उपाध्यायजी की देन : एकात्म मानववाद

| Published on:

अटल बिहारी वाजपेयी

मुझे दीनदयालजी के साथ रहने का मौका मिला था, बरसों हम एक साथ रहे, मिलकर काम करते थे। किसी के साथ रहने पर उसका सही परिचय प्राप्त होता है। मुझे जब ‘राष्ट्रधर्म’ का काम सौंपा गया, संपादन का कोई अनुभव नहीं था। दो-चार कविताएं लिखी थीं- मा. भाउरावजी की योजना थी, दीनदयालजी का मार्गदर्शन था। राष्ट्रधर्म के पहले अंक का पहला संपादकीय उपाध्यायजी ने लिखा था, नाम हम लोगों के थे, लेखन उनका था। कुछ मामलों में यह सिलसिला अभी तक चल रहा है। लेकिन पत्र निकालने का फैसला हुआ था, लिखना भी शुरू हो गया। दीनदयालजी को भी पत्रकारिता का अनुभव नहीं था।

उनका व्यक्तित्व विलक्षण था। वे काम करते जाते थे। सीखते जाते थे, सिखाते जाते थे। आगे बढ़ाते जाते थे और इसके लिए शब्दों से कम, आचरण से अधिक काम लेते थे। एक दिन प्रेस की बिजली बंद हो गई, तब हम एक दैनिक पत्र भी निकाल रहे थे। सवेरा होनेवाला था, अगर भोर में पत्र नहीं पहुंचा बाजार में तो फिर कोई खरीदार न होगा। लेकिन बिजली चली गई हैं, मशीन चले कैसे? उपाध्यायजी मशीन चलाने में जुट गए। टेक्नोलॉजी का इतना विकास नहीं हुआ था। नानाजी घटना से परिचित हैं। समय पर अखबार निकलना चाहिए, बिजली नहीं है तो हम जुटेंगे और समय पर अखबार निकालेंगे। ऐसे कई प्रसंग आए। एक प्रसंग में तो वे थककर चूर हो गए। बेहोश हो गए थे। अब उन्हें इस तरह से काम करते हुए देखकर अगर थोड़ा-बहुत आलस्य मन में पैदा होता था वह भी दूर भाग जाता था या भगाना पड़ता था। इस तरह का उनका व्यवहार था।

मुझे एक घटना और याद है। आज जो परिस्थिति है, उसके संदर्भ में वह घटना बड़ी महत्त्वपूर्ण है। उसका स्मरण बहुत मूल्यवान् है। संघ पर से प्रतिबंध हटा था। परम पूज्यनीय गुरुजी उत्तर प्रदेश का प्रवास कर रहे थे। उनके साथ कई प्रमुख अधिकारी थे, दीनदयालजी भी थे। पत्रकार के नाते मैं भी था और हम एक जगह से दूसरी जगह जा रहे थे। रेलगाड़ी का उपयोग कर रहे थे। परम पूज्यनीय गुरुजी अलग डिब्बे में थे, हम लोग अलग डिब्बे में बैठे थे। बीच में परम पूज्यनीय गुरुजी को दीनदयालजी से बात करने की आवश्यकता हुई तो अगले स्टेशन पर उतरकर दीनदयालजी अपने डिब्बे से पूज्यनीय गुरुजी के डिब्बे में चले गए। वह ऊंचा दर्जा था। दीनदयालजी वहां थोड़ी देर बात करते रहे। अगले स्टेशन पर वापस आ गए। वापस आने के बाद उनकी नजर चारों तरफ दौड़ने लगी। वे कुछ बेचैन हो गए। हम लोगों ने पूछा क्या कठिनाई है, क्या हुआ पंडितजी कहने लगे मैं टी.टी.ई. को ढूंढ रहा हूं। मैं जिस डिब्बे में यात्रा कर रहा था, वह निचले दर्जे का था, उसी का टिकट मेरे पास है, मगर थोड़ी देर के लिए मैं ऊंचे दर्जे में बैठा था जाकर पूज्यनीय गुरुजी से बात करने के लिए। तो इस बीच का जो किराया बढ़ा हुआ है, मैं उसका भुगतान करना चाहता हूं। मानो व्यवहार की एक रेखा खींच दी। कुछ कहा नहीं, कहने की आवश्यकता भी नहीं थी।

