यूपीए सरकार में बांटे गए अंधाधुंध कर्ज से हुई बैंकिंग व्यवस्था की हालत खराब

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अरुण जेटली

मीडिया में कुछ बीमार, भ्रमित और गलत लेखों के कारण बैकों की छवि कर्ज माफ करने वाली संस्था के तौर पर बनाते हुए कई ट्वीट्स और सोशल मीडिया पोस्ट आज हमारी नजर में आ रहे हैं। इसी कड़ी में कुछ राजनेता अपने गैर जिम्मेदाराना बयानों से इस समस्या को और भी जटिल दिखाने का प्रयास कर रहे है, जिन्होंने कर्ज़ माफी की तुलना कोरपोरेट सेक्टर को खैरात बांटने के तौर पर की है, जबकि यह एक सामान्य प्रक्रिया है।

इसलिए हमारी जटिल बैंकिंग प्रक्रिया और लेखांकन के मुद्दे पर सरल और सही परिप्रेक्ष्य रखना बेहद जरुरी हो गया है।

पिछले 10 वर्षों में हमारी बैंकिंग प्रणाली ने नियामक और कानूनी ढांचे में दो अलग-अलग व्यवस्थाओं को देखा है। जिसमें पहली व्यवस्था को ‘उत्तरदायित्व के बिना ऋण मुहैया कराना’ कहा जा सकता है, जो यूपीए-1 सरकार के कार्यकाल के अंतिम दिनों से शुरू हुई और यूपीए-2 सरकार में जारी रही।
इस दौरान बैंकिंग प्रणाली, विशेष तौर पर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (पीएसबी) के बकाया ऋण में अप्रत्याशित वृद्धि देखी गई, जो मार्च 2008 के 18 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर मार्च 2014 में 52 लाख करोड़ रुपये हो गई। इस अवधि की एक विशेषता यह रही कि इस दौरान कर्जदारों की क्रेडिट मूल्यांकन जांच में घोर लापरवाही बरती गई और उन्हें कर्ज देने के लिए एक आक्रामक रवैया अपनाया गया।

हालांकि कर्ज देने में आक्रामक रवैया अपनाने के चलते आर्थिक विकास में वृद्धि भी देखी जा सकती है, लेकिन इस प्रणाली को अपनाने के लिए पूरी सावधानी बरती जानी चाहिए। वहीं, कर्जदार के उचित मूल्यांकन के अभाव में बकाया ऋण की समस्या के कारण बैंकों के फंसे कर्जों (एनपीए) में असाधारण वृद्धि देखी जाती है। यूपीए सरकार में संपत्ति गुणवत्ता समीक्षा (एक्यूआर) की उपेक्षा और ऋण के लगातार पुनर्गठन से एनपीए की समस्या और भी खराब हो गई थी।

कर्ज की शर्तो में होने वाले लगातार बदलावों ने बैंकिंग प्रणाली में विकास की एक झलक दिखाने का प्रयास किया, लेकिन इस व्यवस्था के चलते एनपीए में केवल वृद्धि ही दर्ज ही की गई। इस पूरी व्यवस्था ने कर्ज प्रणाली में इरादतन धोखाधड़ी और खराब मूल्यांकन की पद्धति को जन्म दिया, जिसके चलते लापरवाही से कर्ज देने की प्रवृति को बल मिला और इसी प्रणाली ने देनदारों की क्षमता को भी प्रभावित किया।

वहीं, साल 2014 में एनडीए के नेतृत्व वाली सरकार के सत्ता में आने के बाद बैंकों पर लगातार बढ़तें एनपीए के दबाव को कम करने के लिए हमने जरुरी कदम उठाए, जिसके कारण इस व्यवस्था में एक आदर्श बदलाव आया। भारत सरकार ने साल 2015 में भारतीय रिर्जव बैंक द्वारा अमल में लाई गई एक्यूआर प्रक्रिया को सख्ती से लागू कर तनावग्रस्त परिसंपत्तियों और एनपीए की पहचान करने का काम शुरू किया। इस पूरी प्रक्रिया के कारण कर्ज देने में लचीलेपन और लापरवाही की समस्या को सामने लाया जा सका, इस दौरान पाया गया कि कर्ज के पुन:वर्गीकरण और पुनर्गठन के मामलों में सावधानी नहीं बरती गई और यही बैंकों के एनपीए में असाधारण बढ़ोत्तरी का कारण बना।

इस संदर्भ में कर्ज के पुन: वर्गीकरण और पारदर्शी एक्यूआर के प्रभाव को इस बात से समझा जा सकता है कि मार्च 2014 में जहां सार्वजनिक बैंको के एनपीए 2.26 लाख करोड़ रुपये थे, वह मार्च 2018 में बढ़कर 8.96 लाख हो गए। किसी भी प्रभावी दिवालियपन तंत्र के अभाव में इन इरादतन घपलेबाजों ने अपने कर्ज की शर्तो को आसानी से बदलने और उनको एनपीए में शामिल होने से रोकने के लिए सभी संभावित हथकंडों को अपनाने का काम किया।
इस संदर्भ में भारत सरकार ने दूसरा महत्वपूर्ण कदम यह उठाया कि साल 2016 में कॉर्पोरेट, साझेदारी फर्मों और व्यक्तिगत दिवालियापन का प्रस्ताव देने के लिए दिवालिया और शोधन अक्षमता संहिता (आईबीसी) का एलान किया, जिसमें इस पूरी प्रक्रिया को समयबद्ध किया गया और साथ ही इसमें संपत्ति के मूल्य को अधिकतम करने का प्रस्ताव भी दिया गया। वहीं, इसके नियामक ढांचे के संस्थागतकरण करने की बात भी इसमें कहीं गई।

