समृद्धि की मर्यादा

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दीनदयाल उपाध्याय

केवल अंग्रेजों के जाने मात्र से हम स्वतंत्र हो गए, यह समझना पर्याप्त नहीं होगा तो स्वतंत्रता का उपयोग जीवन में आदर्शों को प्राप्त करने की दृष्टि से करना होगा। जीवन को वैभव की ओर ले जाने की अभिलाषा में बाहर की जीवन परंपरा को यहां लाने का प्रयास किया गया तो बहुत लाभ नहीं होगा, बल्कि अपना जीवन आत्म-विस्मृत बनाने के परिणामस्वरूप हम उसे समाप्त कर बैठेंगे। बाहर वालों ने अधूरा और व्यापक एकांगी विचार किया है। हमारा विचार सर्वांगीण और व्यापक है। उस अधूरी चीज़ के लिए इस पूरी को छोड़ना उचित नहीं है। पुरानी परंपराओं से चले आए सत्य के आधार पर ही भावी जीवन की रचना करनी चाहिए।

प्रत्येक प्राणी प्राण धारण करने के लिए सुखेषणा करता है, मनुष्य भी इसका अपवाद नहीं है। जब स्थायी सुख प्राप्त करना होता है तो शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का विचार करना पड़ता है। इनके लिए तंत्ररूप पुरुषार्थ एक-दूसरे के पूरक होते हैं। इसी प्रकार किसी आधार पर सब कर्मों का योग्य वर्गीकरण किया जाता है। इन पुरुषार्थों में कौन बड़ा और कौन छोटा है, यह कहना कठिन है। किसी एक की अपेक्षा करना भी अनुचित है। अंतिम पुरुषार्थ मोक्ष है। इसके बाद कोई प्राप्तव्य बचता नहीं। अर्थ, काम इसके साधन हैं। मोक्ष की दृष्टि धर्म से मिलती है। धर्माचरण सकाम और निष्काम दोनों प्रकार का होता है। सकाम अर्थ और काम को प्राप्त करने वाला और निष्काम मोक्ष को प्राप्त कराता है। निष्काम कर्मयोग का गीता में वर्णन मिलता है। यह जैसे एक और पुरुषार्थ है। अर्थ का अभाव धर्म के लिए घातक है। अर्थ भाव बढ़ गया तो भी धर्म के लिए हानिकारक है। पश्चिम में कहा गया, अर्थ कितना भी बढ़े, लाभकारी होगा। हमने कहा, समृद्धि की भी मर्यादा चाहिए। वह धर्म के साथ-साथ तय करनी पड़ेगी। जिसके पास पैसा नहीं, ऐसे बहुत से लोग चोरी करते हैं- ‘बुभुक्षितः किं न करोति पापम्।’ और जिसके पास पैसा होता है वह उसका उपयोग नहीं जानता तो भी पाप का कारण हो जाता है। व्यक्तिगत और सामाजिक दृष्टि से केवल समृद्धि की लालसा से काम नहीं चलेगा तो धर्म का भाव नहीं होगा, तो यह जीवन के लिए बंधनकारी होगा।

रहिमन पेट ही को कहत, क्यों न भई तू पीठ।।
रीते मान बिगारही भरे बिगारही दीठ॥

अर्थशास्त्र में अनेक चीजों का विचार होता है, जैसे उत्पादन, वितरण, उपयोग आदि। संपत्ति के उपयोग का विचार अपने यहां अर्थशास्त्र में नहीं, तो धर्मशास्त्र में किया जाता है। पश्चिम का अर्थशास्त्र उपभोग को केंद्र मानकर चलता है। Consumption in the beginning and end of economics. पश्चिम का जीवन भोगपूर्ण है। कारण, उपभोग को ही संपूर्ण जीवन की गतिविधियों का प्रेरक बना दिया है। अपने प्राचीन ग्रंथों में उपभोग धर्मशास्त्र के लिए छोड़ दिया गया है।’ धनात् धर्मं ततः सुखम्’ अर्थात् धन से धर्म की प्राप्ति होती है, सुख मिलता है। धनी लोगों के पास सुख नहीं होते हैं। वे खा-पी नहीं सकते हैं। पैसे की रक्षा की चिंता करनी पड़ती है। क्षुधावर्धक खाते-खाते वे रोटी खाते हैं। इसके विपरीत एक मज़दूर सूखी रोटी खाकर ऊपर से ठंडा पानी पीता है और आनंद मनाता है। यदि किसी में कृपणता आ गई तो पैसा पास होने पर भी आनंद दूर चला जाता है।

