संस्कार से उत्पन्न होता है संस्कृति का भाव

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दीनदयाल उपाध्याय

राष्ट्र, धर्म, संस्कृति-ये शब्द चिर-परिचित होते हुए भी इनकी व्याख्या भ्रम के कारण अनेक तरह की बनी है। यह भी सच है, सरल विषय की व्याख्या सदैव कठिन रहती है। शायद इसलिए लोगों को इनके बारे में कई विचार प्रस्तुत करने का अवकाश मिलता है। कई बार योजनानुसार भी ग़लत विचार प्रस्तुत किए जाते हैं। कई बार ख़राब चीज़ों को अच्छे नाम से जनता के सामने रखा जाता है, जैसेकि वनस्पति घी। वह तो साफ़ किया हुआ तेल है, लेकिन घी के नाम पर प्रचार किया जाता है। ‘साफ़ हुआ तेल’ ऐसा कहकर यदि वे बेचते तो वह एक अच्छी बात होती। जब एक मित्र से इसके बारे में पूछा, तो वह कहने लगा कि तेल कहने से कोई काम नहीं होता। ऐसे ही बिस्कुट बनाने वाले घी से बनाते हैं, ऐसे कहते हैं। शुद्ध या अशुद्ध इसके बारे में बोलना नहीं।

राष्ट्र के बारे में भी यह चल रहा है। राष्ट्र के बारे में जनता में एक तरह का प्रेम है, इसलिए उसके नाम पर कुछ भी चलाते हैं। हिंदू, क्रिश्चियन आदि सभी को राष्ट्रीय कहते हैं, प्रादेशिक राष्ट्रवाद (Territorial Nationalism) की बात चलती है। अकबर को भी राष्ट्रीय महापुरुष कहा जाता है।

वैसे ही संस्कृति है। संस्कृति अच्छी है, सभी मानते हैं। इसलिए कई चीजों को संस्कृति के नाम पर चलाते हैं; जैसे नाचना, गाना और लोग भी समझते हैं कि यही संस्कृति है। एक सज्जन से जब कहा गया कि संघ सांस्कृतिक कार्य करता है तो उसने कहा, ‘क्या बात कहते हैं? नाच-गाना, थियेटर आदि कभी हमने संघ में नहीं देखे। कबड्डी खेलना, संचलन (Marching) यह क्या संस्कृति है। तो मैंने पूछा, ‘आप नाचने को संस्कृति क्यों कहते हैं?’ इसलिए कि वहां ताल के अनुसार पांव पड़ते हैं और कर विन्यास भी एक नियम के अनुसार होता है। तो उन्होंने मान लिया। तो मैंने कहा कि हमारे यहां भी संचलन में सभी के पैर एक ही ताल पर पड़ते हैं, योग व्यायाम में सभी के हाथ ताल के अनुसार ही चलते हैं। माने संस्कृति के बारे में लोगों में स्पष्ट कल्पना नहीं है। नाच-गाने को संस्कृति समझते हैं और प्रचार भी चलता है। इसी कल्पना से हमारे यहां से सांस्कृतिक प्रतिनिधिमंडल दूसरे देशों को भेजे जाते हैं। विदेश के लोग जिनमें वैसी संस्कृति भी नहीं है, कह बैठते हैं कि यही आपकी संस्कृति है क्या?

यही संस्कृति होती तो तन-मन-धनपूर्वक आजीवन हम सांस्कृतिक कार्य करेंगे, ऐसा कहने की आवश्यकता नहीं होती। ऐसे सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए चौबीसों घंटे काम करने की आवश्यकता नहीं रहती।

अब हम संस्कृति के बारे में सोचने लगेंगे तो हमें मालूम होगा कि यह शब्द प्राचीन साहित्य में आज के अर्थ में नहीं मिलता है। शायद धर्म शब्द से तब सब कुछ चलता होगा, लेकिन हमें संस्कार शब्द और प्रकृति-यह शब्द भी वहां मिलते हैं। ये दोनों शब्द संस्कृति के साथ निकटता से संबद्ध हैं, ऐसा लगता है।
प्रकृति हर एक की भिन्न रहती है। प्रत्येक की एक प्रकृति रहती है। (उसे चाहे स्वभाव कहें, फिर भी वह ठीक अर्थ नहीं) हम समझते हैं कि वह ईश्वर की देन है और जो परमेश्वर को मानते हैं, वे उसे ही अंतिम सत्य मानते हैं। जैसे हम ब्रह्म और माया को अनंत सत्य मानते हैं। इसके बारे में भी भिन्न-अभिप्राय है ही, लेकिन हम समझते हैं कि प्रकृति ईश्वर की ओर से ही प्राप्त होती है और उसमें विविधता भी दिखाई देती है। उसके भी कुछ नियम हैं। उन नियमों के अनुसार ही प्रकृति की देन के रूप में ही मनुष्य को भौतिक शरीर प्राप्त होता है। इसके नियमों में परिवर्तन करना मनुष्य के लिए असंभव है।

