हमें पुरुषार्थ करना होगा

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दीनदयाल उपाध्याय

प्रत्येक व्यक्ति सुख की कामना लेकर कार्य करता है- भौतिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक। सामूहिक और व्यक्तिगत रीति से विचार करते हुए चार पुरुषार्थ सामने आते हैं। इन पुरुषार्थो की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना पड़ता है। हम सभी एक-दूसरे पर निर्भर हैं। हम परस्परावलंबी हैं। व्यष्टि, समष्टि, सृष्टि तथा परमेष्टि, हम इस परस्परानुकूलता तक पहुंचे। इसके लिए कर्म का सिद्धांत और यज्ञ तक की कल्पना करनी पड़ेगी। समाज का कौन सा ढांचा होना चाहिए जिसमें ये सब चीज़ें प्राप्त हो जाएं। पश्चिम ने इस बाह्य रचना पर बहुत जोर दिया है। केवल रचना-मात्र से ही जो प्राप्त करना चाहते हैं, वह नहीं हो सकता।

दो चीज़ें होती हैं-रूप और तत्त्व। तत्त्व के बिना रूप का कोई अर्थ नहीं है। किंतु पश्चिम में रूप पर ध्यान दिया जाता है। उसके लिए संस्था प्रजातंत्र या राजतंत्र चाहिए फिर संसदीय लोकतंत्र चाहिए। हमारे यहां बाह्य स्वरूप पर इतना जोर नहीं दिया जाता। हम समाज के तत्त्व, स्वत्व और बलशाली होने पर जोर देते हैं, क्योंकि केवल रचना करने से तो काम नहीं चलेगा। चाबी के बिना घड़ी कैसे चलेगी? चाबी तो उसमें भी हाथ से भरनी पड़ती है। बिना हिले-डुले काम नहीं चल सकता। मान लो कि बिना हिले-डुले कोई ऐसा यंत्र बन जाए, जिसमें कुछ श्रम न करना पड़े… समाज की भी रचना स्वयं ही चलती रहे, कुछ न करना पड़े। किसी ने कहा कि सारी व्यवस्था यदि अच्छी है तो फिर विकार क्यों आया? वास्तविकता यह है कि व्यवस्थाएं तो शक्ति के आधार पर ही चलती हैं।

कुशल कारीगर को हथियार तो चाहिए ही, तभी वह अपनी कारीगरी दिखा सकता है। पेड़ काटने के लिए यदि आप कुल्हाड़ी-आरी देते हैं, तभी पेड़ कटेगा। थर्मामीटर से तो पेड़ नहीं कटता। दूसरी ओर, यदि मज़बूत कुल्हाड़ी रख दिया, काटने वाले के हाथ में शक्ति ही नहीं है, तब पेड़ कैसे कटेगा? वह तो अपना पैर ही काट लेगा, किंतु दूसरी बात का भी विचार किया जाना चाहिए कि कौन चलाने वाला है। हमें जो कुछ प्राप्त करना है, उसके लिए साधन रूप में चार बातों की आवश्यकता होती है-शिक्षा, स्वतंत्रता, शांति और पौरुष। इसके लिए चार प्रकार के साधन हैं-पुरुषार्थ प्राप्त करना चाहिए मोक्ष चाहिए अर्थ चाहिए और शिक्षा चाहिए, लेकिन शिक्षा का अर्थ केवल जानकारी ही नहीं। यह तो छोटा सा अंग है। उन सारी बातों पर विचार करना होगा, जिनसे हम अपने ध्येय की प्राप्ति कर सकते हैं। हमें पुरुषार्थ करना होगा।

संस्कारों के द्वारा अध्यापन भी आवश्यक है, स्वाध्याय, चिंतन, मनन-इनके द्वारा अपने अंदर की शक्तियों को जाग्रत् करते हैं। लोकमत भी इसी दिशा में हो सकता है। शिक्षा हुई तब भी स्वतंत्रता की भूख तो मानवता को सदा से रही है। मानवता के लिए राजनीतिक स्वतंत्रता ही सब कुछ नहीं है, परराज्य से छुटकारा मिलना ही स्वतंत्रता नहीं है। अपने लोगों के राज्य करते हुए भी हम यदि स्वत्व के आधार पर चलें, तभी हम स्वतंत्र हो सकते हैं। राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, मानसिक-हर तरह की स्वतंत्रता चाहिए।

हम किसी देश की अर्थ नीति से न बंधे रहें, यह ठीक है। किंतु कुछ और बातें भी हैं-धन के अभाव में आर्थिक परतंत्रता हो जाती है। रोटी, शरीर की निपुणता के लिए जो-जो भौतिक सामर्थ्य चाहिए, साधन सामग्री उपलब्ध करने के लिए धन का अभाव नहीं रहना चाहिए। धन के अभाव में रोटी कमाने के लिए दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। ब्राह्मण अपना धर्म-कर्म छोड़कर दूसरों के आगे हाथ फैलाए तो ठीक नहीं लगता, लेकिन धन मिल जाने पर भी आर्थिक परतंत्रता नहीं गई। इसका कारण है, धन के प्रति आसक्ति, कंजूस होना। कोई व्यक्ति बहुत धनवान है, खाना नहीं खाता, पैसा जोड़कर रखता जाता है।

