आत्मिक सुख की आवश्यकता

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दीनदयाल उपाध्याय

व्यक्ति को केवल शारीरिक सुख ही नहीं, मानसिक, बौद्धिक और आत्मिक सुख की भी लालसा रहती है। और इस प्रकार सभी सुखों के साथ-साथ समन्वयात्मक ढंग से वह यदि प्राप्त कर सका, तभी वह अपने जीवन में वास्तविक सुख का अनुभव कर सकता है, अन्यथा एक प्रकार का सुख उसे यदि मिला और बाक़ी के सुखों से वह वंचित रहा तो पहले प्रकार का सुख भी उसको दुःखकारक प्रतीत होता है। उस सुख का भी मूल्य समाप्त हो जाता है। अतएव हमारे सुख, हमारे जीवन के विविध पहलुओं को समान रूप से बढ़ाने वाले, समान रूप से आनंद देनेवाले होने चाहिए।

कुछ व्यक्तियों की अपनी भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियां हैं, उनके भिन्न-भिन्न अंग हैं, वैसे यदि देखें तो वह किसी भी प्रकार का सुख प्राप्त नहीं कर सकता। सुख को प्राप्त करने के लिए दूसरों पर भी निर्भर रहना पड़ता है। हम बिल्कल भौतिक दष्टि से ही देखें- भोजन का प्रश्न आता है। अन्य भौतिक आवश्यकताएं हैं। तो पता चलता है कि अकेला व्यक्ति सभी भौतिक आवश्यकताएं पूरी नहीं कर सकता। स्वयं अन्न पैदा कर ले। स्वयं उसका आटा बनाए, स्वयं उसमें से खाना तैयार कर ले, ईंधन भी स्वयं ही इकट्ठा कर ले, उसके लिए जो बरतन आदि चाहिए, वह भी जुटा ले, तो यह वास्तविक स्थिति नहीं है। रॉबिन्सन क्रूसो’ का जो कुछ भी स्थान हम सबने पढ़ा होगा, उसने अपने ही प्रयत्न करके सब चीजें तैयार की। वह एक काल्पनिक जगत् की बात है और वास्तव में उस व्यक्ति के प्रयत्न हैं कि जिस व्यक्ति ने समाज में अनेक वर्षों तक जीवन व्यतीत करके बहुत सी चीजें सीख ली थीं। अन्न कैसे उगाया जाता है, यह उसे मालूम था। मैदान कैसे बनाया जाता है, यह भी उसने देखा था। नाव कैसे बनाई जाती है, नाव कैसे तैरती है, यह वह अच्छी तरह से जानता था। सबका सब स्वयं उसने अपनी बुद्धि लगाकर आविष्कार किया। ऐसी तो कोई बात नहीं कि वह समाज से दूर हट गया होगा। उसने सब कुछ विचार स्वयं ही कर लिया होगा, ऐसा नहीं है।

वास्तविक जीवन में तो हम यही देखते हैं कि व्यक्ति दूसरों के ऊपर बराबर निर्भर रहता है। हम दूसरों पर निर्भर रहते हैं और जो कुछ दिखाई देता है वह इतना ही है कि एक व्यक्ति दूसरे के ऊपर निर्भर है। किसान जुलाहे के ऊपर निर्भर रहता है। वह उसे खाने के लिए अन्न देता है। डॉक्टर और शिक्षक एक-दूसरे पर निर्भर रहते हैं। डॉक्टर के बच्चे को शिक्षक पढ़ाता है। शिक्षक के बच्चे को डॉक्टर बीमार पड़ने पर दवाई देता है। हम चारों ओर देखेंगे तो पता चलेगा कि हम सभी एक-दूसरे के ऊपर निर्भर हैं। एक-दूसरे के द्वारा हम अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। बिना एक-दूसरे के कोई एक क़दम भी आगे नहीं बढ़ा सकता। कोई ऐसा सोचे कि मैं समाज से बिल्कुल अलग हटकर अपना ही विचार करके चलूंगा तो संभवत: वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकेगा। उसे संपूर्ण का विचार करना ही पड़ेगा। जब विचार करेगा तो प्रत्येक चीज़ में ढंग से अच्छी तरह से विचार करना ही पड़ेगा और यह विचार करना आना चाहिए।