प्रकृति का दूसरा लक्षण विविधता है। जितने प्रकार के मनुष्य हैं, उतनी प्रकार की प्रकृतियां दिखाई देती हैं। प्राणियों में भी विविधता है, वनस्पतियों में भी दिखाई देती है। एक कवि ने आश्चर्य से कहा कि इसका पता नहीं लगता है कि परमात्मा के पास कैसी कैंची है, क्योंकि कोई भी एक पत्ता दूसरे के समान नहीं है। कोई भी व्यक्ति एक-दूसरे की तरह नहीं है। दूर से एक समान भले ही क्यों न दिख पड़े। जैसे हमें सभी अंग्रेज़ एक समान दिखते हैं, लेकिन नजदीक आने पर भिन्नता मालूम होती है। मज़ाक में कहते हैं कि एक बार कनाडा में चार सिख गए। उनको लगा कि हम दाढ़ी मुंडाएं। इतवार को ही काम से छुट्टी मिलती थी और नाई की एक ही दुकान थी। तो एक-एक इतवार को एक-एक ने जाना तय किया। तदनुसार जाने लगे। जब चौथा आदमी चौथे इतवार को गया तो नाई ने असंतोष प्रकट करते हुए कहा कि यह कैसा आदमी है, इसकी तो एक ही सप्ताह में इतनी दाढ़ी उगती है।’ माने उसको उनमें भिन्नता मालूम नहीं हुई। ऐसा कहा जाता है कि दुनिया के दो सौ पचास करोड़ आदमियों में हर एक की आंखें अलग-अलग हैं। Finger Prints भी अलग हैं। इसलिए तो कहते हैं कि द्वंद्व में प्रतिपक्षी की आंखों को देखना चाहिए, क्योंकि आदमी का व्यक्तित्व आंखों से मालूम पड़ता है। ये सब प्रकृति के नियमों के अनुसार ही चलता है।

लेकिन इतनी विविधता से व्यक्ति का काम नहीं बनता। व्यक्ति-व्यक्ति को निकट आकर एक तरह का संबंध प्रतिष्ठापित करना पड़ता है। आपस में भेद होते हुए भी व्यक्ति एक-दूसरे के संपर्क में आता है। वह प्रकृति की एक प्रेरणा से निकट आता है, लेकिन अपने स्वार्थ के कारण उस प्राकृतिक सच को पहचानता नहीं। विविधता होते हुए भी आंतरिक प्रेरणा से व्यक्ति आपस में संबंध प्रतिष्ठापित करते हैं और वही संस्कृति है। प्रकृति से आगे जाकर जब मनुष्य कोई बात करता है तो वह संस्कृति कहलाती है। प्रकृति ईश्वर की देन है तो संस्कृति मानव की रचना है। मनुष्य इसे ढूंढ़कर निकालता है।

मनुष्यों में संबंध कैसे प्रतिष्ठापित होते हैं, इसमें तो मतभेद हैं। कोई कहता है, यह संबंध कुछ मूल प्रेरणा से होता है। एक पुरुष और एक स्त्री पति-पत्नी के संबंध में खड़े होते हैं। हमें ऐसा लगता है कि वे स्वयं निर्णय लेते हैं। यह वास्तविक बात है क्या? तो हमें ऐसा कहा गया है कि जिसका विवाह जिसके साथ होना चाहिए, यह पूर्व निश्चित ही है। उसमें उनके पूर्वजन्म के कर्म, प्रवृत्ति आदि सब मूल कारण हैं।

