हमारी सांस्कृतिक एकता

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दीनदयाल उपाध्याय

वेदों के रचयिता ऋषियों से लेकर आज तक के समस्त आचार्यों ने राष्ट्र का गुणगान किया। सभी देवताओं और तीर्थों के प्रति श्रद्धा का भाव उत्पन्न किया गया। आचार-विचारों की एकता निर्माण करने का प्रयास किया गया। विभेदों को मिटाने के लिए समय-समय पर सुनियोजित प्रयत्न किए गए।

राष्ट्रत्व के विकास में स्वदेश का महत्त्व सबसे अधिक होता है। हम भारतीयों द्वारा आदिकाल से ही अपनी संपूर्ण मातृभूमि के दर्शन का प्रयत्न किया गया। अंत:प्रकृति का बाह्य प्रकृति पर प्रक्षेप करते हुए अपने हृदय की अव्यक्त श्रद्धा को व्यक्त करने के लिए जब वैदिक ऋषि गा उठता है|

इमे मे गंङ्गे यमुने सरस्वति, शुतुद्रि स्तोमं संचता परूष्ण्या।
असिवन्या मरुद्रवृधे वितस्तयार्जीकीये श्रुणुह्या सुषोमया ॥

तब उस राष्ट्र भक्ति की कल्पना को एक स्थूल स्वरूप मिल जाता है; राष्ट्र की आत्मा का आधार स्वरूप मातृभूमि का चित्र आंखों के सम्मुख आ जाता है। परावर्ती सभी आचार्यों ने इसी चित्र को अपनी आंखों के सामने रखा है।

किसी भी मत अथवा संप्रदाय के मानने वाले क्यों न हों, उनके सम्मुख हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक, आसिंधु-सिंधुपर्यंत भारत का चित्र रहता था। प्रत्येक संप्रदाय के आचार्यों ने यही प्रयत्न किया कि उनके संप्रदाय के लोग संपूर्ण भारत को पवित्र मानें। इतना ही नहीं, भारत की इस एकता का प्रत्यक्ष ज्ञान कर सकें, इसके लिए प्रत्येक संप्रदाय में तीर्थ-यात्रा की पद्धति प्रचलित हुई। ये तीर्थ तो संपूर्ण भारत के एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक बिखरे हुए हैं। सूर्य के बारह मंदिर, गणपत्यों के अष्ट विनायक, शैवों के बारह ज्योर्तिलिंग, शाक्तों के इक्यावन शक्ति क्षेत्र तथा वैष्णवों के अगणित तीर्थक्षेत्र संपूर्ण भारत में बिखरे पड़े हैं। इन विस्तृत पुण्य-क्षेत्रों के होते हुए प्रांतीयता की संकुचित भावना का प्रवेश असंभव ही था। मर्यादा पुरुषोत्तम राम की दक्षिण-यात्रा ने उत्तर-दक्षिण का जो गठबंधन किया, वह जन-साधारण के आचार-विचार और भावना में अटूट हो गया। महाभारतकार ने इसी एकता को दिखाने के लिए एक बार नहीं तो दो-दो, तीन-तीन बार भारत का एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक अत्यंत भावुकतापूर्ण वर्णन किया है। पुराणकारों ने भारत की भूमि के कण-कण की पवित्रता का गुणगान किया है।

पारस्परिक सहयोग

प्रत्येक मत और संप्रदाय के सम्मुख तो संपूर्ण भारत का चित्र रहा ही तथा उसमें से प्रत्येक वैदिक परंपरा की रक्षा करते हुए मातृभूमि की यशोवृद्धि का प्रयत्न करता भी रहा, किंतु इस प्रकार एक ही ध्येय को लेकर कार्य करने वालों में पारस्परिक सहयोग और एकता की भावना के निर्माण की आवश्यकता का भी समय-समय पर अनुभव किया जाता रहा। भिन्न-भिन्न संप्रदायों और मतों के बीच समन्वय की वृत्ति के विकास का श्रीशंकराचार्य प्रभृति युग-पुरुषों द्वारा जो सद्प्रयास किया जाता रहा, वह भी इसी भावना से अनुप्रेरित था।