इसके माध्यम से कॉर्पोरेट दिवालियापन संकल्प प्रक्रिया (सीआईआरपी), फास्ट ट्रैक रिज़ॉल्यूशन, कॉर्पोरेट विघटन, स्वैच्छिक विघटन, इन्सॉल्वेंसी प्रोफेशनल्स (आईपीएस), इन्सॉल्वेंसी प्रोफेशनल एजेंसियां (आईपीए), इन्सॉल्वेंसी प्रोफेशनल एन्टीटीएज (आईपीई), इंफार्मेशन यूटिलिटीज और वैल्यूएटर के एकीकृति करने का प्रयास किया गया।

इससे विघटन और विवाद समाधान के लिए एक तंत्र तैयार हुआ, जिसमें निर्णय लेने वाले प्राधिकारी, दिवालियापन बोर्ड ऑफ इंडिया (आईबीबीआई), लगभग 2,000 आईपीएस, 81 आईपीई, 31 पीए, एक आईयू और पांच पंजीकृत वैल्यूर्स शामिल थे। वहीं जून 2016 और जुलाई 2018 के दौरान एनपीए का सामना कर रहे लगभग 1,100 कार्पोरट सीआईआरपी के लिए सामने आए, और लगभग 250 कार्पोरट ने स्वैच्छिक विघटन का प्रस्ताव दिया।
इस दौरान जुलाई 2018 तक 45 कॉर्पोरेट देनदारों ने सीईआरपी के लिए संकल्प प्रस्तुत किया है। आरबीआई ने 12 बड़े खातों में से चार मामलों में संकल्प प्रस्तुत किया और एक पर्याप्त राशि को जारी भी किया।

आईबीसी के सख्ती के चलते बहुत कम समय में ही बकायदारों के व्यवहार में एक परिवर्तन देखा गया है। यही कारण है कि देनदारों के अंदर अब अपना कर्ज तय समय-सीमा के अंदर या उससे पहले चुकाने की प्रवृति उत्पन हो रही है। आंकड़े बताते हैं कि इस दौरान बैंक भी आईबीसी से इतर अपना कर्ज वसूलने में कामयाब होते दिखाई दे रहे है। आईबीसी के अंतर्गत राष्ट्रीय कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल (एनसीएलटी) के समक्ष दायर आवेदनों में 12 ऋण खातों ऐसे भी रहे, जिन्होंने अपने आवेदन स्वीकार होने से पहले वापस ले लिए और इससे सार्वजनिक क्षेत्र के बैकों को सितंबर 2018 तक 449.76 करोड़ रुपये की राशि वसूल में कामयाबी हासिल हुई।

इस पूरी प्रक्रिया के दौरान, भारत सरकार ने देनदार और लेनदारों दोनों पर अपना ध्यान केंद्रित किया। एक तरफ जहां अनुपालन और वसूली के पहलुओं पर जोर दिया गया, वहीं दूसरी तरफ, लेनदारों के व्यावहारिक परिवर्तन पर भी जोर दिया गया। इस कानूनी और नियामक ढांचे के परिणामस्वरूप प्रमोटर और देनदार अब अपनी पहचान डिफॉल्टर्स के रूप में नहीं चाहते।

किसी भी कार्यवाही से बचने के लिए, ऐसे देनदारों ने सीआईआरपी की कार्यवाही शुरू होने से पहले ही अपने आवेदन वापस ले लिए हैं और बकाया राशि का भुगतान भी कर दिया है। भारतीय रिजर्व बैंक के दिशा-निर्देशों और बैंक बोर्डों द्वारा अनुमोदित नीति के अनुसार ऐसे गैर-निष्पादित ऋण जिनमें चार साल के पूरा होने पर पूर्ण प्रावधान किया गया है, उनको बैंक के बैलेंस शीट से हटा दिया गया हैं।

एनपीए को बैंकों द्वारा अपनी बैलेंस शीट से हटाना और कर कार्यनिष्पत्ति बैंकों की एक सामान्य प्रक्रिया है। ऋण को राइट आॅफ करना लेखांकन की प्रक्रिया है जिससे कर और पूंजी अनुकूलन में मदद मिलती है। ऐसे राइट आॅफ ऋणों के बकायादार उसके पुनर्भुगतान के लिए उत्तरदायी बने रहतें है और कानून के तहत इनसे बकाया राशि की वसूली होती है, जिसमें वित्तीय संपत्तियों के सुरक्षा और पुनर्निर्माण और सुरक्षा ब्याज के प्रवर्तन (सरफासी) अधिनियम और ऋण वसूली न्यायाधिकरण (डीआरटीएस) के तहत कार्रवाई की जा सकती है।

भारत सरकार ने ऋणों को पुन: वर्गीकृत और पुनर्मूल्यांकन करके, साथ ही आईबीसी के हस्तक्षेप के माध्यम से इरादतन घपलेबाजी करने वाले और नकली देनदारों के खिलाफ अपने संकल्प को दिखाया है। अपनी इस कार्यवाही के माध्यम से सरकार बैंकों के बीच अधिक पारदर्शिता और उत्तरदायित्व को जन्म देना चाहती है।

                                                                                                                                                 (लेखक केंद्रीय वित्त मंत्री हैं)