लद्दाख के इतिहास से न्याय

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अम्बा चरण वशिष्ठ

होने को तो जम्मू-कश्मीर राज्य के तीन संभाग हैं- जम्मू, कश्मीर व लद्दाख, पर जब समस्या की बात आती है तो नाम केवल कश्मीर का ही लिया जाता है| जम्मू-कश्मीर की बात हो तो लद्दाख को तो लगभग भुला ही दिया जाता है| क्षेत्रफल में लद्दाख सब से बड़ा संभाग (82,665 किलोमीटर) है, जबकि जनसंख्या सब से कम (147,104) है| तीनों संभागों में साम्प्रदायिक और सामाजिक भिन्नता है| कश्मीर मुस्लिम बहुल है, जम्मू हिन्दू बहुल और लद्दाख बौद्ध बहुल| तीनों संभागों में लद्दाख सब से दुर्गम और पिछड़ा है| इसी कारण इसकी अवहेलना भी की जाती रही है| प्रदेश के इतिहास में भी लद्दाख के योगदान की अनदेखी की गयी है। हालांकि, सामरिक दृष्टि से इसका योगदान बहुत बड़ा रहा है, विशेषकर कारगिल की लड़ाई के समय, क्योंकि चीन और पकिस्तान के साथ इसकी सीमायें सांझी हैं |

अपनी नवीनतम पुस्तक “जम्मू-कश्मीर का विस्मृत अध्याय-कुशोक बकुला रिंपोछे” के माध्यम से डॉ. कुलदीप चंद अग्निहोत्री ने इस कमी को पूरा करने का एक सफल प्रयास किया है| उन्होंने इस पुस्तक में लद्दाख के कुशोक बकुला रिंपोछे के बारे पूरी जानकारी बड़ी बखूबी से प्रस्तुत की है| कुशोक बकुला कोई नाम नहीं है, बल्कि यह भी परम पावन दलाई लामा और पंचन लामा की तर्ज़ पर एक सांस्कृतिक व धार्मिक पद है जो पुनर्जन्म लेता है। कुशोक बकुला की विद्वत्ता की ऊंचाई को परम पावन दलाई लामा के सिवा और कोइ नहीं छू सकता। डॉ. अग्निहोत्री ने इसकी व्यावहारिकता व किंवदंतियों की विस्तृत चर्चा बड़े रोचक ढंग से की है|

जिन रिंपोछे का वर्णन पुस्तक में किया गया है वह 19वें कुशोक बकुला रिंपोछे हैं। वह बहु-आयामी व्यक्तित्व के मालिक थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा तिब्बत में हुई। बौद्ध ग्रंथों के अध्ययन के साथ-साथ उन्होंने ज्योतिष, आयुर्वेद और एक्यूपन्क्चर का भी ज्ञान प्राप्त किया, जिससे वह वहां की जनता की सेवा करते रहे। क्षेत्र की पुरानी विकृतियों व बहुपति प्रथा को समाप्त करने के लिए बहुत काम किया। समाज को आधुनिक शिक्षा की ओर भी प्रेरित किया। भारत के स्वतंत्र होने पर उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि लद्दाख भारत का ही अंग बन कर रहेगा। शेख अब्दुल्ला ने तो यहां तक कह दिया था कि अगर लद्दाख के लोग हमारे साथ नहीं रहना चाहते तो वे अलग हो सकते हैं। इसी प्रकार की धमकी शेख जम्मू के लोगों को पहले ही दे चुके थे।

जम्मू-कश्मीर की राजनीति में तीन ही व्यक्ति बहुत महत्वपूर्ण रहे — एक शेख अब्दुल्ला, दूसरे पंडित प्रेमनाथ डोगरा और तीसरे कुशोक बकुला। जो महत्वपूर्ण काम शेख अब्दुल्ला की चालों को विफल कर जम्मू संभाग को भारत के साथ ही रहने देने के लिए प्रजा परिषद् के अध्यक्ष प्रेमनाथ डोगरा ने किया, वही कार्य कुशोक बकुला रिंपोछे ने लद्दाख के लिए किया।

जब तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू लेह आये तो उन्होंने कुशोक बकुला रिंपोछे को राजनीति में आने का निमंत्रण दिया जिसे उन्होंने लद्दाख के हित में स्वीकार कर लिया- “मैं एक भिक्षु हूं और नियम के अनुसार तो मुझे राजनीति में नहीं पड़ना चाहिए था, लेकिन मैं शताब्दियों से चली आ रही इस परम्परा को तोड़ रहा हूं क्योंकि मेरे दिल में लद्दाख का विकास बसा हुआ है”।

कुशोक बकुला रिंपोछे को प्रदेश संविधान सभा के लिए लद्दाख से चुना गया। शेख अब्दुल्ला के प्रधान मंत्री पद से हटाए जाने के बाद कुशोक बकुला 1953 में लद्दाख मामलों के नए गठित मंत्रालय में उपमंत्री बने और बाद में 1967 तक राज्य मंत्री रहे। राज्य प्रशासन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होने के बावजूद रिंपोछे ने आम जनता के अधिकारों के लिए लड़ाई नहीं छोड़ी। वह निर्भीक व्यक्ति थे। नेशनल कांफ्रेंस के सदस्य होने के बावजूद लद्दाख की अनदेखी पर संविधान सभा में खरी-खरी सुनाने से न चूके।

जब लद्दाख के लिए लोक सभा की एक अलग सीट बनी, तो 1967 में उस सीट के लिये कुशोक बकुला निर्विरोध चुने गए। रिंपोछे को केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग का सदस्य बना दिया। यह शेख अब्दुल्ला को गंवारा न बैठा। जब आयोग ने जम्मू-कश्मीर दौरे का प्रोग्राम बनाया तो शेख अब्दुल्ला ने इसका विरोध किया कि इसके प्रदेश में आने से राज्य की स्वायत्तत्ता में दखलंदाज़ी होगी। शेख सरकार ने लद्दाख को साम्प्रदायिकता के आधार पर दो ज़िलों में बांट दिया — बौद्ध बहुल जिला लेह और मुस्लिम बहुल कारगिल। शेख ने इस प्रकार दोनों समुदायों को आपस में भिड़ाकर कर अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करना चाहा था।

बाद में बकुला को केंद्र सरकार ने मंगोलिया में भारत का राजदूत नियुक्त कर दिया। भारत और मंगोलिया के संबंधों को मधुर बनाने में उनकी भूमिका अद्वितीय रही। मंगोलिया सरकार ने उन्हें सब से बड़े “पोलार स्टार” से सम्मानित किया। राजदूत के रूप में उन्होंने तिब्बत समस्या के हल करने के लिए कई प्रयास किये। वह ईसाई मिशनरियों द्वारा ग़रीब जनता को पैसे बांट कर धर्म परिवर्तन के सख्त खिलाफ थे। जब वह लन्दन गए तो ब्रिटेन की महारानी ने उन्हें बकिंघम महल में ठहराया। 4 नवम्बर 2003 को 83 वर्ष की आयु में उन्होंने अपनी देह त्याग दी।

पुस्तक अनेक ग्रंथों, पुस्तकों व पत्र-पत्रिकाओं के अध्ययन से एक गहरे अनुसंधान का निचोड़ है। हर अध्याय के अंत में सन्दर्भों का ज़िक्र किया गया है जो पुस्तक की प्रमाणिकता को सजाते हैं। लद्दाख को न्याय मिला हो या न मिला हो, पर डॉ. अग्निहोत्री ने अपनी पुस्तक में इस क्षेत्र व जनता से अवश्य न्याय किया है। पुस्तक रोचक व पठनीय है। लेखक व प्रकाशक दोनों का ही प्रयास सराहनीय है।