वह साधन को साध्य मानकर चलता है। गाड़ी में से उतरकर तांगा, रिक्शा में न बैठकर पैदल ही चलने लगता है। रास्ते में प्यास लगती है तो भी पैसा खर्च नहीं करना चाहता। जेब से रुपया निकालकर देखा और सोचने लगा, ‘सोलह कला अवतार टूट जाएगा। चाहे मर जाऊं, पर तुझे न भुनाऊंगा।’ कहकर अपने पास ही रख लिया। यह भी एक प्रकार की परतंत्रता है। वह परतंत्र है स्वतंत्र नहीं। जिसे पता ही नहीं कि कैसे खर्च करे, निमित्त भी पता नहीं, ऐसा व्यक्ति भी आर्थिक दृष्टि से परतंत्र कहा जाएगा।

आसक्ति ही नहीं तो विलास बुद्धि भी न हो, ‘मेरी कमीजें बारह चाहिए जूते आठ’, हॉस्टल के कमरे में जूतों का बाजार सा खुला था। भोग विलास की वृत्ति भी स्वतंत्र न होने देगी। तीसरी बात यदि यह पता ही नहीं कि इसे खर्च कैसे करें, निमित्त भी पता नहीं, ऐसा व्यक्ति भी परतंत्र कहलाता है। हजरत मूसा (यहूदियों के पैगंबर) पृथ्वी पर जब आए तो उन्होंने एक स्त्री को देखा। कुछ तन ढकने को नहीं था। उसने हजरत मूसा से कहा कि भगवान् से कहो कि कुछ ढ़कने को तो दे। इसी तरह एक अमीर आदमी मिला। उसने कहा कि भगवान् से पूछो कि इस धन को कैसे खर्च करूं। तो ऐसा व्यक्ति पुरुषार्थ नहीं करता।

आलस्य, तामसिक भावना, भोग-विलास, अभाव और अंत में वही परतंत्रता। इसीलिए लोग आर्थिक दृष्टि से परतंत्र हो जाते हैं। राजा हर्ष अपने काल में पांच वर्ष तक कमाकर सब कुछ दान कर देता था। रघु ने भी सब बांट दिया। मिट्टी का बरतन ही बचाया। फिर कुबेर पर आक्रमण कर गुरु दक्षिणा दी। अतिरिक्त धन को अच्छे काम में लगाना चाहिए।

जहां लड़ाई, वहीं पर शांति हमारे यहां नहीं मानी गई। मन की शांति, समाज की शांति, सभी प्रकार की शांति मिलनी चाहिए-भौतिक, मानसिक, बौद्धिक। मृत्यु की शांति नहीं है, जहां सृष्टि की रचना हो और सभी व्यवस्था ठीक हो, ऐसी शांति चाहिए। भगवान् कृष्ण ने महाभारत का युद्ध भी शांति के लिए कराया। शांति आंतरिक तथा बाह्य जीवन की भी होनी चाहिए। साथ-साथ पौरुष भी तो चाहिए। इसमें पराक्रम, प्रयत्न, निष्ठा, विवेक होना चाहिए दुस्साहस पौरुष के अंतर्गत नहीं आता। जहां पर साधन होते हैं, वहीं पर व्यवस्था का प्रश्न आता है।

इन साधनों के साथ-साथ फिर हमारे चार आश्रम, चार वर्ण होते हैं। व्यक्ति की आश्रम की दृष्टि से व्यवस्था की जाती है। इन्हीं के द्वारा समाज के प्रति व्यक्ति को कर्तव्य का पालन करना चाहिए, तभी परस्परानुकूलता आती है। वर्ण व्यवस्था में हरेक का विशिष्ट कार्य होता है। आजकल एक नारा है वर्ग विहीन समाज, जो गलत है। यह वहीं हो सकता है, जहां अराजकता का वातावरण हो। शिक्षार्थी और शिक्षक, परोसने वाले और भोजन करने वाले एक ही वर्ग नहीं है। वर्गों का विभाजन कार्यानुसार होता है। मार्क्स ने केवल पैसे के आधार पर विभाजन किया। हमने गरीब-अमीर नहीं तो, कर्तव्य के आधार पर वर्गीकरण किया। समाज में ज्ञान, शिक्षण, रक्षा, अर्थ, सबकुछ प्राप्त हो सके, इसकी व्यवस्था तो करनी ही पड़ेगी।

जिन साधनों के आधार पर सब बढ़ सकते हैं, वैसे लोग चाहिए। आप लोग तो रेलगाड़ी में आराम से बैठकर चले जाते हैं, लेकिन इंजन में किसी न किसी को काम करना पड़ता है। आप लोग तो आराम से रात को गाड़ी में सोते हुए जाते हैं, लेकिन कितने ही लोग जागते हैं रात भर स्टेशन और गाड़ी में। तब व्यवस्था तो करनी ही पड़ेगी। एक-दूसरे के साथ वैज्ञानिक आधार पर, परस्परानुकूलता के आधार पर व्यवस्था करनी पड़ती है। कार्य के आधार पर व्यवस्था करनी पड़ती है। ये ही चार मोटे कार्य दुनिया के सभी देशों में किसी-न-किसी रूप में रहते हैं। इन चार संस्थाओं का हमारे यहां सूक्ष्म विवेचन किया गया है। समाज शास्त्र इन्हें पांच सस्थाओं में बांटता हैं- 1. परिवार 2. शिक्षा, 3. धर्म, 4. वाणिज्य, और 5. राज्य या राजनीतिक संस्थान। आज राज्य की सस्था को छोड़कर बाक़ी कोई बहुत संगठित नहीं है। क्रमश…

(संघ शिक्षा वर्ग, बौद्धिक वर्ग : दिल्ली, जून 14, 1958)