अंधेरा छंटेगा, सूरज निकलेगा, कमल खिलेगा

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भाजपा के 44वें स्थापना दिवस पर विशेष

अटल बिहारी वाजपेयी

मुंबई में आयोजित भाजपा राष्ट्रीय परिषद् में 28 दिसंबर, 1980 को
श्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा दिए गए अध्यक्षीय भाषण का तीसरा भाग―—

लोकतंत्र के प्रति वचनबद्धता

लोकतंत्र तथा धर्मनिरपेक्षता अविभाज्य हैं जो राज्य व्यवस्था विभिन्न मतावलंबियों में भेदभाव करे, उन्हें बराबरी का स्थान न दे, उसे वास्तव में ‘लोकतंत्र’ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि लोकतंत्र जिन मूलभूत मान्यताओं पर आधारित है, उनमें सभी नागरिकों की समता का सिद्धांत भी है। लोकतंत्र से हमारी प्रतिबद्धता उतनी ही मूलभूत है, जितनी धर्मनिरपेक्षता से।

इस अधिवेशन में उपस्थित लोगों में हजारों ऐसे हैं, जिन्होंने 1975-76 में लोकतंत्र पर आए अभूतपूर्व संकट का सामना साहस के साथ किया और हर तरह के कष्ट झेले। हमारे कुछ साथी तो उस संघर्ष में वीरगति को प्राप्त हुए। आज हम उनको केवल अपनी विनम्र श्रद्धांजलि ही अर्पित कर सकते हैं।

विकृत धर्मनिरपेक्षता

यह खेद का विषय है कि कांग्रेस की नीतियों ने धर्मनिरपेक्षता की धारणा का स्वरूप विकृत कर दिया। राजनीतिक कारणों से धर्मनिरपेक्षता का अर्थ केवल अल्पसंख्यक मतावलंबियों के हितों की सुरक्षा मान लिया गया, यद्यपि यह धर्मनिरपेक्षता संप्रदायों तथा वर्गों के संकीर्ण स्वार्थों के तुष्टीकरण का एक सम्मानजनक रूप धारण कर लेती है।

धर्मनिरपेक्षता की सकारात्मक धारणा

वास्तव में धर्मनिरपेक्षता की धारणा कहीं अधिक व्यापक एवं सकारात्मक है। धर्मनिरपेक्षता किस प्रकार लोकतंत्र से जुड़ी है, इसका उल्लेख किया जा चुका है। धर्मनिरपेक्षता राष्ट्रीयता तथा राष्ट्रीय एकात्मकता की भी आश्वस्ति है।

भारतीय जनता पार्टी इसी व्यापक एवं सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता को स्वीकार करती है। भारतीय पृष्ठभूमि में धर्मनिरपेक्ष राज्य व्यवस्था स्थापित करने का उद्देश्य तभी ‘पूर्ण हुआ’ कहा जा सकता है, जबकि धर्म, जाति, भाषा एवं क्षेत्र की सीमाओं के ऊपर उठकर भारतीयता की भावना, जो मेरे विचार से हमारे सभी देशवासियों में मूल रूप में विद्यमान है, को विकसित एवं दृढ़ करने में हम सफल हों।

‘भारतीयता’ का आधार वह मूल्य-व्यवस्था ही हो सकती है, जो भारतीय सभ्यता का अंग है और इस मूल्य-व्यवस्था का विकास विभिन्न धर्मों, विचारधारणाओं एवं अनुभवों से प्राप्त मूल्यों के समन्वय से होता रहा है। हमें सतत इस दिशा में प्रयत्नशील रहना चाहिए कि समन्वय की यह प्रक्रिया आगे बढ़ती रहे। भारतीयों को अच्छे इनसान बनाने हेतु हमें सभी धर्मों के सद्विचारों का उपयोग करना चाहिए।

विफलता के बारह महीने

बारह महीने बीत गए। दिल्ली में अभी तक काम करनेवाली सरकार के दर्शन नहीं हुए हैं। संसद का शीतकालीन अधिवेशन अभी-अभी समाप्त हुआ है। 24 दिनों में 10 अध्यादेशों पर मुहर लगाकर उसने नया रिकॉर्ड कायम किया है। निरोधक नजरबंदी आदि काले कानून को पारित करने में उसने आधी रात तक परिश्रम करने की कर्त्तव्यपरायणता दिखाई है।

