समृद्धि की मर्यादा

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दीनदयाल उपाध्याय

विष्य पुराण में लिखा है कि यह समाज एक ही पिता, प्रजापति, ब्रह्मा या विराट् ने बनाया है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र एक ही शरीर के विभिन्न अंग हैं। कर्तव्य और कर्म, बेशक अलग-अलग होते हैं। पैर यदि सर से कहने लगे कि महाराज, जरा चलकर बताओ, तो इससे काम बिगड़ जाता है। वास्तव में यह समाज शरीर तो आत्मीयता के आधार पर खड़ा है। सर को पगड़ी पहनाते हैं तो पैरों की पूजा भी होती है। भगवान् की चरण रज से तो अहल्या का उद्धार हो गया। हमने तो उनके चरणों की पूजा की है। सर की नहीं। लाठी सर पर ही पड़ती है, मुकुट पहनकर सर पैरों को चिढ़ाए तो वह भी ग़लत होगा। अत: यह भेद नहीं। व्यवस्था है, बंधन नहीं। छोटे-बड़े का प्रश्न ही नहीं उठता है। जीवन धारण करने के लिए अर्थ पैदा करना पड़ता है, इसीलिए यह व्यवस्था है।

अंग्रेजों ने अपनी अर्थनीति द्वारा यहां की परंपराओं में मैनचेस्टर के कारख़ाने चलाकर बिगाड़ उत्पन्न किया। कारीगरों के हाथ कटवा लिए। उनका धंधा छीना गया। बाक़ी लोग तो नौकरी करने लगे। शूद्रों ने सोचा कि हमारा धंधा छीनने का कारण अंग्रेज़ नहीं, ये बड़े लोग हैं। अंग्रेजों ने भी यही प्रचार किया। हमें मौक़ा दिया तो उन्होंने शोषण कर दिया। यह व्यवस्था इस दृष्टिकोण को लेकर चलती है कि सबको मेहनत का अधिकार है। प्रतिदान के रूप में कुछ प्राप्त होता है तो किसी को स्वयं को छोटा समझने का कोई कारण नहीं।

रोज़ी का विचार तो हो गया, अब रोटी की व्यवस्था हमारे यहां अलग है। काम करना अपना धर्म है। बदले में अर्थ मिलता ही है, रोटी का उससे कोई संबंध नहीं है। वह व्यवस्था तो भगवान् के हाथ में है। पैदा हुए हैं तो रोटी मिलेगी ही। दांत नहीं थे तो उसने दूध दिया और जब दांत दिए हैं तो रोटी भी देगा। इसी बात के अनुसार समाज को व्यवस्था करनी पड़ती है। कुटुंब पद्धति इसी व्यवस्था का परिणाम है। रोगी और अपाहिज को कौन रोटी देगा? कमाने के लिए तो जीवन में मुश्किल से पच्चीस-तीस वर्ष मिलते हैं। पश्चिम में इसके लिए यांत्रिक ढंग से व्यवस्था है। वृद्धावस्था, बीमारी, रोजगार, बीमा आदि की व्यवस्था करते हैं। यहां पर यह जिम्मेदारी कुटुंब पर है। यतीमखानों के लिए हमारी जीवन व्यवस्था में कोई स्थान नहीं है। पिता मर गया तो कुटुंब संभाल करता है। इसी आधार पर हमने सोचा कि बूढ़े पिता को खिलाएगा कौन? इसका संबंध उसके काम करने या न करने से नहीं। रोटी और रोजी-ये दो अलग-अलग क्षेत्र हैं। जो बेकार हैं, उसे भी कुटुंब रोटी देगा। घर के सब लोग इस आत्मीयता के आधार पर ही खड़े होंगे तो अर्थव्यवस्था का मूलाधार प्राप्त हो जाएगा। यह बात समाजशास्त्र में भी आई है। यह विषय अर्थशास्त्र से ही नहीं तो सामाजिकता से भी संबंध रखता है।

