समाजवाद और लोकतंत्र

| Published on:

दीनदयाल उपाध्याय

द्यपि भारत में समाजवादी विचार और समाजवादी पार्टियां उस समय से ही विद्यमान हैं, जब से यूरोपीय विचारों ने यहां के शिक्षित लोगों को प्रभावित करना आरंभ किया, तथापि सैद्धांतिक रूप में समाजवाद यहां के निवासियों के राजनीतिक या सामाजिक जीवन में अपना कोई विशेष स्थान नहीं बना सका। परंतु कांग्रेस के आवडी अधिवेशन के पश्चात् जिसमें कांग्रेस ने समाजवादी समाज रचना को अपना अंतिम लक्ष्य घोषित किया, स्थिति बदल गई। जहां तक जनसाधारण का प्रश्न है, वह आज भी उससे उतनी ही दूर है। कांग्रेस द्वारा समाजवाद के लक्ष्य को अपनाए जाने के बाद भी यह जनता का हृदय स्पर्श नहीं कर पाई है। जनता उसके प्रति उत्साहित नहीं है। परंतु ऐसा समझा जाने लगा है कि सरकार की नीतियां उसी के अनुरूप ढलती जा रही हैं और इस कारण जो सरकारी निर्णयों को प्रभावित करने का विचार करते हैं, उन्हें अवश्य चिंता हो गई है।

आज इस विचारधारा के अनुयायियों की संख्या के अनुपात में इसे कहीं अधिक महत्त्व प्राप्त हो गया है। साथ ही प्रधानमंत्री की लोकप्रियता और सम्मान के कारण कुछ समय के लिए तो ऐसा लगने लगा है, मानो समाजवाद यहां की जनता का सर्वप्रिय जीवन दर्शन हो गया हो। आज अपने आप को समाजवादी कहना एक फ़ैशन सा लगता है। समय के प्रवाह में बहने वाली राजनीतिक पार्टियों में तो इस बात की होड़ सी लगी है कि उनमें से कौन अपने को समाजवाद का बड़ा पुरस्कर्ता सिद्ध कर सकता है। हिंदू महासभा भी हिंदू समाजवाद की बातें करने लगी है। वैदिक विचारकों ने भी पुराना साहित्य कुरेदकर ‘वैदिक समाजवाद’ की नई खोज कर डाली है।

समाजवाद के विभिन्न स्वरूप

इस देश में कांग्रेस समाजवाद का नारा बुलंद करनेवाली प्रथम पार्टी नहीं है। कांग्रेस द्वारा समाजवाद स्वीकार किए जाने के पूर्व भी यहां समाजवादी पार्टियां थीं और आज भी हैं। विभिन्न समाजवादी पार्टियों के असंतुष्ट लोग भी अपने को समाजवादी ही कहते हैं। इतना ही नहीं, उनका तो दावा यह होता है कि वे जिस समाजवाद को मानते हैं, वही अधिक शुद्ध है। इस स्थिति ने समाजवाद के बारे में और अधिक भ्रम बढ़ा दिया है। यूरोप में वैसे भी समाजवाद के अनेक प्रकार विद्यमान हैं। रूजवेल्ट, हिटलर, मुसोलिनी और स्टालिन सभी अपने आपको समाजवादी कहते थे।

ऐसे भी लोगों की कमी नहीं, जिन्होंने स्वयं प्रत्यक्ष राजनीति से दूर रहने के बाद भी अनेक प्रकार के समाजवादी सिद्धांतों की रचना कर डाली है। भारत में इन सभी प्रकार के समाजवादी पंथों के अनुयायी विद्यमान हैं। कुछ इस प्रकार के भी प्रयास यहां होते रहे हैं, जिनमें यूरोपीय समाजवाद को भारतीय सामाजिक सांस्कृतिक जीवन के अनुरूप ढालकर स्वीकार करने का आग्रह रहा है।

बाबू जयप्रकाश नारायण आज भी समाजवादी बने हुए हैं। एम.एन. राय ने अपने जीवन के अंतिम काल में समाजवाद का पूर्णत: त्याग कर दिया था तथापि मृत्यु के समय भी वे रेडिकल सोशलिस्ट ही कहलाए। उन राजनीतिज्ञों के साथ-साथ जो बिना समझे-बूझे किसी भी समय कोई भी बात कह सकते हैं, अन्य सिद्धांतवादी और राजनीतिज्ञों ने भी इस समाजवाद के बारे में ऐसी धारणाएं पैदा कर दी हैं कि लोग यही नहीं समझ पाते कि वे हैं कहां पर।

