कश्मीर की वेदी पर वह आत्मबलिदान

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अटल बिहारी वाजपेयी

भारतीय जनसंघ के प्रधान डॉ० श्यामाप्रसाद मुखर्जी का आत्मबलिदान अन्याय के परिमार्जन के लिए हुआ। अब्दुल्लाशाही के अमानुषिक अत्याचारों से त्रस्त जम्मू की जनता की करुण पुकार सुनकर वे चुप न रह सके। माँ-बहनों के अपमानों की गाथाएँ, उनकी अपार सहनशक्ति के लिए भी असह्य हो गयीं। भारतमाता के पुन: खण्डित हो जाने का खतरा देखकर उनका हृदय विकल हो उठा। शेख अब्दुल्ला को खुश करने के लिए राष्ट्र के जीवन तथा सम्मान को पुन: एक बार दाँव पर लगाने की कांग्रेस की नीति का विरोध करना, उन्होंने अपना कर्तव्य समझा। अनेक बार लोकसभा में अपने भाषणों में उन्होंने प्रधानमंत्री पं० नेहरू से कश्मीर के प्रश्न को राष्ट्रहित की दृष्टि से सुलझाने की प्रार्थना की। सारे देश में कश्मीर दिवस’ का आयोजन कर कश्मीर राज्य को पूरी तरह भारत में मिलाने की माँग की गई। शेख अब्दुल्ला तथा उनके साथियों की पृथकतावादी मनोवृत्ति का विरोध किया गया। पर भारत सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी।

जनमत की खुली अवज्ञा कर नेहरू जी ने शेख अब्दुल्ला के साथ ऐसा समझौता कर लिया, जिससे न केवल भारत की एकता पर कुठाराघात हुआ, अपितु जम्मू तथा लद्दाख के 15 लाख निवासियों का भविष्य भी खतरे में पड़ गया। समझौते के अंतर्गत कश्मीर को अपना पृथक् विधान, पृथक् प्रधान तथा पृथक् निशान रखने का अधिकार दे दिया गया। सारे देश में उस समझौते का विरोध हुआ। डॉ० मुखर्जी ने लोकसभा में अपने अकाट्य तर्को तथा प्रबल प्रमाणों से उस समझौते को भारत तथा कश्मीर दोनों के लिए अहितकर सिद्ध किया, किन्तु नेहरू जी अपने दुराग्रह पर डटे रहे। यहाँ तक कि जम्मू-कश्मीर राज्य की वैधानिक स्थिति में मूलभूत परिवर्तन करने से पूर्व उन्होंने जम्मू तथा लद्दाख की जनता के प्रतिनिधियों से परामर्श करना भी आवश्यक नहीं समझा।

इस स्थिति में, जम्मू की जनता के सम्मुख भारत में पूरी तरह शामिल किये जाने की माँग करने के अलावा अन्य कोई चारा नहीं रहा। 5 वर्ष तक सभी भेदभाव तथा दमन के बीच वह इस आशा से चुप रही कि जल्दी ही कश्मीर पर भारत का संविधान लागू हो जायेगा और भारतीय नागरिक के नाते उसे भी अपनी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का उपयोग करने तथा अपने विकास की समान सुविधाएँ प्राप्त करने का अधिकार मिल जायेगा। लेकिन जुलाई समझौते ने उसकी इस आशा पर पानी फेर दिया। उसकी आँखों के आगे सन् 1947 का भयावह इतिहास नाचने लगा। शेख अब्दुल्ला की हिन्दू-विरोधी नीति के कारण उसे अपने ही सामने एक नया पाकिस्तान बनते हुए दिखायी दिया। वह कमर बाँधकर प्रजापरिषद् के नेतृत्व में खड़ी हो गई। अपने लिए नहीं, मातृभूमि की अखण्डता के लिए, उसने शांतिमय आंदोलन छेड़ दिया।

उस देशभक्तिपूर्ण आंदोलन को दबाने के लिए अब्दुल्ला सरकार ने पंजाब पुलिस की सहायता से जम्मू की जनता पर जो अमानुषिक अत्याचार ढाये, उनके दोहराने की आवश्यकता नहीं। शहीदों का रक्त अभी गीला है और चिता की राख में चिनगारियाँ बाकी हैं। उजड़े हुए सुहाग और जंजीरों में जकड़ी हुई जवानियाँ उन अत्याचारों की गवाह हैं।

डॉ० मुखर्जी ने ‘प्रजापरिषद् तथा सरकार के बीच समझौता कराने की पूरी कोशिश की। इसके लिए नेहरू जी तथा शेख अब्दुल्ला से लम्बा पत्र-व्यवहार भी किया। किन्तु नेहरू जी के दुराग्रह ने उनके प्रयलों को पूर्ण विफल कर दिया। “बिना लड़े सुई की नोक के बराबर भी भूमि नहीं दूंगा”—यह गर्व घोषणा करने वाले दुर्योधन की दुखदायी स्मृति को सजीव करते हुए उन्होंने ‘प्रजापरिषद्’ से बात तक करने से इनकार कर दिया।

अब डॉ० मुखर्जी के सम्मुख संघर्ष का शंख फूंकने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प न रहा। समझौता न होने की दशा में जम्मू की जनता के समर्थन में शांतिपूर्ण सत्याग्रह आंदोलन छेड़ देने के लिए वे वचनबद्ध थे। भारतीय जनसंघ के कानपुर अधिवेशन (1952) में स्वीकृत प्रस्ताव को अमल में लाने का अवसर आ चुका था। 5 मार्च को उन्होंने दिल्ली में अन्याय के विरुद्ध न्याय की स्थापना के लिए, तानाशाही के विरुद्ध लोकतंत्र की विजय के लिए और विघटन के विरुद्ध राष्ट्रीय एकता के लिए, महात्मा गांधी का नाम लेकर संघर्ष की घोषणा कर दी। समस्त देशवासियों को ‘बलिदान के पथ पर पाँव बढ़ाने के लिए ललकारते हुए उन्होंने कहा-“हम सत्य के लिए संघर्ष छेड़ रहे हैं। न्याय की रक्षा के लिए बलि-पथ पर पाँव बढ़ा रहे हैं। अत्याचारों की अग्निपरीक्षा हमारे रूप को और भी निखार देगी। दमन का दमन हमारे माथे पर विजय का तिलक बनकर चमकेगा। बलिदानों के गौरवपूर्ण इतिहास में एक उज्ज्वल अध्याय और जुड़ जायेगा। आओ, उस इतिहास के निर्माण में हाथ बटाने के लिए कमर कस मैदान में कूद पड़े। सच्चे स्वराज्य तथा वास्तविक लोकतंत्र की स्थापना का एकमेव यही मार्ग है। उसकी विजय निश्चित है।”

6 मार्च को जम्मू के शहीदों की अस्थियों के जुलूस पर लगे प्रतिबंध को तोड़कर, उन्होंने संघर्ष का श्रीगणेश कर दिया। स्वयं कारागार की ओर अग्रसर होकर अनुयायियों का मार्गदर्शन किया। उनकी गिरफ्तारी से सारे देश में तहलका मच गया। सबका ध्यान प्रजापरिषद् के आंदोलन की ओर खिंच गया। देश में एक नई चेतना जाग उठी।

सरकार की दमन-नीति के नीचे पिसती-कराहती जनता को आशा का एक सन्देश मिला। दिल्ली और पठानकोट में प्रजापरिषद् की माँगों के समर्थन में लाक्षणिक सत्याग्रह छिड़ गया। हजारों व्यक्ति घर-बार की चिंता छोड़कर राष्ट्रीय एकता के इस महान् अनुष्ठान में अपना योग देने के लिए डॉक्टर साहब के चरण-चिह्नों का अनुसरण कर खुशी-खुशी जेल जाने लगे।