उपभोग को धर्म के आधार पर नियंत्रित करना चाहिए। उत्पादन का विचार अर्थशास्त्र के आधार पर होता है। अर्थ वृत्तिमूलक है। अपना-अपना व्यवसाय करना वृत्ति कहलाता है। वृत्ति के बिना अर्थ नहीं बनता है। यह तो लाभकारी रोजगार है। जिसके पास काम नहीं है, उसे अर्थ नहीं मिलेगा। तात्पर्य प्रत्येक को काम मिलना चाहिए। पश्चिम में भी इसी बात को स्वीकार किया गया है कि अर्थनीति का आधार पूर्ण रोजगार होना चाहिए। सन् 1930 में जब मंदी’ आई तो कल-कारख़ाने बंद हो गए। उस समय एक ही रास्ता था कि सब लोगों को काम मिले। एक को काम मिलता है तो वह दूसरे को देता है। जैसे कपड़ा बुनने वाले को काम मिलता है तो वह किसान और नाई को काम देगा। भीख मांगना भी दूसरों पर आधारित है। यदि सभी बेकार हो जाएंगे तो एक-दूसरे के सामने हाथ पसारेंगे। विचार का प्रारंभ इस आधार पर करें कि समाज को रोजी देनी चाहिए, रोटी नहीं। वर्ण व्यवस्था के मूल में यही बात है। यह पंचवर्षीय योजना नहीं है तो हजारों वर्षों से रोज़गार का अधिकार चल रहा है। काम करना धर्म है। ‘स्वधर्मे निधनं श्रेयः’ यह बात कर्तव्य के नाते चली थी। आज इसे अधिकार का रूप दे दिया गया। समाज व्यवस्था में काम करने का अधिकार सुरक्षित है। आज प्रत्येक के सामने काम की अनिश्चितता है। दरवाजों पर अर्जियों के ढेर पड़े रहते हैं, ‘yours most obedient’ नाम से। व्यापारी के सामने भी कल क्या होगा, इसकी चिंता रहती है। अत: जीवन की सारी शांति चली जाती है। जब धंधों का ही पता नहीं तो पच्चीस वर्ष पढ़ने का क्या उपयोग? जो स्कूल में जाता है तो चार आदमी के कहने के अनुसार विषय ले लेता है। (एक विद्यार्थी की विज्ञान के स्थान पर वाणिज्य लेने की घटना)।

दूसरी घटना एक अध्यापक की है, जो सैन्य लेखाकार होते हुए नौकरी की, फिर वापस दुकान करता है। हम विचार करें कि एक ओर तो कारख़ानों के लिए इंजीनियर नहीं है और दूसरी ओर पढ़े-लिखे लोगों में बेकारी। जिसको शिक्षा देते हैं, उनका आगे का विचार ही नहीं होता है। यदि काम निश्चित हो तो उसमें विशेष योग्यता प्राप्त कर अर्थ उत्पादन की प्राप्ति वह कर सकेगा और इस व्यवस्था में सामूहिक रूप से अर्थ उपार्जन ज्यादा हो सकेगा। भोजनालय में रोटी और शाक पकाने वालों को विपरीत काम दे देने पर परिणामतः जिसको जो काम आता है, वही काम उसे देना चाहिए। पेट के लिए ऐसा मार्ग क्यों चुनें, जिसमें वह कुशल नहीं है। कुशल व्यक्ति दो-तीन घंटे काम कर लेते हैं। शेष समय समाज चिंतन, साहित्य, कला और मोक्ष की चिंता करते हैं। पेट भरने का यह छोटा सा काम है। इस थोड़े से समय में करना तभी संभव है, जबकि व्यक्ति को वही काम दिया जाए, जिसमें वह योग्य है, अन्यथा उसे पूरा दिन लग जाएगा। योग्यता होने पर ही रस आता है। योग्यता के अतिरिक्त उसमें प्रवृत्ति भी चाहिए। अन्यथा बोझा लगेगा। किसी को कुरसी काटती है और कोई उस पर से उठना ही नहीं चाहता। संघ के कार्यक्रम में एक वकील साहब को अध्यक्ष बनाया। कोर्ट में वे घंटों बहस करते हैं, परंतु उस कार्यक्रम में उनकी ज़बान ही नहीं खुली। केवल ‘क’क’क’:.’ करके बैठ गए। वे कोर्ट में रस ले सकते हैं, क्योंकि उसमें प्रवत्ति है। अत: वहां रस आता है।