प्रेरणा का मूल स्रोत

एक बार ऐसा व्यंग्य किया गया था कि समाजवाद कोई जीवन-दर्शन नहीं अपितु एक अटपटी वृत्ति मात्र है। यदि हम समाजवादियों के विचारों का विश्लेषण करें तो बहुत अंशों तक यह उक्ति सही प्रतीत होगी। सभी समाजवादियों की यह एक सर्वमान्य अभिलाषा है कि साधारण मनुष्य का जीवन-स्तर उठया जाए। वे उन लोगों के विरुद्ध, जिन्हें वे कामचोर मानते हैं या मजदूरों के उचित लाभांशों की प्राप्ति में बाधक समझते हैं, मेहनतकश मज़दूरों का पक्ष ग्रहण कर लेते हैं।

हमें शायद यह जानकर आश्चर्य होगा कि स्वामी विवेकानंदजी भी अपने आपको समाजवादी कहते थे और अपनी मान्यताओं की पुष्टि में बहुत कुछ इसी प्रकार के तर्क भी देते थे। एक भाषण में उन्होंने कहा भी था कि ‘मैं भी एक समाजवादी हूं।’ इसलिए नहीं कि समाजवाद कोई पूर्ण दर्शन है, अपितु : इसलिए कि मैं समझता हूं कि भूखे रहने की अपेक्षा एक कौर मात्र प्राप्त करना भी अच्छा है। सुख-दुःख का पुनर्विभाजन सचमुच ही उस स्थिति से अधिक श्रेयस्कर होगा, जिसमें निश्चित व्यक्ति ही सुख या दु:ख के भागी होते हैं। इस कष्टपूर्ण संसार में प्रत्येक को अच्छा दिन देखने का अवसर मिलना ही चाहिए। बुभुक्षितों के प्रति हार्दिक सहानुभूति और समाज में उन्हें समान स्तर और सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त करा देने की यह इच्छा आज भी प्रत्येक समाजवादी को प्रेरणा देती है।

उनकी सदिच्छा सराहनीय है। इस दुःख और कष्टों से परिपूर्ण विश्व में असमानता, अन्याय, दुःख, कष्ट, उत्पीड़न, प्रताड़न, दासत्व, शोषण, क्षुधा और अभाव को देखकर कोई भी व्यक्ति जिसे मानवीय अंत:करण प्राप्त है, समाजवादी वृत्ति अपनाए बिना नहीं रह सकता। परंतु समाजवाद यहीं तक सीमित नहीं है। यह ठीक है कि वह इस दुःखपूर्ण स्थिति का अंत चाहता है। उसने स्थिति का विश्लेषण किया है, रोग का निदान किया है और उसके लिए औषधि की योजना भी की है। यहां पर उन्हें मार्क्स का शिष्यत्व स्वीकार करना पड़ता है। उसने अपने समकालीन समाजवादी विचारों को एकत्र कर एक ऐसी विस्तृत विचार-सरणी प्रस्तुत की, जो आगे आनेवाली पीढ़ियों को भी आकर्षित करने की क्षमता रखती थी।

मार्क्स से विचार भिन्नता रखने वाले समाजवादी भी उसके अकाट्य तर्कों का खंडन नहीं कर पाते थे। उसने एक करणीय योजना प्रस्तुत की और बोल्शेविकों ने उस स्वप्न को साकार करने के लिए सफलतापूर्वक रूस की सत्ता पर अधिकार कर लिया। बोल्शेविक क्रांति से लेकर आज तक का रूस का इतिहास विभिन्न क्षेत्रों में अनेक सफलताओं के बावजूद इस पद्धति की अपूर्णता का ही द्योतक रहा है।

लोकतंत्र पर हमला

समाजवाद का पहला हमला हुआ लोकतंत्र पर। लौह आवरण के पीछे रहनेवालों को छोड़कर समस्त विश्व के समाजवादी विचारक आतंकित हो उठे। उन्हें लोकतंत्र में आस्था थी। सच पूछा जाए तो लोकतांत्रिक आदर्शों के कारण ही उन्हें जनसाधारण के प्रति सहानुभूति थी और वे उससे छुटकारे की बात करते थे। लोकतंत्र ने ही उन्हें राजनीतिक समानता प्रदान की थी। पर वैज्ञानिक अन्वेषणों और यंत्रीकृत उत्पादन पद्धति ने उन्हें आर्थिक विषमता के गड्ढे में ढकेल दिया। परिणामतः ऐसी राजनीतिक परिस्थिति में समानता का कोई महत्त्व न रहा। मार्क्स ने वर्गविहीन समाज का नारा लगाया। अंतरिम अवधि तक मजदूरों के अधिनायकवाद की बात कही गई। इसमें संदेह की पूरी गंजाइश थी। लोगों को एक संदिग्ध वस्तु की प्राप्ति के लिए उस चीज़ (राजनीतिक समानता) का त्याग करने को कहा गया, जो उन्हें पहले से ही प्राप्त थी। उन्हें इस बात की किंचित् भी कल्पना नहीं थी कि समाजवाद उन्हें पहले से ही प्राप्त वस्तु भी छीन लेगा। वे तो पहले से ही अभावग्रस्त थे। समाजवाद के द्वारा उन्हें कुछ प्राप्त होना चाहिए था, न कि उनके पास का ही छीना जाना।

