राष्ट्रवाद को कोई वाद मिटा नहीं सका

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दीनदयाल उपाध्याय

भारतीय संस्कृति एवं मर्यादाओं को छोड़कर यदि हमारा जीवन अथवा यहां की राजनीति चली तो हमारा कल्याण नहीं हो सकता। इससे न तो हमारा ही हित-साधन होगा, न ही स्वराज्य को साकार कर सकेंगे। भारतीय संस्कृति के नाम पर आज देश में भ्रम एवं अज्ञान व्याप्त है। यह सही है कि संस्कृति शब्द की व्याख्या एक कठिन काम है। इस दृष्टि से अपने देश में तथा बाहर भी प्रयत्न हुए हैं, पर पूर्ण सफलता प्राप्त होती दिखाई नहीं दी है, संस्कृति की व्याख्या आत्मा की व्याख्या के अनुरूप ही कठिन कार्य है। इस कठिनाई के कारण कई विचारक ऐसा अनुभव करते हैं कि आत्मा जैसी कोई वस्तु है ही नहीं, यही बात संस्कृति के संबंध में भी लागू की जाती है।

भौगोलिक एवं ऐतिहासिक कारणों से कुछ भिन्नताएं ऐसी हैं, जो मानव समाज के एक अंग में दृष्टिगत होती हैं, कुछ लोगों का ऐसा कहना है कि अब भौगोलिक दूरी कम होती जा रही है तथा संपूर्ण मानव-समाज एक-दूसरे के अधिक निकट आता जा रहा है। इससे भिन्न संस्कृतियों जैसी कोई वस्तु न रहकर मानव संस्कृति ही रहेगी। इस स्थिति का विवेचन भी एक कठिन कार्य है आज राष्ट्रों के बीच ऐसे दूरगामी गहरे अंतर हैं, जो जीवन के संपूर्ण दृष्टिकोण से संबंध रखते हैं। आगे यह स्थिति बदल जाएगी, ऐसा दिखाई भी नहीं देता है।

राष्ट्रीय हितों की पूर्ति का प्रश्न

संपूर्ण मानव-समाज को एक आधार पर खड़े करने के प्रयत्न हुए हैं, परंतु राष्ट्रवाद की भित्ति से टकराकर वे असफल सिद्ध हुए हैं, ईसाइयत का प्रयत्न भी एक ऐसा ही प्रयत्न था। वह राष्ट्र नहीं मानती, संपूर्ण मानव को ईसाइयत के आधार पर एक करना चाहती थी, परंतु राष्ट्रवाद की टक्कर में ईसाइयत पीछे पड़ गई। एक ही मतावलंबी होने के पश्चात् भी आज यूरोप में भिन्न राष्ट्र खड़े हैं। राष्ट्रीय हितों की पूर्ति का जब भी प्रश्न उठा, ईसाइयत गौण हो गई।

इसलाम का प्रयत्न भी कुछ ऐसा ही हुआ, इसलाम भी राष्ट्र नहीं मानता। संसार के लोगों को इसलाम के आधार पर बांधने के प्रयास हुए हैं, इसलाम एवं गैर-इसलाम यही एक अंतर माना गया, परंतु यह तर्क व्यवहार में चल नहीं पाया। पश्चिम एशिया के अरब देशों में अब राष्ट्रवाद प्रमुख हो गया है। मुसलिम शासक पहले खलीफा के नाम पर शासन करते थे परंतु स्वयं तुर्की ने अपने यहां से खलीफा को निकाल बाहर किया। ईरान, अफगानिस्तान, मिस्र, सीरिया आदि में आज राष्ट्रवाद ही प्रमुख हो रहा है । इजराइल एक यहूदी राष्ट्र है, जिसका अरबों से परंपरागत धार्मिक झगड़ा है, परंतु फिर भी तुर्कों ने इसे राजनीतिक मान्यता प्रदान कर दी, राजनीति में उन्होंने धर्म को पीछे छोड़ दिया।

अनेक देशों में जीवन की रचना, विकास, सामाजिक संबंध, साहित्य, राजनीति आदि पर इसलाम का प्रभाव न होकर उनकी परंपराओं का पड़ा है। इंडोनेशिया में इसलाम का प्रभाव होते हुए भी वहां की परंपरा एवं संस्कृति पूर्णतया भिन्न है। पाकिस्तान की जीवन रचना में नारा भले ही इसलाम का लगाया गया हो किंतु वहां परंपरा का प्रभाव पड़ा है। कठमुल्लाओं को यदि छोड़ दिया जाए तो सामान्य समाज एक स्तर पर आ रहा है। प्राचीनकाल में महमूद गजनवी एक पक्का मुसलमान समझा जाता था, वह मूर्ति-भंजक था। सोमनाथ के प्रसिद्ध मंदिर का विध्वंस उसी ने किया था, किंतु जब उसने फिरदौसी से अपना इतिहास लिखवाया तो वह इतिहास इसलाम का नहीं बना। उसने रुस्तम और सोहराब के गीत गवाए, जो मुसलमान नहीं थे। पाकिस्तान की सरकार ने भी पाकिस्तान के 5000 वर्ष नामक एक पुस्तक छपाई है, इसमें मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा का इतिहास लिखा गया है, राजा दाहिर की वीरता के गुणगान गाए गए।

राजा पुरु के पराक्रम का भी वर्णन है, विदेशियों के आक्रमण का भी चित्रण है। यह हो सकता है कि इसमें भाषा के प्रयोग में अंतर रहा हो, परंतु भाव परंपरागत है। पाकिस्तान बनने के पूर्व तक बंगाल में उर्दू भाषा के लिए आंदोलन किया गया, परंतु अंत में उन्होंने अपनी बंगला भाषा को ही स्वीकार किया है। पुरातन-परंपरा प्रमुख नहीं, ऐसा सोचना अस्वाभाविक होगा।

कम्युनिज्म रूसी राष्ट्रवाद का नारा

आज के समय में साम्यवाद के नाम पर ऐसा प्रयत्न चला है। वास्तव में तो इस व्यवस्था को साम्यवाद नाम देना ही उचित नहीं। कम्युनिज्म राष्ट्रवाद को नहीं मानता, शोषक एवं शोषित के आधार पर उन्होंने समाज का वर्गीकरण करना चाहा, परंतु वह चल नहीं पाया। स्वयं लेनिन को अपने देश के लिए मार्क्स के सिद्धांतों की व्याख्या अपने अनुरूप करनी पड़ी। आज कम्युनिज्म रूसी राष्ट्रवाद का हथियार बन गया है। वह दूसरे देशों के राष्ट्रवाद से टकराया है। चीन एवं रूस के मनमुटाव का कारण राष्ट्रवाद है। युगोस्लाविया का पृथकीकरण, हंगरी एवं पोलैंड के विद्रोह पृथक् राष्ट्रवाद की झलक हैं, आज जो मेल है, वह अधीनता के कारण है।

संस्कृति जीवन का एक दार्शनिक दृष्टिकोण है

राष्ट्रवाद एक शक्ति है, आंखें बंद करके उसको न मानना अनुचित है। उसी आधार पर संस्कृति जीवन का दृष्टिकोण है, जिसके मूल में सदैव दर्शन रहता है। हमारे यहां इस पर गंभीर रूप से विचार हुआ है। सत्य क्या है, इसकी खोज में हमारे लोग लगे रहे हैं। हमने जीवन में मोटे रूप से चार सत्ताएं मानी हैं-1. व्यष्टि (प्राणी), 2. सृष्टि (प्रकृति), 3. समष्टि (समाज), 4. परमेष्टि (ईश्वर-ब्रह्म)। जहां तक चौथी सत्ता का प्रश्न है, इस संबंध में मतभेद रहे हैं। कुछ मानते हैं, कुछ नहीं मानते, समष्टि का अर्थ समाज अधिक सरल है।

समाज का अर्थ भी आज कई रूप में लिया जाता है, दस लोग जहां एकत्र होते हैं। उसे भी समाज कहते हैं तथा संपूर्ण मानव समाज को भी समाज की संज्ञा दी जाती है। मानव की उत्पत्ति के संबंध में भी विचार हुआ है। हम डार्विन के सिद्धांत को नहीं मानते, जहां कि बंदर से सुधारकर मानव का निर्माण हुआ। हम यह भी नहीं मानते कि सबसे पहले आदम और हव्वा उत्पन्न हुए जिनकी कि संतान मनुष्य हैं। मनुष्य को भी एक अमैथुनिक सृष्टि है। मनुष्य समाज के रूप में एक साथ कई स्थानों पर पैदा हुआ। प्रत्येक समाज अपनी कुछ मूल प्रकृति लेकर उत्पन्न हुआ। वनस्पति की भी एक मूल प्रकृति होती है। आम की एक मूल प्रकृति है। बीज, खाद, वायु, पानी के कारण अंतर आता रहता है, परंतु मूल एक ही रहता है। समाज की भी एक मूल प्रकृति है। इस मूल प्रकृति को ही ‘चिति’ कहते हैं। हम सब एक हैं, यह क्यों कर लगता है, क्योंकि हमारी चिति एक है, चिति हो संस्कारयुक्त होकर संस्कृति बन जाती है, आज जो सांस्कृतिक भिन्नता दिखाई देती है, उसका कारण है कि मूल समाजों की चिति प्रकृति भिन्न थी। चिति तब समझ में आती है, जब परमानंद एवं परमवैभव की अनुभूति का आधार होता है, प्रेय एवं श्रेय का विवेचन किया जाता है, जीवन का परम सुख जहां मिलता है, वह समाज की चिति है।

(क्रमश:….)
-पाञ्चजन्य, सितंबर 3, 1962