संस्थानों को नष्ट करने और आतंकवादियों की मदद करने की स्वतंत्रता

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कांग्रेस का घोषणापत्र 2019

अरुण जेटली

स्वर्गीय रामनाथ गोयनका शायद देश के मीडिया मालिकों के बीच सबसे प्रसिद्ध व्यक्तित्व रहे। उन्होंने अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी और भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान सेंसरशिप के आगे झुकने से इनकार कर दिया। उन्होंने अपने अखबार को अस्थायी रूप से बंद कर दिया। आपातकाल के दौरान उन्होंने सब कुछ दांव पर लगा दिया और लोकतंत्र की बहाली के लिए लड़ाई में सबसे आगे रहे। स्वतंत्र मीडिया के लिए उनकी दलीले एक श्रेष्ठ उदाहरण है, जिसका सभी मीडिया घरानों को अनुसरण करना चाहिए।
रामनाथ गोयनका संविधान सभा के सदस्य भी थे। मौलिक अधिकारों पर बहस के दौरान उन्होंने एक शानदार भाषण दिया था और स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति का मुद्दा और उसके बाद प्रतिबंध की बात सामने आई, तो उन्होंने हस्तक्षेप किया। उन्होंने एक ऐसे समय की परिकल्पना की थी, जहां मुक्त मीडिया अधिकार पूर्वक मालिकों की जेब पर अंकुश लगा सके। उनका मानना था कि आर्थिक रूप से कमजोर मीडिया हमेशा कमजोर रहेगा।

स्वतंत्र मीडिया के लिए इंदिराजी की नफरत सर्वविदित थी। वह भारत के प्रमुख समाचार पत्रों को ‘एकाधिकार प्रेस’ या ‘जूट प्रेस’ कहकर संबोधित करती थी। 1960 और 1970 में कांग्रेस ने प्रयोगात्मक तौर पर बहुत से दुस्साहस किए। वे समाचार पत्रों की लागत को पृष्ठों की संख्या से जोड़ना चाहते थे, समाचार पत्र के आकार को प्रतिबंधित करते थे और साथ ही प्रकाशित होने वाले विज्ञापनों की संख्या को भी सीमित करते थे। इन प्रतिबंधों को चुनौती दी गई थी और सकाल, इंडियन एक्सप्रेस और अंततः 1974 में बेनेट कोलमैन मामले में कोर्ट ने समाचार पत्रों के हक में एक ऐतिहासिक फैसला दिया। अदालत ने इस तर्क को सही ठहराया कि अन्य मौलिक अधिकारों के विपरीत, जिन पर उचित प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं, फ्रीडम ऑफ स्पीच एंड एक्सप्रेशन एक ऐसा विशेषाधिकार था, जिस पर केवल अनुच्छेद 19 (2) में उल्लिखित प्रतिबंधों के संदर्भ में ही कोई कार्रवाई हो सकती थी। इस तरह के प्रतिबंधात्मक उपाय, जैसाकि ऊपर उल्लेख किया गया है, अनुमेय नहीं थे क्योंकि वे अनुच्छेद 19 (2) के दायरे में नहीं आते थे।

दूसरी महत्वपूर्ण मानसिकता जिसके साथ नेहरू-इंदिरा युग को जोड़ा जा सकता था, ‘बड़ा बुरा है’ और ‘छोटा बेहतर है’। इसने एमआरटीपी और आईडीआरए के तहत लाइसेंसिंग आवश्यकताओं जैसे प्रतिबंधात्मक विधानों को जन्म दिया। उदारीकरण के साथ वाजपेयी सरकार ने इसको ध्वस्त कर दिया और नरसिम्हा राव सरकार ने इसमें काफी बदलाव किए।

