तेल की कीमतों पर विपक्ष का पाखंड

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अरुण जेटली

कच्चे तेल के अंतरराष्ट्रीय भाव में वृद्धि से उपजी चुनौतियों को विपक्षी नेताओं के ट्वीट्स या टेलीविजन बहस के माध्यम से हल नहीं किया जा सकता है। यह एक गंभीर समस्या है। तेल उत्पादक देशों ने अपने उत्पादन को कम किया है और इसके चलते मांग एवं आपूर्ति में एक असंतुलन स्पष्ट देखा जा सकता है।
वेनेजुएला और लीबिया में मौजूदा राजनीतिक संकट ने भी तेल के उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है। अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण ईरान से तेल खरीदने वाले मुल्कों में आपूर्ति को लेकर अनिश्चितता देखी जा रही है। वहीं, शेल गैस की व्यावसायिक आपूर्ति अपनी तय समय सीमा से पीछे चल रही है, जिसके माध्यम से कच्चे तेल की लागत को संतुलित किया जाता है।

कच्चे तेल की उच्च लागत ने विश्व के कई देशों की मुद्रा को भी प्रभावित किया है और यदि भारत के आर्थिक तंत्र की बात करें, तो राजकोषीय घाटे, मुद्रास्फीति, विदेशी मुद्रा भंडार इत्यादि के संबंध में हमारी स्थिति काफी स्थिर है। हमारे कर संग्रह के आंकड़े प्रोत्साहित करने वाले हैं। हालांकि, कच्चे तेल की उच्च कीमतें वर्तमान वित्तीय घाटा पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रही है और भारतीय मुद्रा को भी प्रभावित कर रही है। वहीं, डॉलर की मजबूती ने वैश्विक मुद्राओं को प्रभावित किया है। इन सभी कारणों के चलते ईंधन की लागत पर असर पड़ता है, जिसका बोझ जनता को उठाना पड़ रहा है।
कच्चे तेल की कीमतों में अप्रैल और मई के महीने में वृद्धि हुई। उसके बाद यह थोड़ा-सा नरम पड़ा, लेकिन फिर इसके दाम पिछले चार वर्षों में अपने उच्चतम स्तर तक पहुंच गए। हमें यह समझना होगा कि तेल की कीमतों में यह बदलाव लगातार चलता रहता है और इसकी कीमतों के निर्धारण में वैश्विक कारक एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते है। वहीं, मीडिया का एक वर्ग ऐसा भी है जो कीमतों में वृद्धि होने पर शोर मचाता है और दरों में गिरावट होने पर चुपी साध लेता है। वहीं सरकार की आलोचना करने वाला एक वर्ग ऐसा भी है जो कच्चे तेल की कीमतों में वृद्धि के राजनीतिक परिणामों से आनंदित होता हैं। यह उनकी टिप्पणियों से स्पष्ट भी हो जाता है। हाल में जब तेल की कीमतों में कमी की गई, तो इन आलोचकों ने भारी मन के साथ इसे एक बुरे अर्थशास्त्र की संज्ञा दी। यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि तेल की कीमतों को तय करने के लिए सरकार अपना हस्तक्षेप नहीं करेगी। वहीं कांग्रेस के नेतृत्व में चलने वाली यूपीए -2 सरकार ने ​अपने पांच वर्षों के कार्यकाल में मुद्रास्फीति को दहाई के आंकड़े तक पहुंचा दिया और आज राहुल गांधी टेलीविजन पर दिए गए अपने बयानों और ट्वीट के माध्यम से कीमतों में कटौती की वकालत करते है।

केंद्र की एनडीए सरकार राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए लगातार सावधानी से कदम उठा रही है। हम साल 2014 से लगातार एक योजनाबद्ध तरीके से राजकोषीय घाटे को कम कर रहे है और हमारा यह प्रयास निरंतर जारी रहेगा।