जब हम आगे देखते हैं, मानसिक सुख का विचार करते हैं तो पता चलता है कि मानसिक सुख भी केवल हमें दूसरों से ही प्राप्त होता है। दूसरों को सुखी देखकर हमें कुछ सुख का अनुभव होता है। यदि हम दूसरों को दु:खी देखते हैं तो हमें दु:ख का अनुभव होता है। हंसते हुए देखकर हमें भी हंसी आ जाती है। ऐसा कोई व्यक्ति होगा, जो बहुत बेरहम होगा। उसे किसी को रोते देखकर रोना नहीं आता और दूसरे को हंसता हुआ देखकर उसे हंसी नहीं आती। जबकि बहुत बार तो लोग दूसरे को देखकर रोना शुरू कर देते हैं। दूसरे के अंदर भय का भाव देखकर अपने अंदर भी भय भाव पैदा हो जाता है। दूसरों को पराक्रम करते हुए देखा तो लगता है, अपने को भी पराक्रम करना चाहिए। अर्थात् ये भावनाएं सभी के अंदर रहती हैं।

कई बार ऐसा होता है कि हम किसी का विचार नहीं कर सकते। यहां तक कि हमारे पास सब प्रकार के सुख रहें। हमारे पास बहुत अच्छा भोजन है। हम भोजन करने के लिए बैठे हैं। बड़ी शांति और आनंद के साथ भोजन कर रहे हैं। कोई मांगने के लिए खड़ा हो जाए तो आपको इस भोजन में फिर आनंद ही नहीं आएगा। गाड़ी में आप भोजन करने के लिए बैठे, कोई भिखारी सामने से आ जाता है। ऐसा चेहरा बनाता है। एक तो गंदे कपड़े, आप उससे दूर हटने को भी कहोगे तो वह नहीं हटता। उस समय आप बिना दिए उससे छुटकारा नहीं पा सकते और जब तक आप दया करके उसे नहीं देंगे तो आपका आनंद ही चला जाएगा। इस प्रकार दूसरे के ऊपर हमारा यह मन का सुख सब प्रकार से अवलंबित रहता है।

कोई कहे कि नहीं हम तो मनमौजी हैं, अपने मन के अंदर हम सुखी रहेंगे, लेकिन इतने से काम नहीं चलेगा। किसी-न-किसी प्रकार सुख प्राप्त करने को दूसरे का सहारा हमें लेना ही पड़ेगा। बहुधा लोग उसी प्रकार का व्यवहार अपने आप करने लगते हैं। जैसे कि एक क़िस्सा है। एक जुलाहा था। उस जुलाहे की एक लड़की थी। एक बार लड़की झाड़ लगाते-लगाते कुछ सोचने लगी। जैसे कुछ लोगों को कल्पना-लोक में विचरने की आदत होती है। वह भी कल्पना में खो गई। उसकी शादी पक्की हो चुकी थी, इसलिए वह इसी के बारे में सोचने लगी कि कुछ दिन बाद मेरी शादी हो जाएगी। मैं ससुराल चली जाऊंगी। कुछ दिन बाद मेरा बच्चा होगा। उसे खिलाएंगे, पिलाएंगे, घर में आनंद छा जाएगा। उसे कहीं लेकर जाएंगे तो वहां से रुपया मिलेगा, प्रेम मिलेगा। लेकिन फिर उसके मन में विचार आया कि अचानक कोई बीमारी गांव में फैलेगी। उस बीमारी में उसका बच्चा भी बीमार हो जाएगा। उसका इलाज कराया जाएगा। उसके बाद भी वह बच्चा नहीं बचेगा। बच्चा मर जाएगा।

यही सोचकर उसके मन के अंदर से रोना छूटने लगा। वह रोने लगी। जब वह रोने लगी तो उसकी मां जो बाहर पानी भरने के लिए गई थी। उस समय वह लौटकर आई। उसे रोता हुआ देखकर वह भी रोने लगी। उस लड़की का भाई आया। उसे रोता देखकर वह भी रोने लगा। पिता आया सबको रोते देखकर उसे भी रोना आ गया। पड़ोसियों ने जब रोने की आवाज़ सुनी तो वे भी वहां आ पहुंचे। उन सबको रोते देखकर पड़ोसिन औरतें भी रोने लगीं। वहां भीड़ इकट्ठी हो गई। एक व्यक्ति ऐसा आया, जिसे जिज्ञासा हुई रोने का कारण जानने की। उसने पूछा कि ये सब क्यों रो रहे हैं? क्या कोई मर गया है? लेकिन किसी को भी कारण पता नहीं था। अंत में जुलाहे से पूछा कि क्या बात हो गई है? जुलाहे ने कहा कि मेरी पत्नी और बच्चे रो रहे थे तो मैं भी रोने लगा। उसकी पत्नी ने कहा कि यह लड़की रो रही थी। मैंने सोचा कि कहीं से मृत्यु का समाचार आया होगा, इसलिए मैं भी रोने लगी।