अर्थ पुरुषार्थ के साथ राज्य भी आता है। वार्ता और दंडनीति, यह अर्थशास्त्र का विषय है। वार्तामूलेयं जगत्’। लोक और वार्ता की चिंता राजा को करनी चाहिए। यह राजा भी कहां से और कैसे आया? पहले दंड नहीं था, दांडिक नहीं था। धर्म के आधार पर समाज चलता था। जब राजा को मोह आया, तो काम प्रबल हुआ। फिर बुद्धि भेद आया तो धर्म का लोप हो गया। मत्स्य न्याय का दृश्य खड़ा हो गया। तब ऋषि लोग मनु के पास गए और प्रार्थना की कि आप दंडधर बनिए। उन्होंने कहा कि उसमें लोगों को सताना पड़ेगा। अतः मैं नहीं बनूंगा। तब बताया गया, राजा बनने के कारण प्रजा के पुण्यों के भी आप भागी होंगे। विचार करके देखा जाए तो राजा समाज के लिए आवश्यक है। प्रजा को दबाकर रखेंगा इस दृष्टि से नहीं, तो धर्म का पालन करने के लिए होता है। संपूर्ण इतिहास में जब-जब भी राज्य क्रांतियां हुईं, तो इसी कारण कि राजा ने धर्म का पालन नहीं किया और फिर धर्म में निष्ठा रखने वाले साधु-महात्माओं की प्रेरणा से ये क्रांतिकारी खड़े हुए। दुर्योधन को युधिष्ठिर ने हराया तो कृष्ण की प्रेरणा थी। भगवान् राम ने रावण को केवल सीता-अपहरण के कारण नहीं मारा तो यह भी ऋषि-मुनियों की योजना थी। चाणक्य की प्रेरणा से नंद वंश का उच्छेद और धर्म प्रतिष्ठापना के लिए चंद्रगुप्त खड़ा हुआ। विजयनगर साम्राज्य के पीछे विद्यारण्य स्वामी की प्रेरणा थी। शिवाजी भी समर्थ गुरु रामदास की योजना से ही खड़े हुए। ये लोग राज्य करने को नहीं, धर्म की प्रतिष्ठा के लिए अग्रसर हुए थे। जिसने राज्य के लिए राज्य किया, वह जनमानस में अच्छा नहीं समझा गया। धर्म को सर्वोपरि स्थान दिया जाता है।

पश्चिम में राजा ही मालिक होता है। गणतंत्र के अनुसार यह प्रभुता या सर्वोच्च सत्ता जनता के पास होती है। हमने कहा, ‘प्रभुता न राजा के पास होती है और न जनता के पास, बल्कि धर्म के पास होती है।’ धर्म के अनुसार चलने वाली प्रजा को राजा दंड नहीं दे सकता और प्रजा भी मनमानी नहीं कर सकती। चालीस चोरों ने एक कोतवाल को चुन लिया तो काम नहीं चलेगा। जैसे चोरों को कोतवाल चुनने का अधिकार नहीं होता, उसी प्रकार कोतवाल को भी ईमानदारों को दंड देने का अधिकार नहीं। धर्म की स्थापना करने के लिए ऋषि-मुनियों ने राजा वेन को हराकर उसी की जंघा से रगड़कर पृथु पैदा किया। उसी के नाम पर पृथ्वी बनी। हमारे यहां राज्याभिषेक के समय एक पद्धति है-राजा जब गद्दी पर बैठता है तो तीन बार ‘अदण्ड्योऽस्मि’ कहता है, तब राजपुरोहित उसे पलाश दंड से मारता हुआ कहता है कि ‘धर्मदण्ड्योऽसि’। यदि राजा विष्णु का अवतार है तो जनता भी जनार्दन का स्वरूप है।

यह मूल चीज़ हमने समझ ली तो बाक़ी दैनिक जीवन की बातें तो अपने आप कर लेंगे। उत्पादन, अर्थ, भोग-ये धर्म के अंतर्गत आते हैं। यह धर्म ही आधारभूत पुरुषार्थ हैं। उसी का चिंतन और प्रतिष्ठापन संस्कारों द्वारा करते हुए स्वजीवन में लाने की आवश्यकता है। संघ ने कहा कि हमें इसी धर्म का संरक्षण करना है। महाभारत में व्यास ने सार स्वरूप एक ही बात कही है :

वदेषां धर्म सर्वस्व कृत्वा चैवाव धर्मताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्॥

तात्पर्य यह है कि धर्म के साथ दूसरों के साथ आत्मीयता का भाव आ जाता है। अपने से प्रतिकूल किससे व्यवहार नहीं करना पड़ता है। सहिष्णुता सेवा, त्याग सब आत्मीयता से उत्पन्न होते हैं।

धर्म के दस लक्षण

धृतिः क्षमा-दमोस्तेयं शौचमिन्द्रिय-निग्रहै।
धीविद्या सत्यमक्रोधः दशकं धर्म लक्षणः॥

इसी आत्मीयता में से पैदा होते हैं। जहां मैं का विचार होता है और व्यक्ति स्वार्थ प्रधान होता है, वहां अधर्म होता है। (एक सज्जन के यहां पूरियां बनने का दृष्टांत शुद्ध देसी घी का प्रयोग) सज्जन ने कहा कि घी अपनी ही दुकान का होने के कारण शुद्ध है। मैंने कहा कि शेष चीजें तो अशुद्ध हैं। आटा, मसाले, वगैरह में मिलावट है। एक चीज़ शुद्ध खाने के लिए बाक़ी चीजें अशुद्ध खानी पड़ती हैं। अतः अपने से प्रतिकूल विचार भी नहीं करना चाहिए। भगवान् ने दूसरों को भी मुंह दिया है। जब हमें मिलावट पसंद नहीं तो दूसरों को भी नहीं होगी। इसी विचार में धर्म का आधार है।

