उद्योग

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दीनदयाल उपाध्याय

औद्योगीकरण की आवश्यकता

कृषि के उपरांत हमें उद्योगों का विचार करना होगा। भारत का औद्योगीकरण सभी दृष्टियों से आवश्यक है। बिना इसके खेती पर निर्भर व्यक्तियों की संख्या नहीं घटाई जा सकती। कृषि पर अधिक भार होने के कारण ही नहीं, अपितु उसका योग्य विकास करने तथा सभी व्यक्तियों को पूरा काम देने के लिए लोगों को उद्योग-धंधों में जुटाना नितांत आवश्यक है। अभी तक भारत कच्चा माल पैदा करता रहा तथा पक्के माल के लिए विदेशों पर निर्भर रहा। फलतः वह कभी आत्मनिर्भर नहीं हो पाया। अंतरराष्ट्रीय व्यापार में, विशेषकर मंदी के दिनों में उसे भारी संकटों का सामना करना पड़ा। प्राचीन शास्त्रकारों ने वाणिज्य, शिल्प एवं उद्योगों के संबंध में यह लिखा है कि उन्हें अपरमात्रिक होना चाहिए। अर्थात् किसी आवश्यक वस्तु के लिए उन्हें दूसरे देशों पर निर्भर न रहना पड़े। हां, देश के उद्धर्त माल को बाहर निकालने के लिए अंतरराष्ट्रीय व्यापार का उपयोग होना चाहिए। उस स्थिति में अपने देश की चीजों को अत्युत्तम बनाने का प्रयास होगा, जिससे उनकी बाहर खपत हो सके। जहां अपने यहां के उद्योगों को टिकाने के लिए जैसे भारत के कपड़े की मिलों को चलाए रखने के लिए मिस्र की रुई, अथवा माल के उद्धर्त न होते हुए भी देश के लोगों को उपभोग से वंचित करके जैसे आजकल शक्कर, खली, ज्वार आदि का भारत से निर्यात, अंतरराष्ट्रीय व्यापार का आवश्यक अंग हो जाए, वह देश कभी ‘अपरमात्रिक’ नहीं बन पाता। उसकी अर्थव्यवस्था ठीक नहीं चल सकती। सुरक्षा की दृष्टि से भी अनेक प्रकार के शस्त्रास्त्र व युद्ध सामग्री तैयार करने के लिए हमें उद्योगों का विकास करना होगा।

विचारणीय उपादान

औद्योगिक नीति का विचार करते समय हमें श्री मो. विश्वेश्वरैया के अनुसार इन सात बातों का विचार करना चाहिए-(1) Men (2) Material (3) Money (4) Machinery (5) Management (6) Motive power (7) Market अर्थात् (1) मनुष्य (2) माल (3) मुद्रा (4) मशीन (5) प्रबंध (6) शक्ति और (7) मांग। इन सातों का ठीक-ठीक मेल बिठाए बिना यदि हमने उद्योग-धंधे प्रारंभ किए तो वे चल नहीं पाएंगे। ये सातों एक दूसरे के पूरक हैं। यदि इनमें से एक में भी बदल किया तो फिर दूसरों में परिवर्तन आवश्यक हो जाता है। जो मनुष्य एक साधारण छापे की मशीन पर काम कर सकता है। वह ‘रोटरी’ पर उपयोगी सिद्ध नहीं होगा। जो गाड़ी बैल से चलाई जा सकती है, वह पेट्रोल से नहीं चल सकती। जहां धोतियों के लिए बाजार है, वहां फ्रॉक बनाना बुद्धिमानी नहीं होगी। जिसके पास केवल दस हजार रुपए हैं, वह एक लाख की मशीन लगाकर उद्योग प्रारंभ नहीं कर सकता। जो दस आदमियों के एक छोटे से कारख़ाने की देखभाल कर सकता है, वह दस हज़ार आदमियों की मिल का प्रबंधक नहीं बन सकता। जहां पत्थर मिलता ही न हो, वहां पत्थर कूटने की मशीन लगाना निरी मूर्खता ही होगी।

सामाजिक उद्देश्य

उपर्युक्त सातों उपादानों का मेल बिठाते समय कई बार उनमें से एक या दो को आधार मानकर शेष को उनके अनुरूप बदलना पड़ता है। कई बार हमारा अंतिम लक्ष्य क्या है, इसका विचार करके भी इनमें से एकाधिक को प्रमुखता देनी होती है। उदाहरणार्थ, जहां हमें किसी-न-किसी प्रकार से बहुत मात्रा में थोड़े समय में कोई माल तैयार करना है, जैसे लड़ाई के काल में, वहां हम ऐसी मशीन लगाएंगे, जो अधिक उत्पादन कर सके। किंतु जब हम प्रत्येक व्यक्ति को काम देना ही अपना लक्ष्य रखते हों तो हमें श्रम बचाने वाली मशीनों की आवश्यकता नहीं होगी।
किसी उद्योग के स्वरूप का जब एक व्यक्ति विचार करता है तो वह यही देखता है। कि सभी उपादानों का इस प्रकार उपयोग किया जाए कि उत्पादित माल बाजार में सस्ता एवं अच्छा होने के साथ प्रतिस्पर्धा में टिक सके। उसके इस प्रयास में अन्य व्यक्तियों और उद्योगों पर कौन सा परिणाम होता है, उसकी वह चिंता नहीं करता। किंतु इस ओर प्रथम प्रयास करने वालों को सदैव ही उन लोगों से कठिन संघर्ष लेना पड़ता है, जो पहले से उस क्षेत्र पर प्रभुत्व जमाकर बैठे हैं। उसका सामर्थ्य जब कम पड़ता है तो वह समाज से सहायता की याचना करता है।