14 अगस्त, 1947 को संविधान सभा में नेहरू जी ने कहा था– ‘जब घड़ी आधी रात का घंटा बजाएगी और जब विश्व सो रहा होगा, तब भारत एक नए जीवन तथा स्वतंत्रता में जागेगा।’

22 दिसंबर, 1980 को राज्यसभा द्वारा आधी रात को राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम की पुष्टि देखकर कोई यह भी कह सकता था कि ‘जब सारा भारत सो रहा है, तब जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि, लोगों को रोटी देने के बजाय उसकी आजादी को छीनने के लिए नई बेड़ियां गढ़ने में लगे हैं।’

सर्वोच्च न्यायालय भी अपनी जगह है। मिनवां मिल्स के मामले में उसने पुनः अपने इस दृष्टिकोण को दोहराया है कि हमारे संविधान के कुछ आधारभूत तत्त्व हैं, जिनके साथ संसद खिलवाड़ नहीं कर सकती। किंतु सरकार उस निर्णय को रद कराने पर तुली हुई है। सर्वोच्च न्यायालय को प्रगति के रास्ते में रुकावट के रूप में चित्रित किया जा रहा है। जजों के अनेक स्थान खाली पड़े हैं।

प्रेस सामान्यतः अपने दायित्व के प्रति जागरूक है। भागलपुर में पुलिस द्वारा हवालातियों की आंखें फोड़ने का पैशाचिक कृत्य न जाने कब तक चलता रहता, यदि ‘संडे’ तथा ‘इंडियन एक्सप्रेस’ उसको प्रकाश में लाने का साहस और उद्यम नहीं करते।

प्रेस पर अंकुश

किंतु पत्र-पत्रिकाएं एक अव्यक्त आशंका से आक्रांत हैं। बंगलोर में कुछ दैनिक पत्रों के कार्यालयों का घेराव और उड़ीसा में पत्रकार महापात्र की पत्नी श्रीमती छवि रानी का पहले सामूहिक बलात्कार तथा फिर उनकी हत्या, बाकी प्रेस को सीधी राह पर रखने के लिए यदि काफी नहीं है तो मालिकों की बांह मरोड़कर पत्रों को ठीक करने की कला नई दिल्ली अच्छी तरह जानती है।

सरकारी मीडिया का दुरुपयोग

प्रचार के सरकारी साधनों, रेडियो तथा टी.वी. का भारी दुरुपयोग, औचित्य की सभी सीमाएं लांघकर, लोकतंत्र के साथ एक भोंडे मजाक का रूप ले रहा है। अदूरदर्शी शासक यह समझने के लिए तैयार नहीं हैं कि यदि उनके प्रचार साधन अपनी विश्वसनीयता खो बैठे तो वे सत्ता पक्ष की डुगडुगी पीटने के घटिया काम को पूरा करने लायक नहीं रहेंगे।

पंगु प्रशासन

केंद्र में सरकार है, किंतु प्रशासन नहीं है। प्रधानमंत्री हैं, किंतु उनकी पकड़ नहीं है। सचिवालय काम कर रहा है, किंतु सेवाओं को जैसे लकवा मार गया है। फैसले नहीं लिये जा रहे हैं। जिम्मेदारी लेने के लिए कोई तैयार नहीं है। मंत्री भयभीत हैं, न जाने कब पं. कमलापति त्रिपाठी की तरह रास्ता दिखा दिया जाए। अफसर सहमे हुए हैं, पता नहीं किस घड़ी कर्तव्यपालन के पुरस्कार के रूप में उन्हें सी.बी.आई. के डी.आई.जी. श्री एन.के. सिंह की तरह कारागार और अपमान का शिकार बना दिया जाए।

आपातकाल में लांछित मंत्रियों और अफसरों की वापसी ने सारी प्रशासनिक व्यवस्था को झकझोर दिया है। चुनाव में सफलता, जो स्वभावतः अनेक परिस्थितियों पर निर्भर करती है, शाह आयोग के निष्कर्षों को रद्द नहीं कर सकती, न मारुति के भारी घोटाले को सदाचार का भव्य स्मारक ही बना सकती है।

