एकांगी नहीं, समाज का सर्वांगीण विचार आवश्यक

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दीनदयाल उपाध्याय

पिछले अंक का शेष…

दि रास्ते दो हों तो जिस रास्ते प्राणों का भय हो उसको हम पसंद क्यों करेंगे। जो रास्ता जंगली, ऊबड़-खाबड़ और डाकुओं के भय वाला है, उस तरफ़ क्यों जाया जाए? यदि एक विशेष रास्ते से जाने से सुख मिलता है। तो यह विचार करना होगा कि वह कितनी देर तक है। मोटर से जाते समय एक स्थान पर दो रास्ते आ जाते हैं। एक रास्ता 2-4 फ़र्लाग अच्छा है और दूसरा रास्ता अंत तक कंकड़ का है, मनुष्य तो जो प्रत्यक्ष देखता है, उसी का विचार करता है। जैसे खीर खाने में अधिक सुख मिलता है, परंतु बाद में पेट ख़राब होता है। जिसको पूरे रास्ते का पता नहीं, वह तो थोड़ी दूर वाले अच्छे रास्ते पर ही चल पड़ेगा। बच्चा तो मिठाई के लिए रोता है, परंतु माता यह जानती है कि उसका पेट ख़राब है। उसे तात्कालिक सुख तो मिलेगा, परंतु आगे तो दु:ख ही है। जो सर्वांगीण विचार करता है, वही सुखी रहता है। इंद्रिय सुख चाहता तो एकांगी विचार है। इंद्रियां तो अलग-अलग विचार करती हैं, शरीर की दृष्टि से कभी नहीं सोचतीं। इसीलिए कई बार गड़बड़ होती है। जीभ अपने सुख का विचार करती है, पेट को क्या होगा, यह नहीं सोचतीं। यदि अच्छे स्थान को देखने के लिए आंखें ललचाती हैं, पैरों की तक़लीफ़ का विचार उसे न होगा। यह ग़लत स्थिति है। विचार नहीं करना चाहिए, जो सारे शरीर को ठीक हो, और शरीर को ही नहीं तो मन के अनुकूल भी होना चाहिए। जैसे भूख लगने पर पक्वान्न देखकर जीभ में पानी आ जाता है, परंतु मन मना करता है कि वह दूसरे का है। कृष्ण भगवान् ने दुर्योधन के यहां भोजन नहीं किया, कहा कि तुमसे मेरी मित्रता नहीं और फिर विदुर के घर जाकर उनकी पत्नी द्वारा दिए गए केले के छिलके प्रेम से खाए। इसको मन का सुख कहते हैं।

मन की तुष्टि न हो तो केवल शरीर के सुख से काम नहीं चलता। शरीर और मन के साथ-साथ बुद्धि का सुख भी तो चाहिए और उसके बाद आत्मा का। परंतु उसको अभी छोड़ते हैं। चारों के सुख का विचार करके चलना चाहिए। मोटर में जाते हैं-शरीर और मन को सुख मिलता है, बुद्धि भी ठीक है, पर उसी समय हमारे सामने दो मोटरों की टक्कर हो जाती है। उसमें एक व्यक्ति मर जाता है और कुछ घायल हो जाते हैं। उनके दु:ख से हम भी दु:खी हो जाते हैं। यदि वह दु:ख बना रहा तो आत्मा सुखी नहीं होगी। यह सुख जिस रास्ते से प्राप्त होता है, वही ठीक है, अन्य रास्ते अलग।

कुछ समय के लिए प्रिय लगने वाला और परिणाम में ख़राब होने वाला प्रेय कहलाता है और जो अंत में कल्याणकारी होता है, प्रारंभ में भी हो सकता है, उसको हम श्रेय कहते हैं। हम लोग तो इसी श्रेय मार्ग पर चलने वाले हैं। बुखार में दवा लेना ही श्रेय होता है, प्रेय चाहे न हो। आम का आचार प्रेय हो सकता है, परंतु अंत में तो दुःखदायी होगा। अतः जो स्थायी सुख दे सके, और जिससे प्राणेषणा बनी रह सके, उसी का विचार हमने किया, इसी से सत्य का शोधन हुआ। स्वयं को हमेशा के लिए कैसे बचाकर रखें। कभी मृत्यु प्राप्त न हो। इसके लिए अमरता की खोज चली। खूब आध्यात्मिक चिंतन हुआ। महाभारत में यज्ञ और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर चलता है