राष्ट्र के साथ आत्मीयता के आधार पर हम विचार करें, यही मूल तत्त्व है। आत्मीयता पैदा कर लेना संस्कारों में आता है। परिवार और पड़ोस के साथ-साथ मन में संस्कार हैं, तो संपूर्ण समाज के साथ एक एकात्मता का अनुभव कर सकते हैं। हम थोड़ा सा ज्ञान और बुद्धि के साथ विचार करें कि राष्ट्र के साथ एकात्मता चाहिए। राष्ट्र के लिए सोचना चाहिए, विचार को लेकर खड़े होते ही कुछ चिंताएं करनी पड़ेगी। उपनिषद् में एक कथा आती है, जिसमें प्राणेंद्रिय का अन्य इंद्रियों के मुक़ाबले में सबसे अधिक महत्त्व सिद्ध होता है। प्राण अर्थात् धर्म, यही राष्ट्रभाव है। समाज का प्राण हमारा प्राण है, यह ध्यान रहा तो सब ठीक चलेगा।

संघ के जन्मदाता ने सोचा कि राष्ट्र में यही प्राण फेंकना है। विभिन्न समस्याओं को देखकर जाति-पांति तोड़क मंडल बनाया, किसी ने वर्णाश्रम संघ बनाया। हम विचार करें कि जाति तो हमारे समाज शरीर का अंग है। अतः हाथ-पैर तोडक मंडल तो नहीं बनाया जा सकता और केवल विज्ञान के किसी सिद्धांत को सिद्ध कर देने से भी काम नहीं चलता। यदि पेड़ में फूल आ गया तो फिर क्या सोचना? परंतु लोग इसके लिए भी आयोजन करते हैं कि किस स्थान पर कितने फूल आएंगे-उसके लिए कमीशन बैठाते हैं। जो अंग बेकार होता है, वह पतझड़ में अपने आप टूट जाता है। उसके बारे में योजना बनाना आवश्यक नहीं होता। रूढ़ियां जो उपयोगी नहीं हैं, अपने आप समाप्त हो जाती हैं। शरीर में से अनेक बाल उड़ जाते हैं और नए आ जाते हैं। सांप अपनी केंचुली उतारकर फेंक देता है, उसके लिए योजना नहीं करता। मुख्य भाव तो जीवन और धर्म का है। राष्ट्र में प्राण पैदा करना ही अपना काम है। प्राण को बलवान करने के लिए प्राणायाम करना पड़ता है। संपूर्ण राष्ट्र का प्राणायाम यह संघ दिन-प्रतिदिन शाखा के रूप में करता है।

लोग कहते हैं, संघ कम-से-कम घी की एक दुकान तो खोल दे, अथवा स्कूलों में बड़ी गड़बड़ी है, अपने अध्यापक भेज दें। आजकल कम्युनिस्ट साहित्य बहुत आता है, उसको रोक दे। राजनीति में कूटकर सब ठीक कर दे। अमरीका से अन्न मंगाना पड़ता है। स्वयंसेवकों को थल सेना के रूप में खड़े हो जाना चाहिए। एक बार आत्मनिर्भर हो गए तो सब ठीक हो जाएगा। उनको लद्दाख के क्षेत्र में जाकर चीन का मुक़ाबला करना चाहिए। अपने मन में यह बस आता होगा। यदि हम जाएं तो फिर क्या सेना को ख़त्म कर देना चाहिए? व्यापारियों को निवारक निरोध के अंतर्गत जेल भेज दें। अध्यापकों को घर बैठा दें? यह सब करने के लिए उतने स्वयंसेवक भी तो चाहिए। काम तो राष्ट्र को ही करना पड़ेगा। व्यापारी, सैनिक, राज्यकर्ता यह सब राष्ट्र भाव से काम करें-संघ किसी दल के रूप में तो नहीं है। हाथ-पैर को ताक़त देने से नहीं, राष्ट्र को ताक़त देने से काम चलेगा। राष्ट्र के तो हजारों अंग हैं। छोटी-छोटी चीजों में भी राष्ट्रभाव दिख सकता है। यदि इसके पीछे शक्ति और स्वाभिमान भरकर चैतन्ययुक्त सामर्थ्य रूप में बना दिया, तो प्रत्येक अंग को शक्तिसंपन्न बनाकर कार्य कर सकेंगे। फिर इधर-उधर की चिंता करने की आवश्यकता नहीं। यह धर्मभाव ही राष्ट्रभाव है, राष्ट्रप्राण है, प्राणायाम की महत्ता को समझकर हम संपूर्ण शक्ति लगाएं। अन्य चीजें तो अपने आप प्राप्त हो जाएंगी।

समाप्त
(संघ शिक्षा वर्ग, बौद्धिक वर्ग: नई दिल्ली )
(-पाञ्चजन्य, -जून 11, 1960)