आगे जाकर हमने देखा तो हमें मालूम पड़ेगा कि समाज के भी कुछ नियम होते हैं। समाज के जो अंग हैं, उनको कैसा व्यवहार करना चाहिए-इसके बारे में नियम होते हैं। वे नियम कैसे बनते हैं। इसमें दो प्रकार की विचारधाराएं हैं। एक है पश्चिम की विचारधारा, जो रूसो ने बताई है। वह सामाजिक समझौते की विचारधारा (Social Contract Theory) जिसके अनुसार जब लोग एकत्र होते हैं तो अपने को एक-दूसरे को पूरक मानकर संबंध जोड़ लेते हैं, लेकिन हम इस विचारधारा को मानते नहीं। वे तो कहते हैं, किसान और कपड़ा बनाने वाला परस्पर पूरक है। पहले तो प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार कार्य करता है। लेकिन आगे चलकर वह पूरक के नाते कार्य करने लगता है।

अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वह कभी-कभी अकेला कार्य करता है, तो कभी-कभी सामूहिक रूप से कार्य करता है, लेकिन इसमें स्वार्थ सन्निहित है। कभी-कभी स्वार्थ त्याग दिख पड़ा तो भी वह केवल आगे लाभ उठाने के लिए डाला हुआ निवेश ही रहता है। जैसेकि व्यापारी एक बार ही खा-पीकर पैसा व्यापार में डालता है या किसान अगले साल के लिए बीज अलग सुरक्षित रखता है। कोई दूसरे की बात इसलिए सुनता है कि वह मेरी बात सुने। मैं आज उसे दो रुपए दें, क्योंकि वह मुझे कल दे। यह सब परस्पर सहायक संघ जैसा व्यवहार है। उसमें मूल प्रेरणा प्रकृति और स्वार्थ ही है। पश्चिम की विचारधारा स्वार्थ पर आधारित है। वस्तुतः जो स्वार्थ के ऊपर नहीं उठ सकता है, इसमें संस्कृति नहीं है, प्रकृति है।

समाजवाद भी मनुष्य की इसी कमज़ोरी पर आधारित है। वह कहता है कि मजदूर को खाना-पीना काफ़ी इसलिए नहीं मिलता, क्योंकि मालिक उसके काम से अपना लाभ उठाना चाहता है। ऐसे करके वह मजदूरों को भड़काता है। साम्राज्यवाद भेदभाव चाहता है कि विभाजन करके राज्य करो (Divide and Rule), ये सब बातें स्वार्थ के आधार पर चलती हैं। फलाना राज्य करेगा तो तू मर जाएगा। ऐसा कहकर स्वार्थ भावना को जगाते हैं। व्यक्ति की यह जो कमजोरी है, दुर्बलता है, उसके ऊपर ही ये सब विचारधाराएं खड़ी हैं। इससे ऊपर उठी नहीं।

हमें सोचना पड़ेगा कि जैसे व्यक्ति की एक सत्ता है (Individual entity), वैसे ही समाज की भी एक सत्ता होती है। लेकिन व्यक्ति की सत्ता दिख पड़ती है। समाज की दिखती नहीं। शरीर में भिन्न-भिन्न अवयव में अणुरूपी अंग (Cells) रहते हैं, वे जुड़े हुए हैं और उनके ऊपर त्वचा का आवरण है। इससे वह शरीर दिख पड़ता है। वैसे ही भिन्न-भिन्न व्यक्तियों को जोड़कर एक आवरण न रहने के कारण समाज नहीं दिखाई देता। हम यह नहीं मानते हैं कि व्यक्ति पैदा होने के उपरांत उनको जोड़कर एक समाज का निर्माण होता है, क्योंकि शरीर के बारे में हम देखते हैं कि हाथ-पैर आदि अलग-अलग अवयव जुड़कर शरीर तैयार नहीं होता। मनुष्य तो पूरा-का-पूरा पैदा होता है। जड़ वस्तुओं की जैसे दीवार बनती है, वैसे ही एक जगह लाकर उनका समूह बना सकते हैं, लेकिन इस प्रकार से चैतन्य का समूह बनाना असंभव है।