किंतु कुछ देने के पूर्व ही समाजवाद ने उनकी व्यक्तिगत स्वाधीनता और राजनीतिक समानता का अपहरण कर लिया। 28 अप्रैल, सन् 1919 में ही प्रिंस क्रोपाटकिन’ ने पश्चिमी यूरोप के मज़दूरों के नाम एक पत्र में लिखा :

“I owe it to you to say frankly that according to my view, this effort to build a communist republic on the basis of a strongly centralised state, communism under the iron law of party dictatorship is bound to end in failure. We are learing to know in Russia how not to introduce communism. As long as the country is governed by a party dictatorship, the worker and peasants lose their entire significance. It (U.S.S.R.) develops a bureaucracy so formidable, that French bureaucracy which requires the help of forty officials to sell a tree, broken down by a storm on the national high way is a mere begalle in comparision.

(मैं आपको स्पष्ट रूप से यह बताना अपना दायित्व समझता हूं कि मेरे विचार से सुदृढ केंद्रित शासन व्यवस्था के आधार पर, दलीय तानाशाही के फ़ौलादी शिकंजे के नीचे, साम्यवादी गणतंत्र निर्माण करने का प्रयास असफलता के रूप में ही सामने आएगा। रूस से हम इस बात को सीख रहे हैं कि साम्यवाद को प्रवेश करने से कैसे रोका जाए। जब तक देश में दलीय तानाशाही का शासन क़ायम है, तब तक किसान और मज़दूर परिषद् अपना महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं बना सकतीं, वे अपना समस्त वैशिष्ट्य ही खो बैठेंगी। रूसी गणराज्य आज एक ऐसी अभेद्य नौकरशाही को जन्म दे रहा है, जिसके सम्मुख वह फ्रांस की नौकरशाही भी मात खा जाएगी, जिसमें कहीं रास्ते में आंधी से गिरे हुए पेड़ को बेचने के लिए भी चालीस सरकारी अधिकारियों की आवश्यकता पड़ती है।)

सह-अस्तित्व असंभव

यूरोपीय समाजवादियों के नए प्रयासों ने उस तत्त्व को जन्म दिया, जिसे आज जनतांत्रिक समाजवाद का नाम दिया गया है। वे कम्युनिस्टों से मतभिन्नता रखते हुए यह प्रतिपादित करते रहे कि समाजवाद का प्रादुर्भाव जनतांत्रिक ढंग से होना चाहिए। वे एक साथ समाजवाद और जनतंत्र दोनों की आराधना करना चाहते हैं। पर मूल प्रश्न तो यह है कि क्या समाजवाद और जनतंत्र एक साथ पनप भी सकते हैं। सिद्धांतवादी इस प्रश्न पर आशान्वित हैं। पर प्रगतिवादी इस पर विश्वास नहीं करते। समाजवाद इस बात का हामी है कि उत्पादन के समस्त स्रोत राज्य के अधीन होने चाहिए। चूंकि समाजवादी यह समझते हैं कि समाज का राजनीतिक, बौद्धिक और सामाजिक जीवन उसके उत्पादन के स्रोतों के द्वारा ही ढलता है, अतः समाजवादी व्यवस्था में राज्य का, आर्थिक क्षेत्र के साथ-साथ राजनीतिक एवं अन्य क्षेत्रों में भी पूर्ण वर्चस्व रहना आवश्यक है। इससे एक ऐसी स्थिति पैदा होगी, जब उन लोगों के विरुद्ध जो शासन में हैं, लोकतांत्रिक अधिकारों का प्रभावपूर्ण ढंग से प्रयोग करना संभव नहीं होगा। समाजवादी बंदूक की गोली का पहला शिकार निश्चित रूप से कोई लोकतंत्रवादी ही होगा। समाजवाद और लोकतंत्र दोनों साथ-साथ नहीं चल सकते, शेर-बकरी का एक ही घाट पर पानी पी सकना असंभव है।

– यह लेख राष्ट्र जीवन की समस्याएं (1960)
व राष्ट्र चिंतन (1962) में पुनः प्रकाशित हुआ है।
-पाञ्चजन्य, जनवरी 2, 1961