीं कि इसमें किसी भी प्रकार परिवर्तन नहीं होता है। मनुष्य तथा बाक़ी के जीव-जंतु बहुत से काम प्रकृति द्वारा ही करते हैं। श्वासोच्छ्वास प्रकृति है। हमें विचार भी नहीं करना पड़ता है कि वह कैसे सांस लेता चला जाता है। वह भोजन करता है, यह भोजन भी वह शायद प्रकृति के अनुसार ही करता है। वह साधारणतया मनुष्य की प्रकृति है और वह उसका पालन करता है। हमें प्रकृति का ठीक-ठीक पालन करना चाहिए। उसमें किसी प्रकार की अड़चन नहीं होती। क्रमश:…

 (संघ शिक्षा वर्ग, बौद्धिक वर्ग : कानपुर)