अहन्यहनि भूतानि गच्छन्ति यम् मन्दिरम्।
शेष स्थायित्वभिच्छन्ति कि आश्चर्यतः परम्।

नित्य कोई न कोई यमलोक को जाता ही रहता है। श्मशान में मुरदों के आने का क्रम कभी नहीं टूटता। इसके अतिरिक्त अन्य प्राणी तो एक क्षण में हजारों की संख्या में मरते हैं। आश्चर्य तो इस बात का है, जिनका जीवन क्षणमात्र का है, वे भी मृत्यु से दूर भागकर जीवित रहना चाहते हैं। सब उसी दिशा में जा रहे हैं। परंतु कहते हैं कि हम उधर जाना नहीं चाहते, यह सबसे बड़ा आश्चर्य है। इसी कारण दुनिया चल रही है। विचारों की जितनी भी प्रगति हुई है और आध्यात्मिक चिंतन हुआ है, वह इसी आश्चर्य के कारण हुआ है। हम लोग शरीर से ही जीवित नहीं, आगे भी जीवित रहना चाहते हैं। यह आत्मा दूसरा जीवन धारण करेगी। इस शरीर के कर्मों से हम आगे जिंदा रहेंगे। वैसे नहीं तो राष्ट्र और समाज के रूप में जीवित रहें। तात्पर्य प्रत्येक स्थिति में हमने अमरता की ही आकांक्षा की है। यह शरीर जितना अधिक टिक सकता है। हम टिकाने का प्रयास करते हैं। आत्महत्या को तो महापाप कहा है। आत्मघाती को नरक प्राप्त होता है। ‘जीवेत् शरदः शतम्’ की उक्ति के द्वारा हमने सौ वर्ष जीने की आकांक्षा की है। योगी वगैरह आत्मा के द्वारा चिरंतन सत्य का साक्षात्कार करते हैं। भगवान् से एक रूप होकर जीवित रहते हैं। अमरता की आकांक्षा प्राणेषणा की प्राप्ति ही है। ‘मृत्योर्मा अमृतं गमय’, यह लालच ही हमारे विचारों का आदर्श है।

हमारे यहां भौतिक सुख का ही नहीं, संपूर्ण जीवन का विचार किया गया है। उसके आगे भी जो अंतिम सुख है, उसका विचार भी हमने किया है। इन सबको प्राप्त करने के लिए कुछ पुरुषार्थ करना पड़ता है। जिसको करने से अपना अस्तित्व सिद्ध हो सके, वह पुरुषार्थ है। यदि वह निकल गया तो कुछ प्राप्त नहीं होता। जिससे जीवन का सार्थक्य सिद्ध हो सके और पौरुष अर्थवान बन सके। वह पुरुषार्थ है। जीवन में जो कुछ करणीय है, यह इन पुरुषार्थों के अंतर्गत आ जाता है। ये चार हैं-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। प्राप्त करने हेतु की जाने वाली कोई भी क्रिया इनसे बाहर नहीं है। यह है? जितने भी प्रयत्न हो सकते हैं, करणीय या अकरणीय, सब पुरुषार्थों के अंतर्गत आते हैं। कुछ भी करना कर्म नहीं कहलाता। अच्छे काम करने वाला ही कर्मयोगी या कर्तृव्यवान कहलाता है। जो ख़राब काम करेगा, उसे कर्महीन कहेंगे-वैसे कर्महीन तो कोई नहीं है। सांस लेना भी कर्म है, परंतु जो काम करने चाहिए, वे नहीं करता है, तो कर्महीन कहलाता है। इसी प्रकार हमारे पुरुषार्थों में केवल करणीयों का विचार है। तात्पर्य यह सकारात्मक या रचनात्मक रास्ता है। संपूर्ण जीवन का विचार इसमें हुआ है। शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा इन्हीं के लिए क्रमशः अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष का तंत्र है। कोई बहुत ही सूक्ष्य वर्गीकरण यह नहीं है। अखंडनीय डिब्बों की तरह नहीं है।

