हमें पुरुषार्थ करना होगा

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दीनदयाल उपाध्याय

गतांक का शेष

पश्चिम ने राज्य के हाथ में ही सब कुछ दे दिया। बाकी संगठन राज्य पर कब्जा करना चाहते हैं। पोप और खलीफाओं ने राज्य को काबू में कर लिया या राज्य ने बाकी पर कब्जा कर लिया। इंग्लैंड के चर्च ने राज्य पर कब्जा किया। रूस ने श्रमिकों के द्वारा राज्य पर कब्जा किया। इसका कारण था, वहां केवल राज्य संस्था थी। हमने कहा, सब संगठित हों तो चारों में कोई विरोध नहीं होगा। व्यवस्था का अर्थ संगठित जीवन होता है। हमारे यहां तभी वर्ण व्यवस्था पर जोर दिया जाता है। जहां यह व्यवस्था नहीं, उसे मलेच्छ देश या राज्य कहा। ऐसी जगह रहना ठीक नहीं समझा गया। हम वर्ग बनाते हैं। अलग-अलग व्यवस्था करते हैं। वर्ग तो हुए कितु भेद कहां है? आपस में ऊंच-नीच का विशेष स्थान नहीं है। सब समाज के अंग हैं। विभाग तो चाहिए वर्ग चलाने के लिए। समाज को भी पांच संस्थाएं होती हैं। शक्तियों का विभक्तीकरण करना पड़ता है। समाज में गड़बड़ आई तो एक वर्ग बन जाता, अपना काम छोड़, बाकी की बातों पर विचार करना शुरू कर देता है।

जब ये वर्ग एक-दूसरे पर कब्जा करना चाहते हैं, तो वहीं गड़बड़ हो जाती है। जातियां बन जाती हैं। जैसे एक जाति कबीरपंथी बन गई। जब एक संस्था बाकी के बीच में दखल दे तो समस्या पैदा होती है। व्यापारी राज्य पर क़ब्जा करना चाहे, राज्य शिक्षा पर, तो इस दखल (Interference) को वर्ण-संकरता कहते हैं। राज्य ने अपना काम छोड़ दिया। सरकार पुलिस, सेना, डाकू आदि का खयाल छोड़कर भिलाई का कारखाना, जीवन बीमा आदि पर ध्यान देने लगती है। परिणामत: व्यवस्था बिगड़ती है। भ्रष्टाचार बढ़ता है। यह वर्ण-व्यवस्था कर्तव्य, गुणों के आधार पर चलने वाली वैज्ञानिक व्यवस्था है। यह प्रतिबंधक नहीं, जन्म से या कर्म से सुविधानुसार होता है। जितने साधन चलते हैं, वे तत्त्व के बलबूते पर। तत्व समाज में आत्मीयता, स्वत्व लाता है। जैसे कुटुंब के अंदर ज्ञान होता है, लेकिन जब वह ज्ञान क्षीण हो जाता है तब अव्यवस्था पैदा होती है। शरीर से आत्मा निकल जाती है तो सभी कुछ खत्म हो जाता है।

राष्ट्र की आत्मा यह संस्कृति है। इसके लिए एक शास्त्रीय शब्द है ‘चिति’। यह चिति ही समाज की विशेषता है। इसकी रक्षा के लिए सभी प्रयत्नशील रहते हैं। बाकी सबकुछ छोड़कर भी इसे लेने को सब तैयार रहते हैं। चिति हमारे लिए परम सुख है। हमारे यहां धर्म की भावना, निष्ठा को ‘चिति’ रूप में स्वीकार किया गया है। मोक्ष को परम पुरुषार्थ इसीलिए कहा गया है। धर्म के नाम पर कितने ही लोगों को बलिदान देना पड़ा। छोटे-से-छोटे व्यक्ति ने भी बलिदान दिया। यह स्वभाव हमारे अंदर पैदा होते ही माता के दूध द्वारा आता है। यह हकीकत है। गुरु गोविंद सिंहजीं के बच्चे बलिदान हो गए थे, लेकिन उनके अंदर इतनी दृढता कहां से आई, इतना कोई शायद करोड़ प्रशंसा कमाकर भी न कर पाए। हमारा मस्तक गौरव से ऊंचा हो जाता है, बलिदानी लोगों की कथा जब हम सुनते हैं। यदि रोटी ही सबकुछ होती तो लोग आज धर्म के नाम पर घर आदि क्यों छोड़ देते हैं। आर्थिक समस्या ही सबकुछ होती तो ऐसा नहीं होता। उनके अंतर में भी चिति का भाव छुपा हुआ होता है। क्या ईरान में सब मुसलमान बन गए? कुछ पारसी अपवादस्वरूप जैसे हमारे यहां अपवादस्वरूप मुसलमान बने।