उसके लड़के ने भी यही बताया। बाद में लड़की से पूछा गया कि तू क्यों रो रही थी? तब उसने कहा कि मेरा लड़का मर गया, मैं इसलिए रो रही थी। सभी ने उससे यही पूछा कि तेरा लड़का कहां है? उसने बताया कि मैं इस तरह सब सोच रही थी। तो यह तो एक क़िस्सा है। लेकिन वास्तव में भी मनुष्य दूसरे को देखकर स्वयं भी रो पड़ता है। इसीलिए किसी साहित्यकार ने कहा है कि समाज दर्पण के समान है। इस दर्पण के सामने जैसा चेहरा लेकर खड़े हो जाएंगे, वैसा ही उसमें दिखाई देगा। हंसता हुआ चेहरा लेकर खड़े हो जाएंगे तो हंसता हुआ चेहरा दिखेगा। समाज भी उसी प्रकार से उसकी प्रतिक्रिया करता है। आप हंसते हुए खड़े होंगे तो समाज भी आपको हंसता हुआ दिखेगा। रोते हुए खड़े होंगे तो समाज भी आपको रोता हुआ दिखाई देगा। इस प्रकार से मन का सारा सुख समाज के ऊपर निर्भर करता है।

अकेला कोई सोचे कि मैं अकेले ही सुख प्राप्त कर लूंगा तो अकेला मनुष्य कभी सुख प्राप्त नहीं कर सकता। चार लोगों के साथ मिलकर ही सुख प्राप्त करेगा। कल्पना करें कि किसी के घर में विवाह है। उस विवाह में जितने ज्यादा लोग सम्मिलित होंगे, जितने ज्यादा मित्र आएंगे, उतना ही सुख बढ़ता चला जाएगा। लेकिन किसी का ऐसा विवाह हो कि विवाह में अकेले ही ब्याह करने चले गए, कोई दूसरा आया ही नहीं। न चार स्त्रियां वहां पर गीत गाने के लिए इकट्ठा हुईं और इस तरह यदि किसी का विवाह हुआ तो कोई क्या कहेगा कि यह विवाह काहे का रहा। आनंद तो है वहां, जहां चार लोग इकट्ठा होते हैं। इसी तरह चार सुखी लोग इकट्ठा होंगे तो समाज का सुख बढ़ जाता है। इसी तरह दुःख के विषय में भी है। किसी के यहां मृत्यु हो जाए। वह अकेला ही बैठकर रोता रहे । कोई उसके यहां दुःख बांटने न आए। तब दुःख बढ़ जाता है। यदि कोई उसके पास आकर उसके दुःख का कारण पूछे या उसके रोने के साथ थोड़ा रो दे तो उसका दुःख कम हो जाता है। मृत्यु होने पर उसकी शमशान-यात्रा में लोग हज़ारों की संख्या में सम्मिलित हो जाएं तो उसके घर वालों का दुःख उतना ही कम हो जाता है और यदि कहीं पर सुख का मौक़ा है तो वहां भी हज़ारों लोग इकट्ठा होते हैं। थोड़ी सी परेशानी उनका इंतजाम करने में हो सकती है, लेकिन सुख तो बढ़ जाता है।

इस प्रकार दुःख बांटने से दुःख कम हो जाता है और सुख बांटने से सुख में बढ़ोतरी होती है। जो व्यक्ति अकेला रहता है, उसको भय लगता है। अकेलेपन का भय। इस बारे में अपने यहां एक कहावत है कि दो तो मिट्टी के भी भले। वे मिट्टी के होंगे, लेकिन कम-से-कम दो तो होंगे। इसी तरह आप किसी जंगल में जाइए तो आप अकेले जाएंगे तो आपको डर लगेगा। लेकिन आपको कोई दूसरा साथी मिल जाए तो आपको बिल्कुल भी डर नहीं लगेगा। एक तरह का धैर्य मन में बैठ जाता है कि मैं अकेला नहीं हूं।
क्रमश:…
— पाञ्चजन्य, मई 26, 1961, संघ शिक्षा वर्ग, बौद्धिक वर्ग : लखनऊ