महाभारत में विदुर से पांचों पांडवों का प्रश्नोत्तर होता है। अर्जुन ने कहा, अर्थ ही सब कुछ है। उसी से सारा धर्म हो सकता है धनात् धर्मम्’। भीम ने कहा, काम ही बड़ा है, जिसमें इच्छा नहीं, वह क्या कर सकता है? मोक्ष भी प्राप्त करने के लिए इच्छा करनी पड़ती है। मोक्ष के बाद कुछ भी प्राप्तव्य बचता नहीं। जिसके सामने सारे त्रिवर्ण पुरुषार्थ नगण्य हैं। युधिष्ठिर ने कहा कि चारों के लिए प्रयत्न करना चाहिए। बिना त्रिवर्ण के मोक्ष नहीं मिलता है। अर्थ व काम से ही धर्म चलता है। सब एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। प्राण और अन्न में कौन बड़ा है, यह तो कोई प्रश्न नहीं। ‘अन्न वै प्राणः।’ भूख हड़ताल करने का परिणाम निकलेगा कि प्राण क्षीण होकर समाप्त हो जाएगा। इसी तरह मुरदे को रोटी खिलाकर देखो। प्राण बिना अन्न की क़ीमत नहीं है।

अर्थ और काम की प्राप्ति के लिए छोटी-से-छोटी चीज का आधार भी धर्म होना चाहिए। कई बार प्रश्न होता है कि अर्थ का धर्म से क्या संबंध? इसके लिए एक उदाहरण है-जब हम एक रुपए का सामान खरीदते हैं और पांच का नोट देते हैं तो वह चार रुपए वापस देता है। इसमें धर्म कहां है? धर्म नहीं होता तो व्यापार ही नहीं होता, वह चार के बदले तीन रुपए भी लौटा सकता था। यहां पर एक सत्य आ गया। जो वचन दुकानदार ने कहा, उस पर वह टिका रहा। यह धर्म है। इसी से अर्थ की प्राप्ति होती है।
किसान बीज बोता है तो उसका धर्म है कि समय पर और अच्छा बीज बोए। शेख चिल्ली की तरह भुने हुए चनों को तो खेत में डालना नहीं। प्रकृति का अपना धर्म होता है। वह उसकी पालना करती है। उसी धर्म के अनुसार अंकुर निकलता है। उगने के बाद उसकी रखवाली भी करनी पड़ती है। कभी-कभी मुक़दमे भी लड़ने पड़ते हैं। तात्पर्य है, जहां धर्म की कमी होती गई। अर्थ प्राप्ति भी उतनी ही कठिन होती गई। अर्थ की विपुलता से धर्म टिकता है, अन्यथा आपद् धर्म भी आता है। विश्वामित्र ने चांडाल के यहां कुत्ते का झूठा मांस चोरी करके खाया था। रेल में चढ़ने का एक धर्म होता है कि बूढ़ों को पहले चढ़ने-उतरने देना चाहिए। पंरतु जब स्थान नहीं होता है तो फिर बच्चों, बूढ़ों और स्त्रियों पर पैर रखते हुए भी गाड़ी में चढ़ते हैं। अर्थ का जितना बाहुल्य चाहिए, वह नहीं है। अतः हमने कहा कि सब पुरुषार्थ एक-दूसरे के पूरक हैं। अर्थ का तात्पर्य धन से ही नहीं है तो दंड और राज्य भी उसी में आता है। पुलिस न हो तो धर्म का पालन कोई न करे। राज्य का प्रारंभ इसी आधार पर हुआ। अतः पुरुषार्थों का सामूहिक रूप से विचार करना चाहिए। केवल आत्मा का विचार करने से काम नहीं चलता। शरीर मंदिर है तो देवता का विचार तो चाहिए, पर सफ़ाई भी आवश्यक है। मूर्ति भ्रष्ट हो गई और मंदिर का विचार करते रहे, यह भी किस काम का। अत: इन पुरुषार्थों को ‘एकीकृत समग्र’ के रूप में मानकर विचार करना चाहिए। आज के लिए इतना ही पर्याप्त है।

(पाञ्चजन्य, जून 10, 1960)