राष्ट्र जीवन का केंद्र धर्म नहीं कहा, ‘चिति’ के आधार पर समाज की संगठित शक्ति होती है, जिसे विराट् कहा। इसके जाग्रत होने पर ही फिर समाज टिकता है। फिर सब व्यवस्था ठीक चलती है। समष्टि, भूत शक्ति यह विराट् Joint Stock Company लुटेरों का नहीं, अपितु चिति एव धर्म के आधार पर संगठन होता है। यह शरीर में प्राण की तरह रहती है, जिसके कारण इंद्रियां काम करती हैं। इंद्रियों का यदि आपस में झगड़ा हो जाए तो सबकुछ गड़बडा जाता है। एक बार शरीर की सब इंद्रियों में आंख, कान, हाथ, पैर में आपस में झगड़ा हो गया। सभी एक-दूसरे से अपने को बड़ा बताने लगे। उनका झगड़ा खत्म नहीं हो रहा था, तो सारे मिलकर ब्रह्माजी के पास गए। ब्रह्माजी ने उन्हें सुझाया कि स्वयं सारे आपस में निर्णय कर लो। जिसके न करने से सब कुछ बेकार हो जाए वही सबसे बड़ा है। सारे खुशी-खुशी लौट आए। सबसे पहले आंखो ने सोचा कि हमें छुट्टी पर जाना चाहिए तब इनको पता चल जाएगा कि कौन बड़ा है।

आंखें चली गईं। लेकिन शरीर ने टटोल-टटोलकर काम चला लिया। किसी ने रास्ता दिखा दिया। आंखों ने वापस आकर हालचाल पूछा। लेकिन वहां तो सबकुछ ठीक-ठाक है। अबकी बार कानों ने सोचा कि अब हमें छुट्टी करके देखना चाहिए, लेकिन कानों के बिना भी इशारे से काम चल गया। अब हाथों का नंबर था। हाथ चले गए, लेकिन हाथों और पैरों के बिना भी सरक-सरक कर काम चल गया। अब प्राणों की बारी आई, प्राणों ने सोचा कि सभी ने आजमाकर देख लिया है। अब मैं भी आजमाकर देख लूं। लेकिन जैसे ही प्राण जाने लगे, सभी कुछ ठंडा होने लगा। आंखों के आगे अंधेरा सा छाने लगा। हाथ-पैर सुन्न हो गए। यहां तक कि बुद्धि ने भी सोचना बंद कर दिया। सभी ने प्राणों से प्रार्थना की कि वे न जाएं। अब हमें पता चल गया है कि प्राण ही सबसे बड़े हैं।

यानी हमारी चिति हमारे राष्ट्र का प्राण है। प्राण यदि कमज़ोर हो जाए तो सभी इंद्रियां कमज़ोर हो जाती हैं। प्राणों को बलवान करने की ज़रूरत है। डॉक्टर साहब ने बाह्य के रूप के स्थान पर तत्त्व का विचार किया। किसी ने कहा कि दूध अच्छा, किसी ने दूध फटा हुआ पीया था, उसने कहा कि दूध तो खराब होता है। जैसा अनुभव हुआ, उसने वैसी ही परिभाषा दी। एक मंडल बनाया गया जाति-पांति का भेदभाव मिटाने के लिए, लेकिन जाति-पांति तोड़क मंडल के नाम से एक अलग ही जाति बन गई। पेड़ के पत्ते सूख रहे हैं, झड़ रहे हैं। उनके झड़ने से काम नहीं चलेगा। उनकी कुछ व्यवस्था करनी पड़ेगी। जो व्यवस्था लाभदायक नहीं है, चिति के अनुकूल नहीं है, वह भी अपने आप समाप्त हो जाएगी। राष्ट्र के प्राणों को जगाने का काम करना पड़ेगा। शक्ति का जागरण करना होगा। राष्ट्र की साधना का हमारा काम धर्म के आधार पर ही होता है। …समाप्त
– जून 14, 1958