सामूहिकता का भाव

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पं. दीनदयाल उपाध्याय

गतांक से…

म लोग गणित पढ़ते हैं तो उस गणित में इकाई, दहाई, सैकड़ा, हजार इस प्रकार की गिनती होती है। अगर हम राष्ट्र का विचार लेकर चलें तो गणित की गिनती का यह तरीक़ा बदल जाएगा। वहां एक और एक दो नहीं होते, एक और एक ग्यारह होते हैं। राष्ट्रीयता रही तो उसके आधार पर संगठन का विचार आया तो एक-एक मिलकर ग्यारह, एक सौ ग्यारह, एक हजार एक सौ ग्यारह, ग्यारह हजार एक सौ ग्यारह, बढ़ते चले जाएंगे। अगर वह राष्ट्रीयता नहीं रही तो आप जानते हैं, दशमलव लगने के बाद फिर एक लगाइए तो उसकी क़ीमत एक की जगह एक बटा दस और एक और एक कर दीजिए तो ग्यारह बटा सौ यानी क़ीमत घटती चली जाएगी। इधर राष्ट्र के समक्ष एक को जितना आप आगे लेते चले जाएंगे, यह उतने गुना आगे बढ़ता चला जाएगा। आगे दस गुना, बीस गुना, सौ गुना, हजार गुना, लाख गुना, करोड़ गुना यानी जिसको ‘प्लेस वैल्यू’ कहते हैं तो उतना ही उसका महत्त्व होता चला जाएगा और दशमलव को लगाकर फिर आप उसको नापेंगे तो उतना ही कम होता चला जाएगा। जब राष्ट्र के साथ कोई भी व्यक्ति खड़ा होता है, तो व्यक्ति की बड़ी भारी कीमत होती है और एक-एक व्यक्ति की क़ीमत उतने गुना जाकर आगे बढ़ जाती है। देश का राष्ट्रपति एक व्यक्ति है, परंतु कितना बड़ा महत्त्व उसका हो जाता है, क्योंकि वह राष्ट्र का प्रतिनिधि है और अगर दूसरी तरफ राष्ट्र का विचार नहीं रहा तो फिर हम कहां हैं? हिंदुस्तान के पचास करोड़ लोगों में से मैं, एक तो वैसे भी अगर देखेंगे, तो एक बटा पचास करोड़, बल्कि मैं तो कहूंगा कि एक बटा पचास करोड़ भी नहीं, यह दशमलव शून्य से लेकर पचास करोड़ पर ले आइए और वहां आखिर में जाकर के एक दीजिए, उतनी ही शान यानी पचास करोड़ शून्य लगाने के बाद फिर एक इतनी ही शायद आपकी क़ीमत होगी, ज्यादा कोई क़ीमत नहीं। दूसरी तरफ अगर राष्ट्र का विचार लेकर के आप चलेंगे तो पचास करोड़ शून्य लगाने के बाद फिर एक लिखिए, वह जितना मूल्य होगा, जितनी उसकी क़ीमत होगी, उतनी उसकी क़ीमत हो जाएगी, तो यह राष्ट्र नाम की जो चीज़ है, यह अत्यंत महत्त्व की है, उसी में सबका वैभव खड़ा होता है, इस तथ्य को समझें और फिर उसके अनुसार अपना संपूर्ण व्यवहार करें।

यह संस्कार और व्यवहार कैसे करेंगे? यह आदत डालनी पड़ती है और उसमें फिर छोटा-छोटा काम बड़ी-बड़ी बातें इनकी महत्ता समझनी होती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और बाक़ी के संगठनों का अंतर समझना होगा। संगठन की बात, देश की बात, एकता की बात, सब लोगों ने कही और संघ ने इन बातों को व्यवहार में किया। क्या छोटी सी बात से छोटे-छोटे कार्यक्रम करके बड़े लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है? हां, इन्हीं से संस्कार बनते हैं, इसलिए हम लोग संघ स्थान पर आते हैं। हमारे सामने जीवन में रोज़ यह सवाल आता है कि क्या करें? संघ स्थान पर जाएं या आज तो सिनेमा देख लिया जाए। कोई अच्छा सिनेमा आया है तो सिनेमा देखें या संघ स्थान पर जाएं, पर माताजी ने कहा है कि नहीं, नहीं आज तो तू यहीं बैठ जा और मुझे जरा थोड़ी सी रामायण सुना दे और हम माताजी को रामायण सुनाने के लिए बैठें या संघ स्थान पर जाएं, तो दोनों में फिर मेल करना पड़ता है। हर जगह फिर हम कहते हैं कि नहीं, नहीं हम संघ स्थान पर जाएंगे और माताजी को कहते हैं कि नहीं, मैं अभी संघ स्थान से लौटकर आता हूं और फिर देखो तुम्हारे सोते-सोते तुम्हें अच्छी तरह से रामायण सुनाऊंगा। हम प्राथमिकताओं में मेल बैठाना सीखते हैं। इस प्रकार से धीरे-धीरे हमारे मन के अंदर संस्कार आता है। फिर एक-एक काम करते-करते फिर हम अपनी पढ़ाई का निर्णय करते हैं, नौकरी का निर्णय करते हैं। बाक़ी के काम-धंधे का निर्णय करते हैं। कौन सा काम करें, जो देश के लिए लाभदायक होगा, वह काम करें या न करें, रोज यह सवाल आकर सामने खड़े हो जाते हैं।