पारदर्शी प्रामाणिकता, आज इसकी चर्चा बहुत होती है, व्यवहार में कितनी है, हम सब लोग जानते हैं। बिना टिकट के यात्रा कर ली और किसी ने पकड़ा नहीं तो मानो बड़ा तीर मार लिया। अब वक्त ऐसा पहुंच गया है। सब नागरिक अगर अपने दायित्व का इसी तरह से पालन करें; लेकिन इसके लिए केवल नागरिकता नहीं, प्रखर देशभक्ति का भाव चाहिए। उसके साथ सबको समान दृष्टि से समग्रता में समस्याओं को देखने की तैयारी भी चाहिए। वह वादों का जमाना था, अमेरिका पूंजीवाद का सर्वेसर्वा बना था। फिर साम्यवाद तसवीर में आया। बीच में कभी लोकतांत्रिक समाजवाद का स्वर भी सुनाई देता था। सबके मूल में भाव यह था कि व्यक्ति और समाज में परस्पर संघर्ष है। कोई व्यक्ति की स्वतंत्रता पर बल देता था, कोई समाज की प्रभुता पर बल देता था। लेकिन जो समाज का नाम लेते थे, वे भी दल के आधार पर अपना प्रभुत्व चाहते थे। पूंजीवाद भी सारे समाज की चिंता नहीं करता था। केवल लाभ की चिंता करता था। आज भी कर रहा है। हम लोग राजनीति में आए किन परिस्थितियों में आए, उनमें जाने की आवश्यकता नहीं है।

उपाध्यायजी चिंतक थे, विचारक थे, और मौलिक विचारक थे। विरासत में जो कुछ मिला हैं और यह पांच हजार साल से अधिक की विरासत है, इसमें हम कुछ अभिवृद्धि करके जाएंगे, कुछ योगदान करके जाएंगे। यह उनका संकल्प था। वह बार-बार कहते थे कि हमें उज्ज्वल अतीत से प्रेरणा लेनी है, मगर उज्ज्वलतर भविष्य का निर्माण करना है। वे चेतावनी देते थे कि हमें भूतजीवी नहीं बनना है दृष्टि भविष्य की आेर चाहिए। अतीत के गौरव की सारी पूंजी हमें संबल प्रदान करेगी। उनसे हम लोगों ने अनुरोध किया कि कोई ऐसा शब्द तैयार करिए, जो एक या दो शब्द में हमारी विचारधारा को प्रकट करे।
‘एकात्म मानववाद’ यह उपाध्यायजी की देन थी। इंटेग्रल ह्यूमेनिज्म- सारी मानवता का विचार। टुकड़ों में विचार नहीं समग्रता में। कोई केवल शरीर की चिंता करता है, कोई केवल मन की चिंता करता है, लेकिन पुरुषार्थ जहां जीवन दर्शन के रूप में फला-फूला वहां जीवन के हर पहलू की चिंता की गई है, हर पहलू का विचार किया गया है। उसके विकास का प्रबंध किया गया है। अर्थ चाहिए। पहले राजनीति का समावेश भी अर्थ में होता था। चाणक्य ने अर्थशास्त्र लिखा राजनीति शास्त्र नहीं लिखा, क्योंकि अर्थ में राजनीति आती हैं। आनी चाहिए। जीवन में अर्थ की आवश्यकता होती है। हृदय में कामनाएं उठती हैं। अपेक्षाएं होती हैं। आशाएं होती हैं। अर्थ और काम, दोनों जीवन के अंग हैं। लेकिन अर्थ को धर्म से और काम को मोक्ष से जोड़कर, जो तसवीर बनती है वह जिंदगी की पूरी तसवीर बनती है। वह किसी एक वाद से बंधी हुई नहीं है। संपूर्ण मानवता उसके चिंतन का केंद्र है।

दीनदयालजी की जन्मतिथि पर बहुत कुछ कहने के लिए है। ये पिछले पांच-छह महीने के अनुभव भी हैं। नानाजी नौकरशाहों को फटकार लगाकर आगे नहीं बढ़े हैं और भी दोषी लोग हैं। नौकरशाही का इस रूप में विकास कैसे हुआ? आज नौकरशाही हावी होती हुई क्यों दिखाई दे रही है? जो राजनीति में है वे किस तरह का आदर्श रख रहे हैं। अपने विचार से अपने व्यवहार से? उसका जीवन के हर क्षेत्र पर असर हो रहा है। हम न्यायपालिका की स्वतंत्रता की बात करते हैं, न्यायपालिका स्वतंत्र है भी, लेकिन कुछ मामलों में निर्णय देखकर मन में यह डर पैदा होता है कि क्या अब शासन अदालत चलाएगी? लेकिन अगर कार्यपालिका अपने दायित्व का पालन नहीं करेगी तो न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना पड़ेगा। लोग उसका स्वागत करते हैं। लेकिन वह भी एक सीमा में होना चाहिए। समग्रता में जीवन को, चाहे वह राष्ट्र का जीवन हो, चाहे व्यक्ति का जोवन हो, या विश्व की मानवता का अस्तित्व, जब तक सबको समग्रता में नहीं देखा जाएगा और सामंजस्य, समन्वय- ये हमारी संस्कृति के आधार हैं मगर उसका विचार नहीं किया जाएगा, उसका प्रयास नहीं किया जाएगा तो समाज बिखरता जाएगा, टूटता जाएगा। हम समस्याओं को पूरी तरह से हल नहीं कर सकेंगे।

मुझे चित्रकूट में जाने का अवसर तो नहीं मिला, मैं जाना जरूर चाहता हूं। दीनदयाल शोध संस्थान की तरफ से गोंडा में जो किया गया, उसके बारे में मुझे कुछ जानकारी है। इस तरह के काम की बड़ी आवश्यकता है। दंपति मिलकर एक क्षेत्र में, समय देकर उस क्षेत्र को बदलने के लिए और केवल भौतिक दृष्टि से नहीं, मानसिक दृष्टि से भी उसमें परिवर्तन लाने के लिए जो प्रयास कर रहे हैं, वे अपने में स्तुत्य हैं। सरकार के भरोसे बहुत ज्यादा काम नहीं हो सकते। सरकार के सीमित साधन हैं और जो सीमित साधन हैं वे भी अपने को बनाए रखने पर खर्च हो रहे हैं। राज्य की जितनी आमदनी है उससे ज्यादा तनख्वाह में जा रही है हर महीने विकास कहां से होगा? किसके धन से होगा? और जो धन अगर बचा हुआ है, वह भी विकास में नहीं जा रहा है। कहां जा रहा है? यह एक बड़े रहस्य का विषय है। खर्चा हो रहा है, योजनाएं बनी हैं। पट्टे लगे हुए हैं। किसके लिए बनी हैं? जिनके लिए बनी हैं क्या उनको उनका लाभ पहुंच रहा है? अब इसकी खोजबीन के लिए कमेटी बनाई जा सकती है और कमेटी जरा गहराई में जाएगी, इसलिए जल्दी अपनी रिपोर्ट पेश नहीं कर सकती। उसको गहरा गोता लगाना है। अगर उसका समय समाप्त हो जाएगा तो वे कहेंगे कि समिति की अवधि बढ़ाई जाए। फिर जो रिपोर्ट आएगी, उसे कोई पढ़ेगा नहीं।

छह महीने के अनुभव अच्छे अनुभव हैं। लेकिन तसवीर इतनी निराशाजनक नहीं है जितनी कभी-कभी बनाकर पेश की जाती है। सैकड़ों गैर-सरकारी संस्थाएं इस देश में काम कर रही हैं। बिना सरकार की मदद के बिना सरकार से जुड़े हुए छोटे-छोटे दल, छोटी-छोटी इकाइयां, जो अंधेरे में मानो दीया जलाकर बैठी है। क्या सारा अंधकार उस एक दीये से दूर होगा? कभी-कभी मन में निराशा पैदा होना स्वाभाविक है। लेकिन जो दीया जलाकर बैठा है, उसके मन में निराशा नहीं है। वह छोटे से दीये की लौ केवल बाहर को प्रकाशित कर रही है, वह अभ्यंतर को ज्वल्यमान कर रही है, प्रकाशमान कर रही है और लोग लगे हैं, सैकड़ों संस्थाएं।

नानाजी यहां बैठे हैं। दीनदयालजी के साथ अगर किसी व्यक्ति का सबसे अधिक नाम लिया जाता है, जो उनके संपर्क में सबसे अधिक रहा, वह आदरणीय नानाजी देशमुख हैं। उस समय जो स्वयंसेवक थे, बाल स्वयंसेवक थे, वे अब बड़े हो गए हैं, अपने-अपने स्थानों पर काम में लगे हुए हैं। लेकिन उन्हें भी यह याद दिलाते रहना जरूरी है कि अभी सपनों का भारत बनाने में काफी कसर है। काफी लंबा रास्ता है, कठिन रास्ता है। उधर हम बढ़ रहे हैं, लेकिन गति धीमी है। यह गति बढ़े, हम प्रेरणा जुटाकर कर्तव्य पथ पर तेजी से चलें। उपाध्यायजी ने जिस भारत की कल्पना की थी, उसकी हम रचना कर सकें। कम-से-कम उस लक्ष्य तक लगभग पहुंच सकें, इसके लिए सम्मिलित प्रयास की आवश्यकता है। मुझे विश्वास है कि आज की जन्मतिथि हमें इस काम के लिए प्रेरणा देगी।

(18 सितंबर, 1998 को दीनदयाल शोध संस्थान, नई दिल्ली में राष्ट्र नवरचना योगदान के अवसर पर दिया गया भाषण)