मीडिया और कांग्रेस का घोषणापत्र

यह ध्यान में रखना होगा कि इंदिराजी ने आपातकाल के दौरान प्रेस परिषद अधिनियम को रद्द कर दिया था और अध्यादेश द्वारा प्रेस परिषद को समाप्त कर दिया था। आज कांग्रेस इसे मजबूत करना चाहती है और मीडिया को राष्ट्रीय हितों से संबंधित घटनाओं की कवरेज पर एक आचार संहिता बनाने की अनुमति देती है। जबकि पहले से मौजूद दिशानिर्देशों के बाद यह मुद्दा बेमानी है। प्रारंभ में उन दिशानिर्देशों के उल्लंघन के कुछ मामले सामने आए थे, जहां मीडिया संगठनों को एक सलाह या चेतावनी दी गई थी। हाल में अधिकांश अवसरों पर मीडिया संगठनों ने राष्ट्रीय हित को ध्यान में रखते हुए ही काम किया है। यदि समस्या गंभीर नहीं है, तो मीडिया को क्यों विनियमित करें?

यह उल्लेख किया जाना जरुरी है कि घोषणापत्र का मसौदा तैयार करने वाले सज्जन वही हैं, जिन्होंने साल 1988 में एक नाकामयाब मानहानि विधेयक का मसौदा तैयार किया था। यह विधेयक मानहानि के लिए बढ़ी हुई सजा की वकालत करता था, जिसमें पहले अपराध के लिए दो साल की सजा और उसके बाद के अपराधों के लिए पांच साल तक की सजा की बात थी। आज विपक्ष में रहते हुए, वह मानहानि को गैर आपराधिक अपराध बनाना चाहते हैं।

अधिक खतरनाक प्रावधान घोषणापत्र के पैराग्राफ 33 (4) और 33 (5) में निहित है। पहला, एकाधिकार को रोकने के लिए कानून का वादा करता है और दूसरा मीडिया के अलग-अलग क्षेत्रों की मीडिया होल्डिंग्स पर रोक लगाने की बात करता है। इसके अतिरिक्त अन्य व्यवसाय करने वाले समूह द्वारा मीडिया के स्वामित्व को प्रतिबंधित करने की मांग की जाती है। इन मामलों को भारत के प्रतिस्पर्धा आयोग के पास भेजा जाएगा। रामनाथ गोयनका की भविष्यवाणी सच हो रही है। यह दोनों बातें मीडिया विरोधी और कांग्रेस की ‘बड़ा बुरा है’ पारंपरिक विचारधारा को परिभाषित करता है। यह वाम और तानाशाही दोनों दृष्टिकोणों का एक खतरनाक गठजोड़ है।

यह घोषणापत्र आतंकवादियों, अपराधियों और विद्रोहियों के प्रति उदार दिखता है, लेकिन यह भारत में स्वतंत्र मीडिया की वर्तमान संरचना को ध्वस्त करने की ओर इशारा करता है। भारत को प्रिंट, टेलीविजन, रेडियो और अब डिजिटल मीडिया की बहुलता है। एक राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में मैं यह विचार रखता हूं कि यदि कुछ मीडिया संगठन मेरी पार्टी के दृष्टिकोण के विरोध में हैं, तो वे उपलब्ध मीडिया समाचारों के महासागर का एक मामूली हिस्सा भर हो सकते हैं। यह हर दूसरे पक्ष पर लागू होता है। अंतत: भारतीय मीडिया के आकार की विशालता चीजों को संतुलित करती है। फिर संसदीय कानून की आवश्यकता क्यों है? इस तरह के संसदीय कानून की सलाह दी जाती है क्योंकि:
1. संविधान के अनुच्छेद 19 (2) में कोई प्रतिबंध अब लागू किए जाने वाले प्रतिबंधों के लिए किसी भी प्रकार की रोक नहीं है। जिस तरह 1960 और 1970 के दशक के कानून को हटाया गया था, वैसे ही किसी भी कानून को संवैधानिक चुनौती दी जा सकती है।