विभिन्न देशों की संरक्षण नीतियों का जन्म इसमें से ही हुआ। यह आश्चर्य का विषय है कि जो संरक्षण के सहारे बढ़े, वे दूसरों को उनके मुक़ाबले में संरक्षण दिया जाता है तो विरोध करते हैं। समाज को अपनी उद्योगनीति का निर्धारण व्यापक सामाजिक उद्देश्यों एवं लक्ष्यों के हित में करना होगा। हमने इसके पूर्व ही यह निश्चित किया है कि हमारे सामाजिक लक्ष्य राष्ट्र की सुरक्षा सामर्थ्य को बढ़ाना, उपभोग एवं उत्पादक वस्तुओं की वृद्धि, प्रत्येक को काम, न्यूनतम जीवन स्तर की आवाप्ति, विषमताओं की कमी तथा विकेंद्रीकरण हैं। खुले व्यापार तथा उन्मुक्त प्रतिस्पर्धा के आधार पर हम देश के उद्योग-धंधों को बढ़ा नहीं पाए हैं। राज्य का संरक्षण तथा स्वदेशी भावनाओं के सहारे जन-बल का संरक्षण प्राप्त करके ही देश के कुछ उद्योग-धंधे बढ़े हैं। आज जब हम सर्वांगीण विकास का विचार करते हैं तो संरक्षण की अनिवार्यता को स्वीकार करके चलते हैं। यह संरक्षण देश में उद्योगों को विदेशी उद्योगों की प्रतिस्पर्धा से तथा देश में छोटे उद्योगों को बड़ों की प्रतिस्पर्धा से देना होगा।

विद्यमान उद्योग

औद्योगिक नीति का विचार करते समय यह भी ध्यान में रखना होगा कि हम आज एक कोरी स्लेट पर नहीं लिख रहे हैं। देश में पहले से कुछ उद्योग-धंधे चल रहे हैं। उनमें जहां एक ओर पूरी तरह संगठित एवं अद्यतन प्रविधियों का उपयोग करने वाले उद्योग हैं, तो दूसरी ओर पुराने चले आने वाले असंगठित एवं अर्धविकसित उद्योग हैं। हमें अपनी नीति का निर्धारण इन सबका विचार करके करना होगा। विशेषकर जब हम कोई नई तकनीक अपनाते हैं तो उसका परिणाम पुरानी इकाइयों पर भी पड़ता है। एक ओर नई मशीनों के लिए सब प्रकार की व्यवस्था करनी होती है तो दूसरी ओर पुराने धंधे में लगी पूंजी बेकार हो जाती है। नए कारख़ानों के लिए प्रशिक्षित व्यक्तियों का अभाव होता है तो दूसरी ओर पुराने कारीगरों को काम नहीं मिलता। जहां एक ओर अपने कारख़ानों को चलाने के लिए बाहर से कच्चा माल तथा उत्पादक वस्तुएं मंगानी पड़ती हैं, वहां दूसरी ओर देश के कच्चे माल के लिए बाजार नहीं रहे।

यह सब हमारी असुविचारित उद्योग नीति के कारण है। हमने पश्चिम की तकनीकी प्रक्रिया का आंख बंद करके अनुकरण किया है। हमारे उद्योगों का स्वाभाविक विकास नहीं हो रहा है। वे हमारी अर्थव्यवस्था के अभिन्न एवं अन्योन्याश्रित अंग नहीं, अपितु ऊपर से लादे हुए हैं। उनका विकास या तो विदेशी उद्योगपतियों द्वारा विदेशी माल के देश में विधायन के निमित्त शाखा खोलने, या देश के ही कच्चे माल को विदेशी हितों और पद्धतियों से तैयार करने अथवा विदेशियों के अनुकरणशील सहयोगी अथवा अभिकर्ता कतिपय देशी व्यापारियों द्वारा हुआ है। यही कारण है कि भारत के उद्योगपतियों में सबके सब व्यापारी, आढ़तिया तथा सटोरियों में से आए हैं। उद्योग एवं शिल्प में लगे हुए कारीगरों का विकास नहीं हुआ है।