कोई भी सरकार अपने नागरिकों के प्रति असंवेदनशील नहीं हो सकती है। पिछले चार बजटों में मोदी सरकार ने छोटे और मध्यम वर्ग के कर-दाताओं को हर वर्ष प्रत्यक्ष कर में कुछ राहत देने का प्रयास किया है। इन आयकर रियायतों का संचयी प्रभाव हर साल 97,000 करोड़ रुपये है। वहीं, पहले 13 महीनों में 334 वस्तुओं पर जीएसटी दरों में कमी से उपभोक्ता को 80,000 करोड़ रुपये की वार्षिक राहत मिली है। पिछले साल अक्टूबर के महीने में तेल की कीमतें बढ़ने के कारण केंद्र स​रकार ने उत्पाद शुल्क में 2 रुपये की कमी की थी। हमने सभी राज्यों से एक समान कटौती करने का अनुरोध किया है। जहां एक ओर अधिकांश बीजेपी और एनडीए की सरकार वाले राज्यों ने इस अनुरोध को स्वीकार किया, वहीं दूसरी ओर बाकी राज्यों ने ऐसा करने से इंकार कर दिया। मैंने हमेशा इस बात पर जोर दिया है कि असाधारण स्थिति में राहत देने के लिए अर्थव्यवस्था की क्षमता इसकी वित्तीय ताकत पर निर्भर करती है। हमारी सरकार में प्रत्यक्ष करदाताओं की संख्या में लगातार इजाफा हुआ है और परिणामस्वरूप हमारे राजस्व के आंकडों में वृद्धि हुई है। यही कारण है कि केंद्र सरकार ने उत्पाद शुल्क में कमी कर उपभोक्ता को 2.5 रुपये की राहत देने का फैसला किया है। हमने राज्यों से भी इसी तरह की राहत देने का अनुरोध किया।

जहां एक ओर केंद्र सरकार को तेल कर पर प्राप्त राजस्व स्थिर रहता है, क्योंकि केंद्र सरकार एक निश्चित राशि ही जनता से शुल्क के तौर पर लेती है। वहीं, दूसरी ओर केंद्र को राजस्व के रूप में जो राशि मिलती है, उसका 42% राज्यों को दिया जाता है। राज्य स्वतंत्र रूप से तेल बिक्री पर अपना वैट चार्ज करती हैं। देश में औसत वैट दर लगभग 29% है। इस प्रकार, कुछ महीने पहले राज्यों को कम लागत वाली कीमत पर जहां 29% वैट मिल रहा था और वहीं अब बढ़ी हुई कीमत पर भी उन्हें 29% वैट मिल रहा है। केंद्र के मुकाबले राज्यों को तेल की कीमतों से ज्यादा फायदा होता है। केंद्र का संग्रह स्थिर बना रहता है। तो ऐसे में राज्य सरकारें लोगों को 2.5 रुपये की राहत देने में सक्षम मानी जा सकती है। तेल की कीमतों में वृद्धि के कारण राज्य सरकारों का कर संग्रह काफी अधिक हुआ है। फिर भी हम आज एक ऐसी स्थिति का सामना कर रहे हैं, जहां गैर-बीजेपी और गैर-एनडीए राज्य सरकारों ने उपभोक्ता को इस परिस्थिति का लाभ पारित करने से इंकार कर दिया है। इससे लोगों को क्या निष्कर्ष निकालना चाहिए? क्या राहुल गांधी और उनके मजबूरी के साथी आम जनता को राहत देने के लिए केवल ट्वीट्स और टेलीविज़न चर्चाओं पर ही अपनी प्रतिबद्धता जाहिर करते रहेंगे? वैट दर और केंद्र से प्राप्त राजस्व के बाद राज्य सरकार तेल पर 60-70% राजस्व प्राप्त करती है। ऐसे में गैर-बीजेपी राज्यों को यह स्पष्ट नहीं करना चाहिए कि साल 2017 और 2018 में उच्च राजस्व प्राप्ति के बाद भी उन्होंने आम जनता को राहत देने से इनकार कर दिया। उन्होंने ट्वीट्स किए और टेलीविज़न पर बहस में हिस्सा लिया, लेकिन जब जनता को राहत देने की बात आयी तो उन्होनें इससे अपना मुंह फेर लिया।

                                                                                                                    (लेखक भारत के वित्त मंत्री हैं)