अन्य स्थानों पर काम और जीवन, ये दो अलग-अलग वस्तु हैं। 6 घंटे का काम और 18 घंटे का उनका जीवन होता है। हमारे यहां जीवन 24 घंटे का है। केवल पापी पेट भरने के लिए हमने 6 घंटे की मृत्यु नहीं मानी। एक सज्जन जर्मनी से आए। उन्होंने बताया कि वहां पर आदमी भूत की तरह काम करते हैं, परंतु एक बात है कि 5 दिन काम करते हैं और शनिवार-रविवार को दो दिन शैतान की तरह आनंद करते हैं। दो दिन जीते हैं और 5 दिन मेहनत करते हैं। हमने कहा कि इन 5 दिनों में भी रस लो, आनंद लो, तभी जीवन के साथ मेल बैठेगा। खाने जितना ही आनंद बनाने में भी आता है। बेटे को खाने में आनंद आता है तो मां को खिलाने में। प्रवृत्ति के साथ काम का मेल बैठ जाए तो फिर थोड़े से थोड़े समय में कुशलता के साथ काम होता है। कवितादि कलाओं में आनंद लिया जाता है। बढ़ी हुई क्षमता से शक्ति का अधिक-से-अधिक उपयोग होता है और इस तरह देश भर की अधिक-से-अधिक शक्ति का उपयोग होगा तो फिर अर्थ का अभाव नहीं रह सकता।

कई लोग कहते हैं कि यह तो बंधन है कि जीवन भर एक ही काम करते रहो। हम कहते हैं कि वह तो अपना दृष्टिकोण है। यह व्यवस्था भी तो और बंधन भी। उदाहरणार्थ हम गाड़ी में अपनी सीट रिज़र्व कराते हैं और वह किसी बीच में मिलती है। तो उसके लिए हम हठ नहीं कर सकते कि सीट खिड़की के पास ही मिले। यदि उस व्यवस्था को हम नहीं मानते हैं, तो भीड़ के अंदर सीट मिलने की अनिश्चय ही चिंता धारण करनी पड़ेगी। उस चिंता से बचने के लिए ही आरक्षण है। इसके बाद हमें घंटे भर पहले स्टेशन आने की आवश्यकता नहीं रहती। जीवन की गाड़ी में भी आरक्षण है और इसी का नाम व्यवस्था है, बंधन नहीं। जो इस बात को नहीं मानता, उसकी बुद्धि पर तरस आता है। किसी कारण यह धारणा बन जाए कि नं. एक बड़ा होता है और नं. पांच छोटा, तो फिर नं. एक के लिए झगड़ा होता है। वास्तव में सभी सीट बराबर हैं। खिड़की पर बैठने पर यदि हवा आती है तो कोयला भी तो आता है। इसके विपरीत बीच में बैठने वाला धूप से बच पाएगा। हर समय हानि-लाभ होता रहता है। आदमी जब तक ही वस्तु के लिए आग्रह करता है तो भेदभाव उत्पन्न हो जाता है। बाहर वालों ने इसी बात का प्रचार किया, अन्यथा हमारे चारों वर्ण में झगड़े का कोई कारण नहीं है।
क्रमश:…

(संघ शिक्षा वर्ग, बौद्धिक वर्ग: नई दिल्ली )
(-पाञ्चजन्य, -जून 11, 1960)