इस समन्वयात्मक कार्य में भारत की एकता और अखंडता का पूरा-पूरा ध्यान रखा गया। इस प्रकार ऊपर-नीचे दाएं-बाएं चारों ही ओर एकता का प्रसार हुआ। ताने-बाने के समान एक भावना-सूत्र को फैलाकर मानो एक वस्त्र का निर्माण किया गया। भिन्न-भिन्न संप्रदायों के तीर्थक्षेत्र संपूर्ण भारत में ताने के समान फैले हुए थे तो उनमें चार प्रमुख तीर्थ-क्षेत्रों को छांटकर उनको सब संप्रदायों के आदर और श्रद्धा का स्थान बना दिया। हिमालय के हिमाच्छादित शिखर पर अवस्थित बद्रीनाथ की यात्रा सब प्रांतों और संप्रदायों के लोगों के जीवन की कामना रही है। महोदधि और रत्नाकर दोनों ही जहां माता के चरण प्रक्षालन करते हैं, वहां श्री रामेश्वरम् के दर्शन करने को जितनी श्रद्धा से शैव जाते हैं, उससे भी अधिक श्रद्धा से वैष्णव गंगोत्तरी का जल लाकर शिवलिंग पर चढ़ाते हैं। ‘जगन्नाथ का भात, पूछो जात न पांत’ कहकर जिस प्रेम और श्रद्धा से श्रीजगन्नाथजी का प्रसाद पाते हैं, वह तो राष्ट्रीय संगठन के लिए संजीवनी का काम करता है। बड़े-से-बड़े शाक्त भी द्वारकापुरी में जाकर अपनी श्रद्धा के रक्तकण भगवान् वासुदेव कृष्ण के चरणों में अर्पित कर स्वयं को धन्य समझते हैं। इसी प्रकार पुराणकारों ने जब कहा कि :

अयोध्या-मथुरा माया काशी कांची अवन्तिका।
पूरी द्वारावतीश्चैव सप्तैता मोक्षदायिका॥

तब वे सांप्रदायिक भावना से बहुत ऊंचे उठकर राष्ट्रीय धरातल से विचार कर रहे थे। ये सातों पुरियां मानो भारतीय राष्ट्र के मर्मस्थल हों, उसकी सभ्यता और संस्कृति के केंद्र हों। एक-एक के साथ अतीत की इतनी घटनाओं का संबंध है कि उनकी स्मृति मात्र से अपना संपूर्ण इतिहास चलचित्र की भांति आंखों के सामने से गुजर जाता है। इतना ही नहीं, भारत-भूमि में कहीं भी कोई स्थान मिला, जिसका प्राकृतिक सौंदर्य हमारी हत्तंत्री के तारों को झंकृत करके हमारे अंत:करण में कोमल एवं उच्च भावों की सृष्टि करता हो अथवा जिस स्थान का संबंध हमारे पूर्व पुरुषों, हमारे आदर्श एवं आराध्य राम और कृष्ण अथवा किसी भी महापुरुष के साथ हो, जिससे हमारे राष्ट्रीय इतिहास का घटना-चक्र हमारे मनश्चक्षु के सम्मुख खिंच जाए, बस उसी स्थान को तीर्थ का स्वरूप मिल गया। वहां यात्राएं प्रारंभ हो गईं, मेले लगने लगे और ये मेले और यात्राएं हमारे जीवन का अंग बन गईं। हृदय की जो श्रद्धा आज भी लाखों-करोड़ों लोगों को सब प्रकार का कष्ट झेलकर माघ में ठिठुरते जाड़े में कुंभ के मेले में स्नान करने को प्रेरित करती है, उसका स्रोत बहुत गहरा है। उस महात्मा का राष्ट्र कितना आभारी होगा, जिसने यह श्रद्धा निर्माण करनेवाले संस्कारों की नींव डाली? ये कुंभ के मेले क्या हैं, मानो घूमते-फिरते राष्ट्रीय विद्यालय हों, राष्ट्रीय सम्मेलन हों जो कि भारत के चार प्रमुख स्थानों-हरिद्वार, प्रयाग, उज्जयिनी और नासिक के प्रति तीसरे वर्ष होते रहते हैं। लाखों की संख्या में साधु-संन्यासी वहां आते हैं और करोड़ों की संख्या में जनता एकत्र होकर उनके दर्शन और उपदेशों से अपने हृदय के कल्मष को धोकर जीवन के पावित्र्य का अनुभव करती है। जहां सभी संप्रदायों के लोग इस प्रकार प्रति तीसरे वर्ष एकत्र होते रहते हैं, वहां भारत की समन्वयात्मक जलवायु में एकात्मकता का निर्माण हुए बिना रह ही नहीं सकता।

राष्ट्रीयता-पोषक संस्कार

अपने दिन प्रतिदिन के व्यवहार में भी यह राष्ट्रीयता की भावना पुष्ट होती रही, इसके लिए दैनिक आचरण में भी राष्ट्र-भावना के पोषक संस्कारों का समावेश कर दिया गया था। प्रात: उठते ही, भूमि पर चरण रखते ही, अत्यंत विनीत भाव से हिंदू माता को नमस्कार करता हुआ कहता है :

समुद्र बसने देवि, पर्वतस्तनमण्डले।
विष्णुपनि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शम् क्षमस्व मे॥

वही संपूर्ण भारत का चित्र और उसके सम्मुख हृदय की संपूर्ण श्रद्धा ही मानो छलकी पड़ती हो। फिर जो प्रातः स्मरण करता हो, वह तो एक के बाद एक अपने पूर्वजों का स्मरण करते हुए उनके समान बनने की अभिलाषा मन में करता है। उस प्रातः स्मरण में प्रांत और संप्रदाय की संकुचित भावना का स्थान नहीं है, वहां तो शत-प्रतिशत विशुद्ध राष्ट्रीयता की ही भावना है। स्नान करते समय अथवा संकल्प के लिए जल लेकर जब हम कहते हैं-

गङ्गे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति।
नर्मदे सिन्धु कावेरि जलेस्मिन् सन्निधि कुरु॥

तब भारत की समग्र पवित्र नदियों का आह्वान कर लेते हैं। इन्हीं नदियों के समान ही सात वन और सात पर्वत, चार सरोवरों को जो कि संपूर्ण भारत में फैले हुए हैं, हमने अपने जीवन के महत्त्व का स्थान दिया है।

समन्वयकारक उपासना

समस्त संप्रदायों के लोगों में एकता स्थापित करने के लिए ही हमारे यहां त्रिमूर्ति की कल्पना की गई, जिसके अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और महेश एक ही परब्रह्म के भिन्न स्वरूप हैं। शैव और वैष्णवों में किसी भी प्रकार का विरोध न रहे, इसीलिए तो पुराणकारों ने शिव और विष्णु को एक-दूसरे का भक्त बना दिया। शिव यदि विष्णु की उपासना में लीन तथा विष्णु के चरण कमल से निकली हुई गंगा को धारण किए हुए हैं तो विष्णु के अवतार राम भी बिना शिव की आराधना किए हुए तथा श्रीरामेश्वर के मंदिर की स्थापना किए हुए अपनी विजय-यात्रा में आगे नहीं बढ़ते। अपने वरदान के कारण जब शिवजी भस्मासुर और रावण जैसे राक्षसों से संत्रस्त होते हैं, भगवान् विष्णु ही उनकी सहायता को दौड़ते हैं। गणपति और शक्ति का तो भगवान् शिव से कौटुंबिक संबंध जोड़ दिया है। इस प्रकार सब संप्रदायों के आराध्य देवों को एक-दूसरे से संबंधित करके हमारे पुराणकारों ने पारस्परिक प्रेम और सौजन्यता का बीज बोया है। श्री शंकराचार्य ने तो ‘पंचायतन’ की पद्धति चलाकर इस संबंध को और भी सुदृढ़ कर दिया। इसके अनुसार प्रत्येक पांचों देवताओं–विष्णु, शिव, शक्ति, गणपति और सूर्य की पूजा करता है। इस समन्वयात्मक प्रवृत्ति और सहिष्णुता की वृत्ति का ही परिणाम है कि भारतीय सदा से प्रेम और सौहार्द से रहते आए हैं।

कर्म-भक्ति-ज्ञान का समन्वय

कर्म, भक्ति और ज्ञान की तीनों धाराओं का भी समन्वय हम पाते हैं। भगवान् कृष्ण ने स्वयं ही गीता में इन तीनों को सुंदर समन्वय कर दिया था और गीता का इस युग में अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान हो गया था। स्वयं शंकराचार्य ने अपने जीवन में ज्ञान, कर्म और भक्ति का सुंदर समन्वय किया। उन्हीं के प्रयत्नों के कारण प्रस्थान-त्रयी को मान्यता प्राप्त हो गई। प्रस्थान-त्रयी को महत्त्व देकर जहां एक ओर वेद-विरोधी दुराग्रह से मुक्ति पा ली, वहां वेदों की आत्मा को भी उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और गीता के ज्ञान द्वारा जीवित रखा।