2. क्रॉस मीडिया होल्डिंग्स की अवधारणा संयुक्त राज्य में प्रासंगिक थी जहां एक भौगोलिक क्षेत्र के भीतर एक शहर में उपलब्ध समाचार पत्रों की संख्या एक या दो थी। चैनलों की बहुलता भी नहीं थी। उपग्रह चैनलों के अस्तित्व में आने के साथ ही भारत में नागरिकों के पास सैकड़ों चैनलों, कई समाचार पत्रों और डिजिटल माध्यमों का विकल्प सुनिश्चित हुआ है। क्रॉस होल्डिंग अवधारणा भारत में एक अप्रचलित विचार है। एकाधिकार का ‘वास्तविक और निकटस्थ’ कोई खतरा नहीं है।

3. प्रौद्योगिकी के आगमन के साथ, क्रॉस मीडिया होल्डिंग्स की अवधारणा ध्वस्त हो गई है। एडीटीवी एक चैनल चलाता है और इसकी एक शक्तिशाली वेबसाइट है जो एक समाचार पत्र के उद्देश्य को पूरा करती है। देश भर के कई राष्ट्रीय और क्षेत्रीय अख़बार, न्यूज़ चैनल, डिजिटल वेबसाइट और समाचार पत्र भी चलाते हैं। तो इस बात से जनहित कैसे प्रभावित होता है यदि आप एक माध्यम को चलाते हैं, तो आपको दूसरे को चलाने से रोक दिया जाना चाहिए? क्या एकाधिकार का खतरा सच में उत्पन्न हो रहा है? मेरे जैसे नागरिक भी फेसबुक और ट्विटर पर ब्लॉग लिखते हैं और अपनी बात को ऑडियो/वीडियो रूप में भी जारी करते हैं। प्रौद्योगिकी ने हमें सक्षम बनाया है। क्रॉस होल्डिंग की पूरी अवधारणा है कि यदि आप मीडिया के एक खंड के मालिक हैं, तो आपको दूसरे का मालिक बनने का अधिकार नहीं यह तर्क मौजूदा तकनीकी विकास के कारण अप्रचलित लगता है।

इतिहास गवाह है कि फर्जी समाचार और पेड न्यूज के मामले में, साथ ही राजनीतिक और सरकारी दबावों को बड़े संगठन ने पेशेवर तरीके से संभाला हैं। उनके पास प्रतिरोध करने की क्षमता होती है। कांग्रेस क्यों इस बात को हवा देना चाहती है? कांग्रेस के इस कदम का भी वही हश्र होगा जो मानहानि विधेयक,1988 का हुआ था।

मीडिया अध्याय में खतरनाक विचार

यह खतरनाक अध्याय घोषणापत्र के पैरा 33 (5) में निहित है। जो इंटरनेट की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए एक कानून का वादा करता है और इसे निरंकुश ढंग से चलाने की बात करता है।
इस प्रावधान का आमतौर पर केवल तभी प्रयोग किया जाता है जब आतंकवाद और उग्रवाद के खिलाफ अभियान चल रहा हो। उन्हें तुरंत कदम उठाना होता है। उग्रवाद विरोधी अभियानों के दौरान या जहां जाति या सांप्रदायिक हिंसा हो रही है, वहां इस तरह के प्रतिबंध राष्ट्रीय हित में लगाए जाते है। हिंसा या बड़े पैमाने पर सामाजिक तनाव की कुछ स्थितियों में सोशल मीडिया पर उन्माद पैदा किया जा सकता है। इससे शरारती तत्व अपने उद्देश्य में कामयाब होते है। कांग्रेस चाहती है कि इस संबंध में सुरक्षा बलों की शक्तियों को सीमित किया जाए।

इस घोषणा पत्र में मीडिया अध्याय में ऐसे हर एक सुझाव शामिल हैं, जो मुक्त पत्रकारिता और भारतीय मीडिया की बहुलता को विनियमित और प्रतिबंधित करेंगे। यह एक पुराना दांव है। यह समय के अनुरूप नहीं है। हालांकि, इस अध्याय को बनाते समय भी आतंकवादियों और विद्रोहियों का विशेष ध्यान रखा गया है।

(लेखक केंद्रीय मंत्री है)