नई प्रौद्योगिकी की आवश्यकता

देश के उपलब्ध उपादानों के अनुरूप उत्पादन प्रक्रिया का निर्धारण एवं विकास हमारी सबसे बड़ी समस्या है। श्री एम.एस. ठक्कर ने मद्रास में भारतीय विज्ञान कांग्रेस के सभापति पद से बोलते हुए कहा था, “अभी तक हमने बाहर के देशों से स्फूर्ति ली है। हमने मशीनों, कारख़ानों, तज्ञों तथा कारीगरों का आयात किया है। शायद यह उन परिस्थितियों में आवश्यक हो। परिणाम यह हुआ कि भारत में जो बड़े यांत्रिक उद्योग स्थापित हुए हैं, वे दूसरे देशों की नक़ल भर हैं। देशी आविष्कारों पर विकसित उद्योग कदाचित् ही मिलेंगे। हमें पश्चिम से बड़ी उदारता से सहायता मिलेगी। हम ज्ञान, विज्ञान एवं सौहार्द को जहां से भी वह मिलेगा लेंगे, किंतु प्रत्येक पुष्प से मधु लेकर भी शहद में परिवर्तित करने वाली मधुमक्षिका की भांति हमें संपूर्ण प्राप्त सहायता को अपनी आवश्यकताओं और लक्ष्यों के अनुरूप ढालकर देश में औद्योगीकरण के ऐसे ढांचे का विकास करना होगा, जिसे हम अपना कह सकें। यह भारत के वैज्ञानिक एवं प्राविधिकों के ऊपर दायित्व है।’’ यह चुनौती है, जो हमें स्वीकार करनी चाहिए।

भारत में जब उपलब्ध साधनों का विचार करते हैं तो हम निश्चित ही निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि हमारी उत्पादन प्रक्रिया श्रम प्रधान होनी चाहिए। हमारे पास प्रथम तो पूंजी की कमी है और जो कुछ हम बचा पाते हैं, उसे जब हम श्रम बचत की योजनाओं के आधार पर अचल पूंजी के रूप में परिवर्तित करते हैं तो वह विदेशों में चली जाती है तथा उसका हमें वास्तविक लाभ कम हो पाता है। इसके अतिरिक्त हमारे पुराने औजार और मशीनें बेकार हो जाती हैं, जिससे पूंजी विनाश (Decapitalization) तथा बेकारी (Disemployment) तेजी से बढ़ते जाते हैं। इस बढ़ी हुई बेकारी के कारण देश में अधिकांश लोगों का जीवन स्तर ऊंचा उठने के बजाय घटता है। पश्चिमी ढंग की तथा बहुत ही गूढ़ (Complex) उत्पादन प्रणाली से थोड़े बहुत लोगों को काम अवश्य मिल जाता है, किंतु देश में वह गतिशील प्रक्रिया उत्पन्न नहीं हो पाती, जो अर्थव्यवस्था को बदलकर समाज में गहरे एवं क्रांतिकारी परिवर्तन ला सके।

यदि हमें ऐसी उद्योग व्यवस्था क़ायम करनी है, जो कृषि के साथ सुसंबद्ध हो सके तथा कृषि से भार कम कर सके तो उसके लिए बड़े उद्योगों के स्थान पर छोटे उद्योगों को प्रमुखता देनी होगी। थोड़े लोगों तथा सरल औजारों के साथ छोटी-छोटी इकाइयां ही आज की परिस्थिति में हमारे लिए सर्वोत्तम हैं। देश की तथा समाज की संपूर्ण अवस्था की आर्थिक क्षेत्र में इसी रूप में अभिव्यक्ति हो सकती है। अर्थात् हमें जो कुटीर एवं छोटे-छोटे उद्योग चल रहे हैं तथा जो कारीगर उनमें काम कर रहे हैं, उन्हें आधार बनाकर उनके विकास की व्यवस्था करनी चाहिए। बहुधा यह देखा जाता है कि छोटे उद्योगों की सहायता के नाम पर कुछ ग्रामोद्योगों (जिन्हें कांग्रेस ने अपने रचनात्मक कार्यक्रम में सम्मिलित किया था) सहायता दे दी जाती है। वे अनुदानों पर निर्भर रहकर किसी-न-किसी प्रकार जीवित रहते हैं। आवश्यकता तो यह है कि उन्हें औद्योगिक कार्यक्रम का आधार बनाकर उनका विकास किया जाए। उनमें एक स्वयं की शक्ति उत्पन्न करनी होगी। कई बार शौक़िया भी कुछ ऐसे लोगों को, जिनका उनसे कभी संबंध नहीं रहा, ग्रामोद्योगों में प्रशिक्षित करने का प्रयास किया जाता है। यह धन का अपव्यय है।

जब हम बड़े उद्योगों का विरोध करते हैं तो मशीन का विरोध नहीं करते। हां, उसकी मर्यादाएं अवश्य अनुभव करते हैं। आज शासन की उद्योग नीति में विशालकाय। बड़े उद्योग तथा चरखा जैसे छोटे ग्रामोद्योग ही आते हैं। वे छोटे-छोटे उद्योग, जो आज की जीवन की अनेक आवश्यकताओं को आधुनिक उत्पादन पद्धति से पूरा करते और कर सकते हैं, अभी तक उपेक्षित हैं।

(‘भारतीय अर्थ-नीित विकास की एक दिशा’ से साभार)