एकांगी नहीं, समाज का सर्वांगीण विचार आवश्यक

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दीनदयाल उपाध्याय

म लोग अपने कार्य के अनेक पहलुओं पर विचार करते हैं। हमारा कार्य अपने समाज का संगठन कर उसे सब प्रकार से वैभवयुक्त बनाए रखना है। इसलिए कई बार जब हम अपने संगठन तथा समाज की संगठित अवस्था का विचार करते हैं तो साथ-साथ प्रश्न उठता है कि उस वैभव की कल्पना का क्या स्वरूप है और क्या आधार हो सकता है, अनेक बार यह प्रश्न उठता है। सन् 1947 में अंग्रेजों के जाने के बाद प्रमुख रूप से अपनी राज्य शक्ति का ध्यान इस समाज जीवन को वैभव युक्त बनाते हुए दिखाई पड़ता है। अनेक योजनाएं संविधान तथा अन्य भी चित्र समाज में भिन्न-भिन्न परिवर्तन करने के लिए क़ानून आदि के द्वारा हुए हैं। जो कुछ ताक़त प्राप्त हुई है, उसके द्वारा समाज जीवन को बदलने का प्रयास कर रहे हैं। सबके सामने यह प्रश्न उठता है। कि इन प्रयासों से हमारा भला होगा कि नहीं। ये प्रयत्न जीवन के अनुकूल बैठेंगे क्या? इस स्वतंत्रता के द्वारा जीवन में कुछ समाधान प्राप्त हो सकेगा या नहीं, इन प्रश्नों पर हमें विचार करना है।

अंग्रेजों के समय ज्यादा कठिनाई नहीं थी। उनको बाहर निकालना ही सर्वसाधारण का लक्ष्य था। कार्य करने में वे बाधा स्वरूप थे। इसलिए उनको दूर कर दिया जाए, ऐसा समझकर ही प्रयत्न चलते थे।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इसका विचार कुछ अंशों में पहले ही कर लिया था। अंग्रेजों से मुक्ति मिलते ही स्वतंत्रता प्राप्ति हो जाएगी, ऐसा कभी हमने माना नहीं । जहां पर अपना तंत्र होता है, जो जीवन का सब प्रकार से विधान करता है। क्या करना है, क्या नहीं करना है, इसका निर्णय भी करता है। परकीय सत्ता के चले जाने से ही स्वतंत्रता नहीं होती, जीवनतंत्र तो अपना होना चाहिए। स्वतंत्रता के साथ-साथ अपना धर्म, संस्कृति, समाज के संगठन का तथा राष्ट्र की अभिवृद्धि का विचार भी करना होता है। संस्कृति, समाज और धर्म का एक संबंध होता है। उनको छोड़ने पर बचता ही क्या है? इसको हटाकर स्वतंत्रता नाम की कोई चीज़ ही नहीं होती है। प्रार्थना में हम नित्य बोलते हैं ‘विधायास्य धर्मस्य संरक्षणम्’, यह भाव ही राष्ट्र को परम वैभव तक पहुंचा सकेगा, यह एक आवश्यक चीज़ है। उसको छोड़कर नहीं बढ़ सकेंगे।

अंग्रेज़ चले गए तो अब क्या किया जाए, यह समस्या सामने आ गई। आर्थिक दृष्टि के उद्योग-धंधे कैसे चलाए जाएं? इस समस्या को भी सुलझाना था। नज़रें विदेशों की ओर गईं। अमरीका, ब्रिटेन, रूस, जापान और चीन की ओर देखने लगे कि सबने प्रगति कर ली है। कहीं से भी समाचार मिलता है कि उस देश ने प्रगति कर ली है तो वहां पर प्रतिनिधि मंडल भेजे जाते हैं कि वहां जो कुछ चल रहा है, उसको सीखकर यहां के जीवन में प्रकट करो। उत्सुकता तो बहुत है, पर इस प्रकार चारों ओर भेजने से कुछ होगा क्या? लोग कहते हैं कि धर्म-संस्कृति के आधार पर ही बात करने से क्या होगा? बाहर के आधार पर ही प्रगति हो सकती है। ऐसा कहने का एक कारण है। यहां का बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है, जिसकी शिक्षा-दीक्षा अंग्रेज़ी पद्धति पर हुई है। हम भी अपवाद नहीं हैं। कोई भी आवश्यकता पड़ने पर जो प्राप्त है, उसी ओर निगाह जाती है। प्रत्येक बात के लिए बाहर की ओर देखना स्वाभाविक ही है।

कुछ लोगों की धारणा है कि धर्म और संस्कृति की बात पुराने जमाने की है। जब हमें इस ज़माने की बात करनी है तो सब कुछ आधुनिक ही चाहिए। युगधर्म के नाम से बाहर की अनेक चीजें यहां लाई जाती हैं। युग कोई देश विशेष या समाज विशेष से बंधा हुआ नहीं होता है। इंग्लैंड में जो कुछ चलता है। वही युगधर्म क्यों? उसका तो इससे कोई संबंध नहीं। खाना-पीना है, मेज़-कुरसी पर बैठकर खाना आधुनिक कहलाता है और जमीन पर बैठना पुरानी पद्धति के अंतर्गत आता है। इस बात का संबंध युग से क्यों जोड़ा जाए? पश्चिमीकरण ही आधुनिकता बन गया है। पश्चिम में जो कुछ चल रहा है, वह आधुनिकता के नाम पर हम पर लद रहा है। उनमें भी कुछ पद्धतियां ऐसी हैं, जो हजारों वर्षों से चल रही हैं। जैसे-केक काटना, किसी के स्वास्थ्य के लिए पीना। इनका आधुनिकता के साथ क्या संबंध हो सकता है? विज्ञान की प्रगति का भी और सत्य शोधन का भी आधुनिकता के साथ कोई संबंध नहीं है। आयुर्वेद और एलोपैथी में बिना विचार के एलोपैथी को ही तरतम भाव से स्वीकार किया जाएगा। बुद्धिपूर्वक विचार नहीं होता।

जिसको प्राप्त करना चाहते हैं, उसका पूरा विचार नहीं हुआ है। पश्चिम से ही हम क्यों लेते हैं? अपनी संस्कृति को तो आध्यात्मिक मानकर भौतिक समृद्धि के समय विचार में नहीं लाया जाता। एक सज्जन ने कहा कि यदि गुड़ चाहिए तो गुड़ की ही दुकान पर जाना होगा। मिश्री चाहे कितनी ही भली हो। यह कहना गलत है कि हमने भौतिक दृष्टि से विचार ही नहीं किया। पर माना यह गया कि इसमें आत्मा-परमात्मा और मोक्ष परलोक के संबंध में ही विचार हैं। लोगों के कहने के दो आधार हैं। एक तो यह कि हमारी संस्कृति अच्छी नहीं है और दूसरा यह कि अच्छी है, परंतु बहुत प्राचीन है। महाभारत काल में बड़ी-बड़ी बातें हुई होंगी, पर अब कुछ लेना है तो बाहर वालों से ही लेना होगा। इस संबंध में दो बातों पर विचार करना होगा। मान लो कि हमारे पास कुछ भी नहीं है, परंतु क्या यह उचित है कि हम बाहर से ही लें, जिन्होंने राष्ट्र के टिकने, चलने और समाप्त होने पर साथ-साथ विचार किया, उनका कहना है कि अगर व्यापक रूप से कोई बाहर का अनुकरण करना चाहे तो वह नष्ट हो जाएगा। स्वयं को धोखा देने वाली यह वस्तु है। कुछ जगहों पर तो जैसा कि दक्षिणी अफ्रीका में पता लगा है कि सभ्य बनाने के काल में उनके जीवन की प्रेरणा एकदम समाप्त हो गई है। खाना-पीना, नाचना, पहनना और गिरजाघर में जाना यह सब अंग्रेजों ने अफ्रीकियों को सिखाया। परिणाम यह हुआ है कि उनके जीवन का चैतन्य और उत्साह समाप्त हो गया है। मशीनों की तरह वे लोग काम करते हैं। जनसंख्या भी कम होने लगी है और इस बात का डर है कि तथाकथित सभ्यता का पाठ पढ़ने वाली जातियां भूलोक से समाप्त हो जाएंगी।
थोड़ा-बहुत बाहर से लिया भी जा सकता है।