दलबदल को प्रोत्साहन

स्वार्थसिद्धि तथा पदलोलुपता पर आधारित दलबदल की अनैतिक प्रक्रिया पर पूर्ण विराम लगाने के बजाय दलगत निष्ठाओं की खरीद का जैसा खुला बाजार गत बारह महीनों में गरम हुआ है, उससे न केवल राजनेताओं की बची-खुची इज्जत मिट्टी में मिल गई है, बल्कि दलपति को भी सांघातिक चोट लगी है।

असम में जब विधानसभा का ‘ससपेन्डिड एनीमेशन किया गया था, तब कांग्रेस (आई) की सदस्य संख्या 8 थी। अब यह बढ़कर 56 हो गई है। ध्यान देने की बात यह है कि यह शक्तिवृद्धि तब हुई, जब असम की युवा पीढ़ी विदेशी घुसपैठ से अपने प्रदेश को बचाने के लिए जीवन और मृत्यु के संघर्ष में जूझ रही थी। यह संघर्ष आज भी जारी है।

पुलिस-अत्याचार

मुरादाबाद में जनता के एक बड़े भाग में इस भावना का घर कर जाना कि उसे पी.ए.सी. से संरक्षण नहीं मिल सकता। भागलपुर में पुलिसजनों का यह विश्वास कि हवालातियों की आंखें फोड़कर उन्होंने अपराधों की रोकथाम का अपना कर्तव्य ही पूरा किया है; बागपत में भरे बाजार में पुलिस द्वारा एक महिला को नंगा करने की शर्मनाक घटना और उससे भी ज्यादा कष्टदायक यह तथ्य कि सैकड़ों व्यक्ति उस चीरहरण को टुकुर-टुकुर देखते रहे यह मात्र प्रशासनिक विफलता या सामाजिक संवेदना के ह्रास की तसवीर के कुछ नमूने नहीं, चौखटा चरमराने और शीराजा बिखरने के संकट का सबूत है।

इस संकट के नामाभिधान के बारे में भले ही मतभेद हो, इस बारे में कोई विचार भिन्नता नहीं हो सकती कि यह संकट अभूतपूर्व है और किसी एक व्यक्ति का उतरता हुआ जादू, किसी एक दल का बिखरता हुआ ढांचा या टूटता हुआ प्रभाव या प्रशासन का लहूलुहान दबदबा इसका सामना नहीं कर सकता।

आजीवन राष्ट्रपति स्थापित करने का कुत्सित विचार

जो लोग वर्तमान संसदीय प्रणाली की जगह राष्ट्रपति पद्धति की वकालत यह सोचकर कर रहे हैं कि उससे सभी रोगों का रामबाण इलाज हो जाएगा, वे या तो भोले हैं या मक्कार हैं; उनके मक्कार होने की ही संभावना ज्यादा है।

‘आजीवन राष्ट्रपति’ तथा ‘निर्वाचित न्यायपालिका’ की बातें किसी बहके हुए दिमाग की उपज नहीं, एक गहरी साजिश का संकेत है, जो नकारात्मक मतों के बल पर प्राप्त सत्ता को हमेशा के लिए हथियाने की दृष्टि से भारतीय गणतंत्र को नष्ट करने पर तुली है। इस साजिश को बेनकाब करना चाहिए और पूरी तरह पकने से पहले ही कुचल देना चाहिए।

चुनाव प्रणाली में सुधार

1980 के चुनाव परिणामों का विश्लेषण करने से यह बात एक बार फिर स्पष्ट हो जाती है कि जो दल मतदाताओं की बहुसंख्या का समर्थन प्राप्त करने में विफल रहा, वह सत्ता में आने में सफल हो गया। गत चुनाव में कांग्रेस (आई) को लोकसभा में 525 स्थानों में से 351 स्थान मिले, किंतु वोटों की दृष्टि से जिन मतदाताओं ने अपने मताधिकार का उपयोग किया, उनमें से केवल 42.57 प्रतिशत ने कांग्रेस (आई) का समर्थन किया।

अल्पसंख्यक वोटों के बल पर बहुसंख्यक स्थान प्राप्त करने की विचित्रता हमारी चुनाव प्रणाली का अभिन्न अंग है। स्वतंत्रता के बाद किसी चुनाव में कोई ऐसा दल सत्ता में नहीं आया, जिसे अपने मताधिकार का उपयोग करनेवाले भारतीयों की बहुसंख्या का समर्थन मिला हो; यहां तक कि सन् 1977 में जनता पार्टी को भी केवल 43.06 प्रतिशत वोट मिले थे।
क्रमश: