मनुष्य या मशीन

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दीनदयाल उपाध्याय

मनुष्य ने मशीन को अपनी सहायता और सुविधा के लिए बनाया, किंतु आज वह उसका गुलाम बन गया है। फिर भी वह नई-नई मशीनें बनाता जाता है, इसी आशा में कि हर नई मशीन उसे नई और अधिक शक्ति प्रदान करेगी। आज सारा संसार इसी होड़ में लगा है और नई-नई उलझनें पैदा करता जा रहा है। चाहे हम साम्यवाद को लें या पूंजीवाद को, दोनों की समस्याएं मशीन युग की देन हैं। मशीनों ने शक्ति के केंद्रीकरण में सहायता दी है और वह ही सब समस्याओं की जड़ में है।

भारत गुलामी के अभिशाप के कारण ही क्यों न हो, मशीनों की इस दौड़ में काफ़ी पिछड़ गया है। अंग्रेज़ी राज्य के मातहत हम अंग्रेजों की विकसित मशीनों से प्राप्त शक्ति के द्वारा शोषित ही रहे। मशीनों को खाने के लिए कच्चा माल देना तथा उनसे बनी हुई वस्तुओं के लिए बाजार जुटाना मात्र हमारा काम रहा। अब जब अंग्रेज चले गए हैं तथा हम स्वयं अपने भाग्य के विधाता हैं, हमारे मन में भी मशीनों की दौड़ में हिस्सा लेने की स्वाभाविक इच्छा उत्पन्न होती है। जिस शक्ति के सहारे अंग्रेज हमें गुलाम बनाकर रख सके, यदि वह हमें भी प्राप्त हो जाए तो हम दृढ़ हो सकेंगे, यह सीधा सा तर्क हमारे समक्ष है। किंतु हमें गंभीरतापूर्वक सोचना चाहिए और पिछले डेढ़ सौ वर्ष के अभिशाप को वरदान में बदलना चाहिए।

मशीन से अधिक उत्पादन की शक्ति प्राप्त होती है। साधारणतया अधिक उत्पादन समृद्धि का लक्षण माना जाता है, किंतु यह सर्वांगपूर्ण विचार नहीं। उत्पादन अपने में ही हमारा लक्ष्य नहीं हो सकता। उत्पादन तो उपभोग के लिए चाहिए। अत: यदि उत्पाद वस्तु उपभोग्य या उपयुक्त नहीं हुई तो उसका अवमूल्यन हो जाएगा तथा वह समृद्धि का द्योतक नहीं होगा।

मनुष्य अधिकाधिक उपभोग तो करना चाहता है, किंतु उसकी उपभोग-सामर्थ्य असीम नहीं है। वह अमर्यादित रूप में नहीं बढ़ सकती, यद्यपि यह सत्य है कि आज अधिकांश व्यक्तियों की इस सामर्थ्य में पर्याप्त वृद्धि की गुंजाइश है। (यहां हम इसका विचार नहीं करेंगे कि इस वृद्धि से कहां तक वास्तविक सुख एवं आनंद की उपलब्धि संभव है) किंतु यह सामर्थ्य एकाएक नहीं बढ़ सकती। सामाजिक रीति-रिवाज, व्यवस्था एवं जीवन के मूल्यों के साथ-साथ मनुष्य की क्रयशक्ति भी उसकी सामर्थ्य का निर्णय करती है।

आज भारत के जन-साधारण की क्रयशक्ति बढ़ाना ही हमारा प्रमुख लक्ष्य होना चाहिए। उसके लिए प्रथम आवश्यकता है, प्रत्येक को काम मिलता रहे। बेकारी क्रयशक्ति को बिलकुल समाप्त कर देती है। भारत के हर व्यक्ति को काम मिले, उसके लिए नए उद्योग-धंधे प्रारंभ करने होंगे, किंतु वे ऐसे होने चाहिए कि उनके बने हुए माल को बाजार मिल सके तथा वहां किसी चलते हुए उद्योग को बंद करके बेकारी और न बढ़ा दे। बाजार देश और विदेश दोनों ही स्थानों पर मिल सकते हैं। किंतु विदेश के स्थान पर हमें देश के बाजार की ओर पहले ध्यान देना होगा, कारण-विदेशों के बाजार में दूसरे देश हमसे बहुत पहले पहुंच चुके हैं। उन्हें हटाना सहज नहीं, वरन् बाजारों को अपने पास रखने के लिए दुनिया के देश जिस युद्ध की तैयारी कर रहे हैं, हमें भी उसमें साथ देना होगा। उस हालत में हमारा ध्यान युद्ध सामग्री को इकट्ठा करने की ओर जाएगा, जो विकास के स्थान पर विनाश के लिए उत्तरदायी होगा।

देश का बाज़ार दो प्रकार से प्राप्त होगा। प्रथम बाहर से आने वाले माल पर प्रतिबंध लगाकर स्वदेशी का आश्रय ग्रहण करने से, दूसरे जन-साधारण की क्रयशक्ति को बढ़ाने से जो कि धन के समांतर वितरण एवं विकेंद्रीकरण से हो सकेगा।

जब मशीन मनुष्य को हटाकर उसका स्थान ले लेती है, तब क्रयशक्ति क्षीण होने लगती है। फलत: उत्पादित वस्तु की मांग कम होने से उसका मूल्य गिर जाता है। मजदूरों को हटाने से यद्यपि खर्चा कुछ कम हो जाता है किंतु ऊपर का खर्चा (Establishment and Management) तो कम होता नहीं, यहां तक कि वह अनुपात में बढ़ ही जाता है और इस प्रकार उद्योग को कोई बड़ा लाभ नहीं होता, जब तक कि वह नया बाज़ार न ढूंढ ले। यह तभी संभव है जबकि या तो विदेशों में बाज़ार मिल जाए या देश में दूसरे उद्योग-धंधों को हानि पहुंचाए। यद्यपि दूसरे उद्योग धंधों को हानि पहुंचाने पर वहां भी बेकारी बढ़ती है, जो क्रय शक्ति को और भी घटाने का कारण बनती है। अत: पश्चिम के अनेक देश अपने देश की समृद्धि विदेशों के बाजार पर ही टिकाते आए हैं। जहां तक भारत का संबंध है, वह विदेशी बाज़ारों के भरोसे अपना आर्थिक ढांचा खड़ा नहीं कर सकता। उसे तो अपने ही सहारे खड़ा होना होगा। अत: हम मशीनों को बिना सोचे-समझे स्वीकार नहीं कर सकते। बड़ी-बड़ी मशीनें हमारी प्रगति का नहीं अपितु परागति का लक्षण होंगी।

भारत की सबसे बड़ी पूंजी हमारी जनशक्ति है। हमें पहले उसका पूर्ण उपयोग करना होगा। गांवों में काम करने वाले खेतिहर मजदूरों को ही वर्ष में औसतन 189 दिन काम मिलता है। शेष दिन उनकी शक्ति बेकार जाती है। हमें पहले उनकी शक्ति का उपयोग करना होगा। आज उनकी कुल आमदनी 447 रुपए प्रतिवर्ष है। हमें इसमें वृद्धि करनी होगी। क्या इनके लिए बड़ी-बड़ी मिलें खोली जाएं। उस हालत में इन्हें गांव से बाहर आना होगा तथा गांव में मजदूरों की समस्या हो जाएगी। फिर साढ़े तीन करोड़ लोगों को मिल में खपाने के लिए कितनी मशीनें चाहिए उनसे जो माल बनेगा, वह खपेगा कहां ?

खेतिहर मजदूरों के अतिरिक्त भी हमारे यहां बेकारों की एक बड़ी संख्या है। शहरों में विभिन्न प्रकार काम करने वाले घरेलू नौकर, कुली, मजदूर आदि की भी क्रयशक्ति बहुत कम है। उसे भी हम बड़ी-बड़ी मिलों के द्वारा नहीं बढ़ा सकते। वैज्ञानिकता के कारण दिन-प्रतिदिन मजदूर बेकार होते जा रहे हैं। हम मशीन का पेट भरने के लिए मनुष्य को भूखा रख रहे हैं।

आज जो भी नए-नए उद्योग प्रारंभ होते हैं, वे पुराने छोटे उद्योगों को नष्ट करते जाते हैं। एक बाटा का कारखाना यद्यपि हजार-दो हजार लोगों को काम देता है, किंतु वह गांवों में हज़ारों की संख्या में जूते बनाने वालों को बेकार बना देता है। अंग्रेजी राज्य में मैनचेस्टर और लिवरपूल के कारखानों ने भारत के उद्योग-धंधों को चौपट किया था तथा हमें बेकार बनाया। आज अहमदाबाद और कानपुर में ही मैनचेस्टर हो गए हैं। सिवाय इसके कि वे हमारे पूंजीपतियों को तथा थोड़े से मजदूरों को लाभ पहुंचाते हैं, वे हमारे बुनियादी उद्योगों को चौपट करते जा रहे हैं।

अत: आवश्यकता है कि हम अपने गांवों में तथा क़स्बे में चलने वाले उद्योगों को अपना आधार बनाएं। उनका विकास एवं उनकी वृद्धि करने की कोशिश करें। उनके द्वारा हमारे बाजार की जो मांग पूरी होती है, उसके लिए न तो विदेशी और न देशी बड़े-बड़े उद्योगों को प्रतियोगी होने दें।

हमारी जिन आवश्यकताओं की पूर्ति इन छोटे-छोटे उद्योगों से नहीं हो सकती, उन्हें नए सिरे से गांवों और कस्बों में प्रारंभ करें, किंतु वह भी छोटे आधार पर। बड़े-बड़े उद्योग इन छोटे उद्योगों की आवश्यकता की पूर्ति के लिए जैसे उत्पादक वस्तुओं के लिए ही चलाए जाएं। इस प्रकार सभी उपयोगी वस्तुएं छोटे और गृह उद्योगों द्वारा उत्पादक वस्तुएं बड़े उद्योगों द्वारा तैयार होंगी। वे एक-दूसरे के पूरक हो सकेंगे। इसमें भारत के हर व्यक्ति को काम मिल सकेगा। आर्थिक शक्ति के विकेंद्रीकरण के कारण जन-साधारण की क्रयशक्ति का स्तर ऊंचा होगा, जिससे ज्यों-ज्यों उत्पादन बढ़ता जाएगा, त्यों-त्यों उसकी मांग भी बढ़ती जाएगी।

संक्षेप में भारत की आर्थिक समस्या का हल यह है कि हम मनुष्य और मशीन की लड़ाई में मनुष्य को प्रमुखता दें। हम मशीन युग के पुजारी नहीं, मानव युग के ही पुजारी बने रहे। हां ज्यों-ज्यों मानव की शक्ति मशीन को काबू में रखने की बढ़ती जाएगी, त्यों-त्यों मशीन विकसित होती जाएगी।

— (पांचजन्य, अक्तूबर 25, 1954)