भारतीय संस्कृति में अर्थ

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दीनदयाल उपाध्याय

आर्थिक प्रश्नों के समाधान हेतु पश्चिम की ओर देखने का एक प्रमुख कारण यह भ्रममूलक धारणा है कि भारतीय संस्कृति और धर्म अध्यात्म प्रधान होने के कारण भौतिक जीवन की समस्याओं के प्रति उदासीन है। यह भ्रम दूषित प्रचार एवं आध्यात्मिकता का ग़लत अर्थ करने का परिणाम है। वास्तविकता तो यह है कि हमारे धर्म की व्याख्या भौतिकता का पूर्ण विचार करके चलती है। “यतोऽभ्युदयनिः श्रेयससिद्धि स धर्मः” अर्थात् जिससे ऐहिक और पारलौकिक उन्नति प्राप्त हो, वह धर्म है। जिसने इस लोक को छोड़ दिया, वह परलोक को नहीं बना सकेगा। भौतिकता और आध्यात्मिकता परस्पर विरोधी अथवा विलग भाव नहीं है। आध्यात्मिकता जीवन का एक दृष्टिकोण है, जिससे हम सभी प्रश्नों की ओर देखते हैं। अध्यात्मवाद यदि विश्व की सही व्याख्या कर सकता है तो कोई कारण नहीं कि उसके द्वारा हम विश्व की समस्याओं का समाधानकारक हल न प्राप्त कर सकें।

धर्मस्य मूलमर्थः

भारत ने भौतिक जगत् का ही नहीं, अर्थ का भी विचार किया है। महर्षि चाणक्य ने कहा, ‘सुखस्य मूलं धर्मः। धर्मस्य मूलमर्थः।’ सुख धर्ममूलक है तो धर्म अर्थमूलक। अर्थ के बिना धर्म नहीं टिकता। यहां हम धर्म की व्यापक परिभाषा लेते हैं, वह संकुचित एवं आधुनिक भ्रमपूर्ण अर्थ नहीं, जो धर्म का मत, मजहब या रिलीजन समझ लेता है। जिससे समाज की धारणा हो, जो दैहिक और पारलौकिक उन्नति में सहायक हो, जिसके कारण मानव के कर्मों का निर्धारण होकर वह कर्त्तव्य की संज्ञा प्राप्त कर ले, जिससे व्यक्ति अपनी सब प्रकार की उन्नति करता हुआ समष्टि के अभ्युत्थान में सहायक हो सके, वह नियम व्यवस्था और उसके मूल में निहित भाव धर्म है। यह धर्म अर्थ के अभाव में नहीं टिक सकता। कहा जाता है कि विश्वामित्र ने क्षुधा से अत्यंत पीड़ित होने पर रात्रि के समय चोरी करके चंडाल के घर से कुत्ते का जूठा मांस खाया। उन्होंने धर्म की अनेक मर्यादाओं को भंग किया। आपद् धर्म की संज्ञा देकर शास्त्रकारों ने उनके इस व्यवहार को उचित ठहराया। यदि अर्थ के अभाव की यह आपत्ति बराबर रहे तो फिर आपद् धर्म अर्थात् चोरी ही धर्म बन जाए और यदि यह आपत्ति समष्टिगत हो जाए अथवा समष्टि का बहुतांश इससे व्याप्त हो तो वे एक-दूसरे की चोरी करके अपने आपद् धर्म का निर्वाह करेंगे। किंतु जहां अभाव होगा, वहां चोरी भी किसकी होगी? अर्थात् उस परिस्थिति में समाज नष्ट हो जाएगा।

अर्थ का प्रभाव

अर्थ का अभाव ही नहीं, अर्थ का अत्यधिक प्रभाव भी धर्म का नाश करता है। यह भारत का अपना विशेष दृष्टिकोण है। पश्चिम के लोगों ने अर्थ के प्रभाव का विचार नहीं किया। अर्थ जब अपने में या उसके द्वारा प्राप्त पदार्थों में और उनसे प्राप्त भोग-विलास में संग (आसक्ति) उत्पन्न कर देता है, तब अर्थ का प्रभाव कहा जाता है। जिसे केवल पैसे की ही धुन लगी रहे, वह देश, धर्म, जीवन का सुख सब कुछ भूल जाता है। इसी प्रकार विषयासक्त मनुष्य पौरुषविहीन होकर स्वयं और समाज के नाश का कारण बनता है। प्रथम प्रकार के प्रभाव में अर्थ की साधनता नष्ट होकर वह साध्य बन जाता है। द्वितीय में अर्थ धर्माचरण का साधन न होकर विषय-भोगों का साधन बन जाता है। विषय तृष्णा की कोई मर्यादा न होने के कारण एक ओर तो ऐसे व्यक्ति के सम्मुख सदैव अर्थ का अभाव ही बना रहेगा, दूसरे पौरुषहानि से उसकी अर्थोपार्जन की क्षमता भी कम होती जाएगी।