परंतु उनका संबंध स्वयं से सोच लेना चाहिए। भोजन लेते समय शरीर के साथ उसका संबंध देखा जाता है। यदि किसी पदार्थ में एकरूपता होती है, तब उसे काम में लिया जाता है। कोई भी वस्तु खाने पर तो आदमी जिंदा नहीं रह सकता। बाहर का भी अपना बनाकर लेने और उसे पचाने का सामर्थ्य हो तो ही कोई पदार्थ उपयोगी होता है। बिना सामर्थ्य के खाने से हानि होती है। जब बाहर का कुछ लेना होता है तो वह क्या है, कितनी मात्रा में लेना चाहिए और किस रूप में लेना चाहिए-इन दो बातों पर विचार होता है। धातु की भस्म ली जाती है तो इस बात पर विचार किया जाता है कि हमारी प्रकृति कैसी है और खाने के बाद भी कुछ अंशों को बेकार समझकर फेंकना पड़ता है। उसके लिए भी स्थान सोचना पड़ता है। समाज भी बाहर से लेता है और अनेक विकृतियों के रूप में शेषांश को बाहर फेंकता है। बाहर से कुछ लेना है, यानी स्वयं को समाप्त करना है। यदि हमारे पास कुछ नहीं तो अपने अनुकूल यही है कि हम जो भी लें, पराक्रम से लें। आंख बंद करके क्यों लें, यह बात कहने में तो अच्छी है, परंतु विचार करके देखें कि यह तो संपूर्ण शरीर है, त्रिगुणात्मक है। सब अच्छी चीजों को मिलाकर भी जीवन नहीं चलेगा। अच्छे-बुरे को मिलाने से शायद काम चल जाए।

समाज की अपनी जो मनोप्रकृति है। उसी के अनुसार चलना पड़ता है। अपनी प्रकृति बुरी हो तो उसे सुधारना चाहिए। सुधारने के लिए यदि हम बाहर की ओर देखें तो उसमें विकार ही होगा। अतः अपना विचार करें तो अपनी ही परंपरा के आधार पर करें। तर्क में सब कुछ ख़राब होने पर भी बाहर से कुछ नहीं लेंगे। रूढ़ि को ठीक करेंगे और अपनी पद्धति से ठीक करेंगे। समाज सुधार के प्रयत्न अपने यहां बराबर हुए हैं। इसी युग में महर्षि दयानंद ने समाज को बदला है। उन्होंने इंग्लैंड की तरफ़ देखने को नहीं कहा। जीवित समाज में ऐसे प्रयास होते हैं।

यह समाज शुद्ध समाज है, ऐसा नहीं कहा जा सकेगा। जैसे कमरे की सफ़ाई रोज़ करनी पड़ती है और एक दिन में सारी नहीं की जा सकती है, उसी प्रकार समाज को भी । शुद्ध करना पड़ता है। लोटा भी दूसरे दिन साफ़ चाहिए। गणवेष के बूट और बैल्ट को रोज़ पॉलिश करना पड़ता है। ख़राबियों को ठीक करने वाली चीज़ समाज में चलती रहती है। दूसरों के आधार पर प्रयत्न करना लाभ नहीं देगा। मूल तंतुओं को तोड़कर नया प्रयास करने में जीवन समाप्त हो जाएगा।

जब हम अपनी चीजों का विचार करते हैं तो पता लगता है कि अपनी पद्धति तो अन्यों से चार क़दम आगे है। एकांगी विचार नहीं तो समाज का सर्वांगीण विचार हमने किया है। इसमें कोई ख़राबी है तो वह भी हमारी है। अत: अच्छी है। वही हमारी प्रकृति को लगती है। बाहर की ओर देखना मूर्खता है। घर के रत्न को छोड़कर बाहर की कौड़ियों की ओर देखना तो और भी मूर्खता है और सब इन्हीं कौड़ियों के लिए प्रतिनिधि मंडल भेजे जाते हैं तो कितनी बड़ी मूर्खता सिद्ध होती है। जब हमने धर्म और संस्कृति का विचार किया है तो उसके आधारों पर विचार तो पहले किया है।

मनुष्य पैदा हुआ, उसकी क्रिया के पीछे प्रेरणा क्या है? जो भी पैदा होता है, उसे जिंदा रहने की इच्छा होती है। इसको प्राणेषणा कहते हैं। इसी प्रेरणा से सारी बातों का निर्माण होता है। जीवित रहने के लिए यह लाख दौड़-धूप करता है। जो चीज़ उसको जीवित रखने में सहायक होती है, उसे वह सुख मानता है। जो सहायक नहीं होती, उसे दु:ख। इसी सुख की इच्छा करने को सुखेषणा कहते हैं। उसके सारे प्रयत्न इसी कारण कामना से होते हैं। इसी सुख को प्राप्त करना और कितनी मात्रा में तथा कितनी अच्छी तरह लेने का वह प्रयास करता है। (शेष अगले अंक में)…

संघ शिक्षा वर्ग, बौद्धिक वर्ग: नई दिल्ली
(-पाञ्चजन्य, जनवरी 25, 1960)