सम्राटों के सत्प्रयास

भारत की इस अखंडता और एकता को स्थूल स्वरूप देने के लिए एक के बाद एक सम्राट् हुए, जिन्होंने एकच्छत्र चातुरंत साम्राज्य स्थापित किए। सम्राट् चंद्रगुप्त’ से लेकर हर्ष और पुलकेशी’ तक अनेकानेक सम्राटों ने भारत की इस एकसूत्रता को बनाए रखने का प्रयत्न किया। इतना ही नहीं, भारत के एक-जीवन को मानो संसार के सामने प्रकट करने के लिए जब-जब उत्तर में विदेशियों का आघात हुआ हो, तब-तब केवल उत्तर ही नहीं, दक्षिण को भी मर्मातक पीड़ा पहुंची। सिर पर चोट लगते ही जैसे संपूर्ण शरीर की शक्तियां प्रतिकार करने को उद्यत हो जाती हैं, उसी प्रकार उत्तर में शक और हूणों के आक्रमणों का प्रतिरोध दक्षिण से आनेवाले शकारि विक्रमादित्य और यशोधर्मन की शक्तियों ने किया। इस प्रकार सुख और दुःख, जय और पराजय, वैभव और पराभव में जो एकता और अभिन्नता प्रकट की गई, उसने हमारे राष्ट्र को एक जीवन के सूत्र में संगठित कर दिया।

साहित्यकारों के प्रयास

हमारे साहित्यकारों ने भी राष्ट्र की इस एकात्मता को ही वाणी का परिधान पहनाकर जन-समाज के सम्मुख उपस्थित किया। रामायण और महाभारत हमारे राष्ट्र के साहित्य की अमूल्य संपत्ति बन गए। भगवान् राम और कृष्ण का चरित्र आदर्श के रूप में राष्ट्र के सामने उपस्थित हुआ। इसके जीवन में हिंदू समाज ने अपनी हृदय की भावनाओं का व्यक्तिकरण पाया। हमारे साहित्यकारों ने भी राष्ट्र की श्रद्धा के इन केंद्रों के प्रति अपनी श्रद्धा के दो फूल चढ़ाकर आत्मसुख का अनुभव किया तथा जनता की इस श्रद्धा को अमन बनाया। साहित्यकारों के प्रयत्नों के परिणामस्वरूप ही संपूर्ण देश में वेदवाणी संस्कृत, देवी भारती का समान रूप से आदर होने लगा। भारत की प्रांतीय भाषाएं प्राकृत होते हुए भी संस्कृत हमारी राष्ट्र-भाषा बनकर हमारे विचार-विनिमय, भावना-प्रदर्शन, पवित्र संस्कार तथा ज्ञान-विज्ञान के प्रकार का साधन बनी और सबने इसके कलेवर को समान रूप से पुष्ट किया।

नीतिकार और स्मृतिकार

हमारे नीतिकार और स्मृतिकारों ने भी हमारी इस एकता की भावना को बढ़ाने में बड़ी सहायता की। महर्षि चाणक्य ने जहां एक ओर ‘पृथिव्यै समुद्रपर्यंताया एकराट्’ के प्राचीन आदर्श को सत्य सृष्टि में परिणत करने के लिए सम्राट् चंद्रगुप्त को प्रेरित किया, वहां दूसरी ओर राजनीति और अर्थशास्त्र के गूढ़तम नियमों की रचना करके राष्ट्र की एकसूत्रता बनाए रखने का प्रबंध कर दिया। कौन अपना है और कौन पराया, इसका ठीक-ठाक ज्ञान भी राष्ट्रत्व की भावना के लिए द्योतक होता है और फिर परायों से विजित होकर न रहने की भावना तथा अपने जीवन को बनाए रखने का आग्रह तो इस भावना को और भी पुष्ट करता है। हम अपने नीति-साहित्य में यह भावना सर्वत्र पाते हैं। जब महर्षि चाणक्य ने घोषणा की कि ‘नत्वेवार्यस्य दास्य भावः’, तब मानो राष्ट्र का स्वाभिमान ही पुकार उठा था। दासत्व की कल्पना के पीछे राष्ट्रत्व के अस्तित्व का भाव तथा दासत्व से घृणा में राष्ट्र का स्वाभिमान अंतर्निहित है। हमारी यह भावना बराबर बनी रही है कि हम स्वयं अपने स्वामी बनें और ईश्वरदत्त देश आर्यावर्त में हम स्वतंत्रतापूर्वक रह सकें। यह एक ऐसी भावना है, जो राजनीतिक है और भौगोलिक भी। इसके अनुसार लोग आरंभ से ही समझते रहे हैं कि आर्यावर्त में हिंदुओं का ही राज्य होना चाहिए। इसका उल्लेख मानव धर्म-शास्त्र (2, 22, 23) तक में है और यह भावना पतंजलि के समय से मेधातिथि’ (आक्रम्याक्रम्य न चिरंतत्र म्लेच्छाः स्थातारो भवन्ति) और बीसलदेव तक बराबर लोगों के मन में जीवित रही है। आर्यावर्त यथार्थ पुनरीय कृतवान तत्त्वज्ञों ने अत्यंत पुष्ट किया। मनुस्मृति में तो संपूर्ण भारतवर्ष का वर्णन करके इसको पुण्यभूमि के नाम से अभिहित किया है तथा शेष संपूर्ण को मलेच्छ कहा है। ‘भारतं नाम तद्वर्ष भारती यत्र सन्ततिः’ जैसे वाक्य भारत देश और उसके जन-समह की आत्मा का ही दिग्दर्शन कराते हैं। इसी संतति का वर्णन करते हुए मनु ने कहा है