जब ‘अर्थ’ ही समाज के प्रत्येक व्यवहार और व्यक्ति की प्रतिष्ठा का मानदंड बन जाए, तब भी अर्थ का प्रभाव हो जाता है। ऐसे समाज में सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ति’ की उक्ति चरितार्थ होती है। मान, सम्मान, राजनीतिक अधिकार तथा समाज में स्थान जब केवल धनवान व्यक्ति को ही प्राप्त हो, वहां लोगों में धनपरायणता आ जाती है। जब समाज में सभी धनपरायण हो जाएं, तो प्रत्येक कार्य के लिए अधिकाधिक धन की आवश्यकता होगी। धन का प्रभाव प्रत्येक के जीवन में अर्थ का अभाव उत्पन्न कर देता है।

जीवन के मानदंड

समाज से अर्थ के प्रभाव व अभाव दोनों को मिटाकर उसकी समुचित व्यवस्था करने को ‘अर्थायाम’ कहा गया है। आवश्यकता है कि समाज के मानदंड ऐसे बनाए जाएं कि हर वस्तु पैसे से न ख़रीदी जा सके। निश्चित ही यह कार्य केवल अर्थव्यवस्था के आधार पर नहीं किया जा सकता। देश के लिए लड़ने वाला सैनिक अपने जीवन की बाजी अर्थ की कामना से नहीं लगाता। अर्थ का लालच उसे देशद्रोह सिखा सकता है, देशभक्ति नहीं। स्त्री के सतीत्व का अपना मूल्य है, उसे अर्थ की कसौटी पर नहीं कसा जा सकता। वैद्य रोगी की चिकित्सा के बदले में अर्थ किन मूल्यों के आधार पर ले सकेगा? अध्यापक विद्यादान का मूल्य नहीं लगा सकता। सरकारी कर्मचारी किस आधार पर एक फ़ाइल को आगे सरकाने के लिए मूल्य लेगा? दुर्बल की रक्षा करने वाली पुलिस जब अपनी सेवाओं का मूल्य मांगे, तब या तो दुर्बल की रक्षा ही नहीं हो पाएगी अथवा शरीर शक्ति में दुर्बल अपनी बुद्धि का उपयोग कर धूर्तता से धन कमाकर रक्षा का मूल्य चुकाएगा। श्रम का, शारीरिक और मानसिक, फिर उनका उपयोग चाहे दृश्य वस्तुओं के उत्पादन अथवा सेवाओं में हुआ हो, रुपए पैसे में मूल्य आंकना असंभव है। फिर रुपया वह भी तो स्थिर मूल्य नहीं। श्रम और पारिश्रमिक दोनों का, अर्थशास्त्र के क्षेत्र में घनिष्ठ संबंध होने पर भी, व्यवहार जगत् के लिए सर्वमान्य एवं सर्वंकष मूल्य सिद्धांत निश्चित करना न तो सरल है और न उपादेय ही। वास्तविकता तो यह है कि दोनों का मूल्यांकन पृथक् मानदंडों से होता है। श्रम की प्रतिष्ठा उससे मिलने वाले अर्थ के कारण नहीं, अपितु उसके धर्मत्व से है। इसी प्रकार किसी भी व्यक्ति को दिया गया पारिश्रमिक उसके द्वारा किए श्रम का प्रतिदान नहीं, बल्कि उसके योगक्षेम की व्यवस्था है। श्रीमद्भगवद्गीता में इसीलिए कर्म और फल दोनों को अलग-अलग रखा गया है। कर्म लोकसंग्रहार्थ एवं ईश्वर भक्ति के रूप में करना है। श्री भगवान् ने 9वें अध्याय में कहा है-

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत् तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥

हे अर्जुन! तुम जो कुछ करते हो, जो खाते हो, जो हवन करते हो, जो देते हो और जो तप करते हो, वह सब मुझे अर्पण कर दो। हमारे कर्म का लक्ष्य भगवत् आराधना ही हो सकता है। ऐसे भक्तों की चिंता का भार स्वयं भगवान् ने अपने ऊपर लिया है। उसी अध्याय में वे कहते हैं-

अनन्याश्चिन्तयन्तौ मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥

जो अनन्य भाव से मेरी उपासना करते हैं, उन नित्य कर्मयोगियों के योगक्षेम का मैं विचार करता हूं।

गीतोक्त उक्त सिद्धांत के अनुसार कर्म की मूल प्रेरणा अनियंत्रित प्रतियोगिता अथवा लाभ की वृत्ति नहीं हो सकती। पाश्चात्य अर्थशास्त्र की ये मान्यताएं भारत के जीवनदर्शन से मेल नहीं खातीं। यह कहने से काम नहीं चलेगा कि आज हमारे व्यवहार और दर्शन में भारी अंतर है। वास्तव में तो समाज में आज भी अधिकांश व्यक्ति अपने व्यवसाय और वृत्ति में कर्तव्य भाव से ही लगे हुए हैं। जितना हम इस भाव से दूर हटते जाते हैं, उतना ही हमारी समस्याएं विषम होती जाती हैं। हमें यदि अपने राष्ट्र का युगनिर्माण करना है तो उसकी प्रेरणा अपने जीवनदर्शन से ही लेनी होगी।

पाश्चात्य अर्थशास्त्र की मान्यताओं की सीमाएं

पाश्चात्य अर्थशास्त्र ने जिन सामान्य मान्यताओं के आधार पर अपना विश्लेषण प्रस्तुत किया है, वह एकांगी तथा अपूर्ण है। उसकी मान्यता है कि

1. राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था मुख्यतः वैयक्तिक है, जिसका अलग से कोई सामाजिक पहलू नहीं है।

2. व्यक्तियों की निर्बाध और असीम प्रतिस्पर्धा ही सामाजिक जीवन की स्वाभाविक एवं सुरक्षापूर्ण नियामक है।

3. राजकीय एवं सामाजिक प्रथा द्वारा लागू नियमन सभी स्वाभाविक स्वतंत्रता का अतिक्रमण करते हैं।

उपर्युक्त मान्यताएं सत्य से बहुत दूर हैं। आज राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के अस्तित्व एवं आवश्यकता से कोई इनकार नहीं कर सकता। यदि राष्ट्र की अपनी कोई इकाई है और वह केवल व्यक्तियों के समुच्चय से भिन्न जीवमान निकाय है तो उसकी अभिव्यक्ति जीवन के प्रत्येक व्यवहार में अपनी विशिष्टताओं के साथ होनी चाहिए। यदि इन अदृश्य विशेषताओं को हम आंख से ओझल कर भी दें तो भी आज प्रत्येक राष्ट्र दूसरे राष्ट्रों के साथ अपने सभी आर्थिक संबंधों का निर्धारण एक पृथक् इकाई के आधार पर कर रहा है। संयुक्त राष्ट्र के अनेक संगठन तथा विभिन्न अंतरराष्ट्रीय अभिसमय इसके उदाहरण हैं।

व्यक्तियों की निर्बाध और असीम प्रतिस्पर्धा को न तो हम सामाजिक जीवन का नियामक मान सकते हैं और न सुरक्षापूर्ण ही। अर्थशास्त्र की यह मान्यता मत्स्य न्याय का प्रतिपादन करने वाली है। हमने इस न्याय को कभी धर्मसंगत नहीं माना। पश्चिम में भी इसकी प्रतिक्रिया हुई है, किंतु उन्होंने प्रतिस्पर्धा को समाप्त करने के लिए वर्गों की भयंकर प्रतिस्पर्धा पैदा कर एक वर्ग के द्वारा दूसरे के विनाश का मार्ग अपनाया है। प्रतिस्पर्धा का भाव केवल आर्थिक क्षेत्र में नहीं, अन्य क्षेत्रों में भी रह सकता है। अतः वर्ग विनाश से प्रतिस्पर्धा समाप्त नहीं होती। प्रतिस्पर्धी वर्ग दूसरे आधार पर उत्पन्न होकर मत्स्य न्याय को चलाते रहते हैं। उससे बचने का रास्ता तो धर्म के आधार पर संपूर्ण जीवन का नियमन ही है।

तीसरा सिद्धांत यद्यपि मूलतः सत्य है किंतु समाज में मानव की कुछ स्वतंत्रताओं पर मर्यादाएं आवश्यक होती हैं। अनियंत्रित स्वतंत्रता केवल कल्पना की वस्तु है। हां, यह नियंत्रण जितना बाहरी होगा, उतना ही मानव को कष्टदायक होगा। शिक्षा और संस्कार, दर्शन और आदर्शवादी व्यवहार में मनुष्य को आत्मनियंत्रण सिखाते हैं। इसी प्रकार समाज की प्रथाएं एक व्यवस्था बनाकर मानव का कार्य सरल एवं सुविधाजनक कर देती हैं। खेत काटने की परंपरानुसार निश्चित मज़दूरी पाश्चात्य अर्थशास्त्र के मांग और पूर्ति के नियमों का चाहे पालन न करती हो, किंतु वह किसान और मज़दूर दोनों के लिए सामाजिक ही नहीं, आर्थिक दृष्टि से भी लाभदायक है।

(‘भारतीय अर्थ-नीित विकास की एक दिशा’ से साभार)