आदमी अगर इस प्रकार से विचार करता चला जाएगा, तो इसके जीवन में नित्य सिद्धता आएगी। धीरे-धीरे चीज आती है, नहीं तो कई ऐसे लोग निकल आते हैं, कहते हैं कि नहीं-नहीं, चिंता मत करिए, अपने को क्या है, जब मौका आएगा, हम तैयार हैं। बहुत बड़ा वर्ग मिलता है, जो कहता है कि जब मौक़ा आएगा तो हम तैयार हैं। परंतु कठिनाई ऐसी होती है कि मौके की सूचना आपको कौन देगा? बिना अभ्यास के आप क्या करेंगे? जैसे लोग कहते हैं कि आखिरी समय पर भगवान् का स्मरण कर लिया तो एकदम मुक्ति मिल जाती है, परंतु आखिरी समय पर भगवान् का स्मरण? अरे, जिसने जिंदगी भर कोई ध्यान नहीं किया। भगवान् का नाम ही नहीं लिया, भगवान् का स्मरण नहीं किया तो आखिरी समय पर स्मरण कैसे कर लेंगे? सवाल आएगा कि जो छोटी- मोटी बात देश के लिए नहीं कर सकता, वह फिर जान दे देगा? लोग तो कहते हैं कि हमारी जान हाजिर है। तो ऐसे बहुत से लोग मिलते हैं कि जिनके यहां अभी जाओ, अपने यहां लखनऊ में तो यह पद्धति है कि वे कहेंगे, साहब! क्या सेवा करें, जान हाज़िर है। आप उनसे कहो, फलानी-फलानी चीज़ चाहिए। एक बार ऐसा ही हुआ था कि वहां पर, अपना ऐसे जैसे यह शिविर लग रहा है, ऐसे ही शिविर था तो एक सज्जन के यहां गए और उनसे कहा कि देखिए, कुछ टेंट चाहिए। उस ज़माने में तो हम लोग इधर-उधर से मांगकर के ही टेंट इकट्ठा किया करते थे, क्योंकि ठेके-वेके की उस समय कल्पना नहीं थी। उस समय अपनी ग़रीबी की हालत में मांगने के लिए गए थे। बोले, टेंट कुछ थे तो सही मगर पिछले साल मेले पर गए थे, अभी आए नहीं। फिर हमने कहा कि टेंट नहीं हैं तो दरी वगैरह होगी। वही आप दे दीजिए। बोले, दरी तो पता नहीं, वह तो फलानी शादी में गई थी, वहां से अभी लौटकर ही नहीं आई है। और वह फिर बोले कि मेरे लायक कोई सेवा हो तो बताइए। सब आपके लिए हाजिर है। उनसे कहा कि पेट्रोमैक्स वगैरह आपके यहां हैं। बोले कि भाई, पैट्रोमैक्स तो हमारे यहां बिल्कुल है ही नहीं। पैट्रोमैक्स भी नहीं। फिर उनसे कोई चीज़ के लिए कहें, तो वे न कर देते थे। परंतु कहते थे कि आप हुकुम करिए, जो कुछ है आपके लायक सेवा, हम तो आपके ही हैं। ऐसे अपने देश में बहुत मिलते हैं कि जो कहते हैं कि नहीं-नहीं भाई, देश के लिए सबकुछ है। देश के लिए काम करने का मौक़ा आता है तो कहते हैं कि जान हाज़िर है।

सच बात है कि हम छोटा-छोटा काम देश के लिए कैसे करेंगे? इसका संस्कार मन के ऊपर पड़ता रहे। चार लोग मिलकर कैसे करें, यह भी तो कोई सरल बात नहीं है कि चार लोग मिलकर काम कर सकें। इसके लिए भी ट्रेनिंग लेनी पड़ती है। इसके लिए भी मन की तैयारी लगती है। अब हम लोग तो यहां पर जब सामूहिक रोटी होती है, उसमें थोड़ी सी तक़लीफ़ भी होती है। जमीन के ऊपर बैठकर खाइए तो फिर नमक की और शक्कर की कमी जो है, वह भगवान् अपनी पृथ्वी माता भी थोड़ा-बहुत पूरा कर देती है। अब इसकी आदत चाहिए और जिसको आदत नहीं है, वह तो समझता है कि अरे-अरे, कहां आकर बैठ गए और चार लोग, इधर भी कोई बैठा है उधर भी कोई बैठा है, चार लोगों के अंदर बैठ करके बातें बहुत कर सकते हैं। कुछ लोगों को भोजन का मौका आए तो बड़ा बुरा लगता है, कोई सामने बैठा हो और भोजन करें, वे कहते हैं कि नहीं-नहीं, भोजन तो अकेले ही करना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं, चार लोग मिलकर कैसे काम कर सकते हैं? चार लोग मिलें तो फिर हम एक-दूसरे से लड़ेंगे नहीं, बल्कि प्रेम के साथ, सहयोग के साथ काम कर सकेंगे। इसके लिए भी एक संस्कार की जरूरत होती है, शिक्षण की जरूरत होती है। आदत की जरूरत होती है। इस प्रकार का विचार सामने रखें हममें से प्रत्येक का ध्येय, जीवन का ध्येय, पढ़ाई-लिखाई सबका ध्येय यह हो कि राष्ट्र के लिए हम सब मिलकर काम करेंगे। इस एक विचार को लेकर हम चलें, इसके लिए ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हुई, इसलिए हम लोग कार्य कर रहे हैं।
(समाप्त)
-शीत शिविर वर्ग, बौद्धिक वर्ग: फरवरी 4, 1968