चैतन्य तो पूरा-का-पूरा पैदा होता है। चैतन्य एक ही रहता है और छोटा होने पर भी पूरा रहता है। छोटा बच्चा रहता है और उमसे पूरा मनुष्य छिपा रहता है। उसकी पूंछे नहीं रहतीं, बड़ा होने पर उगती हैं। छोटे से बीज में भी वृक्ष छिपा रहता है। समाज का अस्तित्व समाज की सत्ता तो चैतन्य ही है, समाज कुछ चीजों का समूह नहीं है। वह तो एक अलग, पूरी स्वतंत्र, स्वयंभू चीज है। जड़ चीजों में दीवार से अलग रखी हुई ईंट अपना दीवार से संबंध समझती नहीं, लेकिन व्यक्ति तो समाज से अपना संबंध समझ सकता है। उसका संबंध बाहर से नहीं दिखता, तो भी अंदर संबंध की भावना रहती है। बंगाल के किसी हिंदू पर आपत्ति आई तो यहां के हिंदू को दुःख होता है। पिताजी का कष्ट सुनकर सुदूर रहनेवाले बच्चे को भी कष्ट होता है। क्यों इनको जोड़नेवाला सूत्र शारीरिक नहीं। वह तो अदृश्य ही रहता है। यह अदृश्य सूत्र उसे जन्म से ही मालूम रहता है। हमारे यहां हम व्यक्ति की सत्ता, समाज की सत्ता चैतन्य मान्य करते हैं। उसको समझकर चलते हैं। इसके आधार पर ही सब जीवन चलता है।

सब व्यक्ति अपनी प्रवृत्ति से ऊपर उठकर समष्टि की सत्ता का ज्ञान करके उसके अनुसार चलते हैं, तो वही संस्कृति है। समष्टि की भावनाओं का साक्षात्कार होकर उसके आधार पर जहां जीवन का व्यवहार चलता है, वहां की संस्कृति का उदय होता है। पाश्चात्य लोगों का सहयोग, त्याग-सभी भिन्न आधार पर रचे गए हैं। इसीलिए वे संस्कृति के द्योतक नहीं हैं। समष्टि की सत्ता के आधार पर जीवन रचना जब होती है, वही संस्कृति कहलाती है। व्यष्टि और समष्टि इन दोनों सत्ताओं में संघर्ष नहीं, उसमें समन्वय रहना चाहिए। यही संस्कृति है। यदि विरोध रहा तो विकृति कहलाती है। ऐसी विकृति समष्टि के लिए भी घातक है और व्यष्टि के विकास के लिए भी बाधक होती है।

भोजन संयम से करना यह प्रकृति के लिए हितकारक है। यदि ज्यादा किया तो तबीयत ख़राब होकर व्यक्ति की प्रकृति बिगड़ती है और एक के ज्यादा खाने से दूसरे को खाना नहीं मिलता है और इससे समष्टि भी बिगड़ती है। बर्नार्ड शॉ और चेस्टर्टन जब मिले तो चेस्टर्टन ने (जो मोटा था) शॉ (जो दुबला था) को कहा कि यदि आपको देखा गया तो कोई कहेगा कि इंग्लैंड में अकाल पड़ा है। तो शॉ ने उत्तर दिया कि आपको देखने से उसका कारण उसे मालूम हो जाएगा। संस्कृति विकृति को रोकते-रोकते प्रकृति के स्वास्थ्य को बनाए रखती है। व्यष्टि को समष्टि का साक्षात्कार करा देती है। व्यक्ति की प्रकृति और समष्टि की प्रकृति इन दोनों में सामंजस्य प्रस्थापित करने वाली चीज़ संस्कृति है। दोनों का स्वतंत्र अस्तित्व भी है। दोनों का उपयोग है। एक को छोड़कर दूसरा नहीं। दोनों में सामंजस्य आवश्यक है। शब्द पहले या अक्षर पहले, इसके बारे में वाद-विवाद है। फिर भी एक बात सत्य है कि इन दोनों में सामंजस्य अवश्य है।

व्यष्टि और समष्टि एक-दूसरे से मिलकर जीवन का चरम लक्ष्य प्राप्त कर सकें इसके लिए दोनों में सामंजस्य बिठाना यही संस्कृति है। जहां पर यह समन्वय नहीं वहां कभी-कभी व्यष्टि की सत्ता प्रबल होती है। कभी-कभी समष्टि की सत्ता प्रबल होती है। इससे व्यष्टि को पीड़ा होती है या समष्टि को। यह स्थिति अच्छी नहीं। मनुष्य तो व्यष्टि और समष्टि-इन दोनों बातों से जीता है और जीवन को एक ही समय जी सकता है। एक ही क्रिया में दोनों का हित कर सकता है। व्यक्तिगत व्यवहार चलाते हुए समष्टि जीवन चला सकता है। इसको ही संस्कृति कहते हैं। संस्कृति का भाव संस्कार से उत्पन्न होता है।

संघ शिक्षा वर्ग, बौद्धिक वर्ग : दावणगिरी
(मई 27, 1959)