एतदेश प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन, पृथिव्यां सर्वमानवाः।।

और इस पुरुस्थान के योग्य चरित्र की महत्ता प्राप्त करने के निमित्त जब अपने नियमों की रचना की तो संपूर्ण देश ने अपने मन में महत्त्वाकांक्षा लेकर उन नियमों का एक सा पालन किया। भारत की संपूर्ण जनता ने अपने आचार-विचारों को स्मृतिकारों के मापदंड से नापा और एकता के ढांचे में ढालनेवाले इन संस्कारों को अपने जीवन में स्थान दिया। परिणामतः संपूर्ण भारत में एक रीति-नीति, एक नियम, उपनियम और एक व्यवहार की सृष्टि हुई। इन्हीं नीतिकारों ने हमारी ग्राम पंचायतों को जन्म दिया, जिनका स्वरूप संपूर्ण भारत में एक सा था, जिन्होंने ऊपर के शासन में परिवर्तन होते हुए भी भारतीय आत्मा की स्वतंत्रता और एकात्मता को बनाए रखा।

इस प्रकार प्रत्येक क्षेत्र में राष्ट्र की आत्मा का सर्वांगीण विकास हुआ तथा वह अत्यंत बलवती बनी। भारतवर्ष के एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक फैला हुआ संपूर्ण हिंदू समाज, समान विचारधारा एवं समान कर्तव्य से समन्वित होकर, जीवन की एकरसता से परिपूर्ण होकर एक सांस्कृतिक आधार पर अखंड राष्ट्रीयता के पक्के रंग में रंग गया। इन्हीं प्रयत्नों के परिणामस्वरूप देश की जो एक राष्ट्रीयता परिपक्व रूप में प्राप्त हुई, वह पीछे के राजनीतिक पराजय के काल में भी अक्षुण्ण बनी रही। ईसा की आठवीं शताब्दी के प्रारंभ में अरब से जो एक आंधी उठी थी, उसने यूनान, मिस्र, स्पेन और फारस आदि बड़े-बड़े राष्ट्रों को सदा के लिए उड़ा दिया, परंतु भारतवर्ष में आकर वह समुद्र-तट के एक कोने से टकराकर लौट गई। इसके पश्चात् के आक्रमणकारियों को भी सारे समाज ने एकमत से अपना शत्रु माना और उनसे देश को मुक्त करने के प्रयत्न स्थान-स्थान पर चलते रहे। यही नहीं, आज के युग में भी वही संस्कृति हमारे हृदय में जाग रही है। ‘हिंदू’ शब्द का उच्चारण करने के साथ ही एक हिंदू का दूसरे हिंदू के रक्त के बिंदु-बिंदु से मानो तादात्म्य हो जाता है। इसी अखंड राष्ट्रीयता का आज हमें पुनः आह्वान करना होगा और सिंधु से ब्रह्मपुत्र तक एवं सेतुबंध से हिमाचल के सारे उपांगों तक विस्तृत भारत-भूमि को गौरव तथा स्वाभिमान प्राप्त कराने के लिए अपने त्यागपूर्ण एवं कर्मठ पूर्वजों के प्रयत्नों की परंपरा को अपनाना होगा।

                                                                                                                                                         (-पाञ्चजन्य, अक्तूबर 31, 1959)