एक डूबते वंश को बचाए रखने के लिए कितने झूठ बोलने की जरूरत है?

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अरूण जेटली

त्य अनमोल और पवित्र होता है। ऐसा देखा गया है कि परिपक्व लोकतंत्रों में, जानबूझकर झूठ पर भरोसा करने वाले जल्द ही सार्वजनिक जीवन से गायब हो जाते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत के बदलते सामाजिक-आर्थिक ढांचे में यह अनिवार्य रूप सही साबित होगा।

आधुनिक विश्व में राजवंशों की स्वाभाविक रूप से अपनी सीमाएं हैं। आज का महत्वाकांक्षी समाज राजवंशों की परंपरा से घृणा करता हैं। वे जवाबदेही और प्रदर्शन पर जोर देते हैं, लेकिन भारतीय राजनीति की एक सबसे पुरानी पार्टी दु:ख रूप से एक वंश की बंदी बन गई है। जिसके ज्यादातर वरिष्ठ नेताओं के पास साहस और नैतिक अधिकारों की कमी है। वह राजवंशों की परंपरा के खिलाफ खुलकर कुछ कहने में कतराते है। इस प्रवृत्ति का जन्म 1970 के दशक में हुआ; आपातकाल के दौरान यह अपने चरमोत्कर्ष पर रहा और तब से ही जारी है। वरिष्ठ नेताओं की ‘दास’ मानसिकता उन्हें आश्वस्त करती रही है कि उन्हें केवल राजवंश द्वारा लिखित गीत ही गाने हैं। उनकी एक विरोधाभासी राय, उनके राजनीतिक जीवन के लिए बेहद घातक साबित हो सकती है। जब राजवंश झूठ बोलता है, तो वे सभी उसकी हां में हां मिलाते हैं।

डूबते राजवंश को बचाने के लिए कितने झूठ बोलना जरूरी है? असत्य का संक्रामक प्रभाव काफी विस्तृत होता है और ऐसा प्रतीत होने लगा है कि यह संक्रमण ‘महाझूठबंधन’ के अन्य सहयोगियों में भी फैल गया है। राफेल सौदे के संबंध में जहां हजारों करोड़ रुपये के सार्वजनिक धन की बचत हुई है, वहीं इस मामले में रोज एक नए झूठ का पुलिंदा गढ़ा जा रहा है। इस कड़ी में नवीनतम झूठ सीएजी को लेकर फैलाया जा रहा है, जो राफेल सौदे की निर्णय लेने की प्रक्रिया में उनकी भागीदारी से संबंधित है। 2014-15 में, वर्तमान सीएजी वित्त मंत्रालय में सचिव (आर्थिक मामले) थे। एक समय में सबसे वरिष्ठ होने के नाते, उन्हें वित्त सचिव के रूप में भी नामित किया गया था। मैं किसी विरोधाभास के बिना यह बात कह सकता हूं कि राफेल लेनदेन से संबंधित कोई भी फाइल या कागज कभी उसके पास नहीं पहुंचा और न ही वह किसी भी तरह से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से रक्षा खरीद पर निर्णय लेने की प्रक्रिया में भागीदार रहें। यहां यह भी स्पष्ट करना जरुरी है कि सरकार के विभिन्न विभागों द्वारा खरीद पर किए जाने वाले व्यय को सचिव (व्यय) के अनुमोदन की आवश्यकता होती है।

फिर सीएजी के विषय में गैर जरुरी विवाद क्यों खड़ा किया जा रहा है? राजवंश जानता है कि उसका 500 करोड़ बनाम 1600 करोड़ वाला तर्क एक काल्पनिक कहानी है। कोई भी इस पर विश्वास नहीं करेगा, क्योंकि तथ्य इसका समर्थन नहीं करते हैं। सीएजी रिपोर्ट संसद में पेश होने से पहले ही, इस संस्था पर हमला शुरू हो गया था। राजवंशी पार्टी और उसके सहयोगियों ने इससे पहले सुप्रीम कोर्ट को अपना निशाना बनाया, जब कोर्ट द्वारा राफेल सौदे पर दायर याचिका को खारिज कर दिया था। इस याचिका में मूल्य-निर्धारण के संबंध में दिए गए सभी तर्क तथ्यात्मक रूप से गलत थे। उनका तर्क है कि इस रक्षा सौदे में किसी रक्षा अधिग्रहण परिषद, सीसीएस और अनुबंध वार्ता समिति को शामिल नहीं किया गया, जो एक कोरा झूठ है। एक निजी कंपनी को रु. 30,000 करोड़ का लाभ देने वाली बात भी एक कोरी अफवाह के सिवाय कुछ नहीं है। वहीं एक अखबार द्वारा अधूरा दस्तावेज़ पेश करना भी इतिहास में एक अभूतपूर्व घटना है। एक अधूरे दस्तावेज़ का उपयोग निश्चित रूप से स्वतंत्र विचार की भावना के अनुरूप नहीं है और जहां तक ‘नो इंटिग्रिटी पैक्ट’ की बात है, तो रूस और संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ इससे पहले हुए रक्षा सौदों में भी इस शर्त को शामिल नहीं किया गया था, तो इसमें कुछ नया नहीं है। अब सबूतों के बिना, सीएजी को लेकर एक काल्पनिक संघर्ष का आविष्कार किया जा रहा है।

अब डूबते राजवंश को बचाए रखने के लिए कितने और झूठ बोलेंगे? भारत, निश्चित रूप से एक बेहतर व्यवस्था का हकदार है।

           (लेखक केंद्रीय मंत्री हैं)

 

 

संसद में सीएजी रिपोर्ट पेश

यूपीए सरकार के मुकाबले एनडीए सरकार की राफेल खरीद 2.86% सस्ती

नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने 13 फरवरी, 2109 को संसद में राफेल सौदे से संबंधित अपनी रिपोर्ट पेश की। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक का कहना है कि एनडीए सरकार द्वारा हस्ताक्षरित राफेल फाइटर जेट सौदा यूपीए सरकार की तुलना में 2.86 प्रतिशत सस्ता है। सीएजी रिपोर्ट में कहा गया कि विशिष्ट संवर्द्धन के संबंध में, यह सौदा 17.08 प्रतिशत सस्ता था। रिपोर्ट में, ऑडिटर ने कहा कि यूपीए सरकार की तुलना में तैयार हालत में 36 राफेल लड़ाकू जेट विमानों की डिलीवरी के संबंध में 2016 के अनुबंध में एक महीने का सुधार हुआ है।

रिपोर्ट के अनुसार 2007 में डसॉल्ट द्वारा जो डिलीवरी शेड्यूल पेश किया गया था, उसके मुताबिक पहले 18 तैयार विमानों को अनुबंध पर हस्ताक्षर करने के 37 से 50 महीनों के बीच भारत को दिए जाने की बात कही गई थी। वहीं अगले 18 विमानों की डिलीवरी, जिन्हें एचएएल के साथ बनाना था, अनुबंध के हस्ताक्षर के 49वें से 72वें महीने में दिया जाना निश्चित हुआ था।