सरकार ने डॉक्टर साहब को गिरफ्तार तो कर लिया, किन्तु वह अधिक दिन उन्हें जेल में न रख सकी। सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिल्ली सरकार के मुँह पर एक करारी चपत लगवाकर डॉक्टर साहब अपने अन्य साथियों सहित जेल से बाहर आ गये। तानाशाही के गढ़ पर उनका यह प्रथम सफल प्रहार था, जिसने कांग्रेस सरकार को व्यक्तिगत स्वतंत्रता के हनन के रूप में संसार के सम्मुख बेपर्दा खड़ा कर दिया।

जेल से बाहर आकर डॉक्टर साहब ने आंदोलन को उग्र बनाने के साथ-साथ सरकार के साथ समझौता करने का यत्न भी जारी रखा। लोकसभा में वित्त विनियोग विधेयक पर भाषण करते हुए, उन्होंने प्रधानमंत्री से पुन: एक बार जम्मू की जनता की पुकार पर कान देने की प्रार्थना की। दिल्ली में सत्याग्रहियों के प्रति पुलिस द्वारा होने वाले दुर्व्यवहार की ओर भी उन्होंने सरकार का ध्यान खींचा। पर नेहरू जी ने उनकी सभी अपीलों को ठुकरा दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने डॉ० मुखर्जी की नीयत पर आक्षेप किया और तर्क का उत्तर तर्क से देने के बजाय अपशब्दों पर उतर आये। यद्यपि दिल्ली में उस समय हुए उपचुनावों में कांग्रेस की करारी हार तथा जनसंघ और हिन्दूसभा की शानदार जीत ने एक बार फिर यह बता दिया था कि जम्मू-आंदोलन को जनता का समर्थन प्राप्त है। किन्तु, फिर भी नेहरू जी जनमत को अनसुना कर अपने हठ पर अड़े रहे। इस स्थिति में डॉक्टर साहब ने आंदोलन को अधिकाधिक तीव्र करने में ही समस्या के समुचित समाधान की संभावना देखी।

अत: उन्होंने देश के भिन्न-भिन्न भागों का दौरा कर, जम्मू-आंदोलन के वास्तविक उद्देश्यों को जनता के सामने रखा। सर्वत्र कार्यकर्ताओं से प्रत्यक्ष बातचीत करके उन्होंने आंदोलन के प्रति जनता के रुख का पता लगाया। इन दौरों से उनकी यह धारणा दृढ़ हो गई कि सारा देश कश्मीर को अविलम्ब भारत के अविभाज्य अंग के रूप में देखने के लिए उत्सुक है और वह जम्मू-आंदोलन की सफलता चाहता है।
आंदोलन को जनता का पूर्ण समर्थन प्राप्त है, यह विश्वास कर लेने के बाद डॉक्टर साहब ने नेहरू जी के इस कथन को कसौटी पर कसने का निश्चय किया कि जम्मू-कश्मीर सौ फीसदी भारत का अंग है। इसके लिए उन्होंने बिना परमिट जम्मू जाने का संकल्प किया। 8 मई को दिल्ली से पंजाब के दो दिन के दौरे पर रवाना होते समय उन्होंने वक्तव्य में कहा कि जम्मू जाने में उनका उद्देश्य किसी प्रकार की अशांति को बढ़ावा देना नहीं, बल्कि गतिरोध को शांतिपूर्ण एवं सम्मानजनक रीति से हल करने के लिए एक और प्रयत्न करना है। परमिट न लेने के निश्चय को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि भारतीय नागरिक के नाते देश के किसी भी भाग में जाने का उन्हें पूर्ण अधिकार है और चूँकि नेहरू जी आये दिन कहते रहते हैं कि जम्मू और कश्मीर राज्य भारत में सौ फीसदी शामिल हो चुके हैं, अत: उन्होंने बिना परमिट के वहाँ जाने का फैसला किया है।

डॉक्टर साहब के इस कदम की सारे देश में जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई। दिल्ली से पठानकोट तक हर स्टेशन पर हजारों नर-नारियों ने, ‘परमिट सिस्टम तोड़ दो’ के गगनभेदी नारों से उनका स्वागत किया और कहाँ मिलेंगे-जम्मू में’ का घोष कर उनको अपने समर्थन का विश्वास दिलाया। अनुमान था कि डॉक्टर साहब को पठानकोट पहुँचने से पहले ही कहीं गिरफ्तार कर लिया जायेगा; लेकिन सुप्रीम कोर्ट के डर से सरकार ने न केवल उन्हें पठानकोट तक जाने दिया, बल्कि बिना परमिट जम्मू में प्रविष्ट होने पर भी अपनी ओर से कोई कार्रवाई न करने का आश्वासन दिया।

गुरुदासपुर जिले के डिप्टी कमिश्नर श्री वशिष्ठ ने पठानकोट में डॉक्टर साहब को बताया कि वे अपनी पार्टी के साथ बिना परमिट जम्मू जा सकते हैं। भारत सरकार उनके मार्ग में कोई बाधा खड़ी नहीं करेगी। उन्होंने यह भी बताया कि जम्मू में बख्शी गुलाम मोहम्मद डॉक्टर साहब से भेंट करेंगे। लेकिन जब वे अपने साथियों सहित भारत की सीमा को पार कर जम्मू की सीमा में स्थित रावी के पुल पर पहुँचे, तो कश्मीर मिलिशिया उनका रास्ता रोककर खड़ी हो गई। वहाँ कठुआ के पुलिस सुपरिन्टेंडेंट ने उन्हें राज्य की सीमा में न घुसने का आदेश दिया। डॉक्टर साहब ने इसे मानने से इन्कार कर दिया, जिस पर उन्हें कश्मीर सुरक्षा विधान के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया गया।

गिरफ्तारी से पूर्व उन्होंने भारतीय जनता के नाम अपने संदेश में कहा-“मैं जम्मू-कश्मीर में प्रविष्ट हो गया हैं, लेकिन एक कैदी की हैसियत से।” उनका यह संदेश बिजली की भाँति सारे देश में फैल गया। कोने-कोने से सत्याग्रहियों के जत्थे अपने नेता के मार्ग पर निर्भय होकर पाँव बढ़ाते हुए बिना परमिट जम्मू में प्रविष्ट होने लगे। डॉक्टर साहब के एक ही हल्के पदाघात से सरकार द्वारा कश्मीर और भारत के बीच खड़ी की गई परमिट की कृत्रिम दीवार ढहकर चूर-चूर हो गई। साथ ही नेहरू जी के इस असत्य का भी पर्दाफाश हो गया कि कश्मीर सौ फीसदी भारत का अंग है।

23 जून ’53 की वह रात

गिरफ्तारी के बाद डॉक्टर साहब को श्रीनगर ले जाया गया, जहाँ नजरबंदी की अवस्था में गिरफ्तारी के 43वें दिन 23 जून की रात को बड़े रहस्यमय ढंग से उन्हें मृत घोषित कर दिया गया।

किन्तु वे मरे नहीं, विभाजित भारत की अवशिष्ट एकता को बनाये रखने के लिए राष्ट्र की वेदी पर अपने सर्वस्व की बलि चढ़ाकर अमर हो गये। औरों को बलिदान के पथ पर आने का आह्वान करते-करते स्वयं बलि हो गये। ध्येय की सिद्धि के लिए अपने अनमोल जीवन को निछावर कर गये। विघटनकारी मनोवृत्तियों से लोहा लेते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। भारतमाता के मस्तक को कश्मीर के किरीट से मण्डित रखने के लिए अपने प्राणों पर खेले गये।

लोकतंत्र की रक्षा के लिए नीव के पत्थर बन गये। तानाशाही के शिकार हो गये। अन्धकार की शक्तियों से संघर्ष करते-करते अनन्त ज्योति में विलीन हो गये। अपने धर्म का पालन करते हुए कर्मभूमि में सो गये।

(डॉ. चंद्रिकाप्रसाद शर्मा द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘अटल बिहारी वाजपेयी : कुछ लेख कुछ भाषण’ से)