एजेंडा 2019 – नेतृत्व का मुद्दा


Posted in:
01 Apr, 2019
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01 Apr, 2019

अरुण जेटली

लोकसभा चुनाव के कार्यक्रम की घोषणा कर दी गई है। अगले दस सप्ताह विचारों और विचारधाराओं का टकराव, उम्मीदवारों के बीच प्रतिस्पर्धा और नेतृत्व की लड़ाई का गवाह बनेंगे। इन चुनावों में कई मुद्दे प्रासंगिक होगें। आज मैं उन प्रमुख मुद्दों में से एक पर चर्चा करना चाहता हूं जो 2019 के आम चुनावों में सबसे महत्वपूर्ण और प्रासंगिकता हैं – नेतृत्व का मुद्दा। पद पर आसीन प्रधानमंत्रियों ने कई बार आम चुनावों का सामना किया है। उनकों सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ा है। सत्ता विरोधी लहर को कुछ यूं परिभाषित किया जा सकता है जब सत्ता से परेशान लोग एक अयोग्य व्यक्ति को वोट देने से भी गुरेज नहीं करते है और परिणामस्वरुप विपक्ष सफल होता है। हालांकि, अगर सत्ता आसीन प्रधानमंत्री का प्रदर्शन, नेतृत्व, नैतिकता और अखंडता को परखा जा चुका हो, तो सत्ता आसीन प्रधानमंत्री भी सफल होते है।

देश ने चौदह साल की अवधि के लिए गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में श्री नरेंद्र मोदी का आकलन किया। वह एक मजबूत नेता बनकर उभरे, उनकी ईमानदारी, राष्ट्रवादी नजरिया और विकास की ललक सबके सामने है। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि उनके साथ काम करने वाले लोग जैसाकि सार्वजनिक कार्यालयों में लोगों से अपेक्षित होता है, नैतिकता को अपनाते हैं। उसके खिलाफ एक झूठा और शातिर अभियान चलाया गया। लेकिन इस अभियान के तथ्य हर कानूनी लड़ाई में झूठे ही साबित हुए। उन्होंने इस शत्रुतापूर्ण अभियान को खुद पर हावी नहीं होने दिया। उन्होंने राज्य के लिए विकास के लिए अपना स्वयं का एजेंडा रखा और लगातार तीन लोकसभा चुनाव और तीन विधानसभा चुनाव जीते। उन्होंने लोगों से सीधा संवाद किया। वह एक वक्ता के रुप में लोगों के समक्ष है। उन्होंने गुजरात में एक नए नेतृत्व का निर्माण और पोषण किया। पूरी दुनिया में गुजराती आबादी उसके साथ अपनी पहचान करने में गर्व महसूस करती है। उन्होंने उनको प्रेरित किया। उन्होंने 2014 की चुनावी दौड़ में एक ऐसे समय में प्रवेश किया, जब देश ने नेतृत्व का पतन, एक नीतिगत पक्षाघात और अखंडता पर संकट के दौर को देखा। लोगों ने उन्हें पूर्ण बहुमत दिया।

पांच साल बाद कोई राष्ट्र उसका आकलन कैसे करता है?

उन्होंने दुनिया के समक्ष साबित कर दिया कि भारत का प्रशासन ईमानदारी से चलाया जा सकता है। भारत अपने आप को सुरक्षित करने के लिए और विकास को गति देने के लिए कठोर निर्णय लेने में सक्षम है। आज भारत विश्व में उच्च पटल पर काबिज है। भारत की अर्थव्यवस्था सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था बन गई है। उन्होंने एक आर्थिक मॉडल दिया, जहां तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था से उभर रहे संसाधनों को बुनियादी ढांचे पर खर्च किया गया साथ ही देश की गरीब जनता तक यह लाभ हस्तांतरित किया गया है। इसमें भी ग्रामीण इलाकों का विशेष ख्याल रखा गया। उन्होंने केवल नारे नहीं दिए, बल्कि गरीबी के स्तर को नीचे लाने के लिए संसाधनों को हस्तांतरित किया और जनता के जीवन स्तर को ऊपर उठाया है। यहां तक कि उनके आलोचक भी उनके राष्ट्रीय सुरक्षा सिद्धांत के विकास से हतप्रभ हैं।

उन्होंने भारत को एक ऐसे राष्ट्र से आगे विकसित किया है, जो अभी तक केवल खुफिया और सुरक्षा नेटवर्क के माध्यम से आतंक के खिलाफ केवल अपने घर में ही लडाई लड़ रहा था। वहीं वैश्विक स्तर पर पाकिस्तान को अलग-थलग कर एक ऐसे राष्ट्र के रूप पहचान दिलवाई जो आतंकवाद को उसके उद्गम पर ही नष्ट करने में सक्षम है। साल 2016 की सर्जिकल स्ट्राइक की सफलता और 2019 के हवाई हमले इस ओर इशारा करते हैं। एनडीए के सहयोगी दलों में नेतृत्व के मुद्दे पर कोई मतभेद नहीं हैं। यह पूर्णत: स्पष्ट है। श्री नरेंद्र मोदी एनडीए का नेतृत्व करते हैं और एनडीए की जीत की स्थिति में वह ही प्रधानमंत्री होंगे। उनका नेतृत्व राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत है। उनके नेतृत्व में हुए कार्य खुद बोलते है। आइए हम दूसरी तरफ देखें जहां ‘महागठबंधन’ का वादा किया जा रहा है, जो कई परस्पर विरोधी गठबंधनों का एक ‘गठबंधन’ है। यह हमारे प्रतिद्वंद्वियों का एक आत्म-विनाशकारी प्रयास है। बसपा और सपा कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़ेगी लेकिन अंतत: हाथ मिलाएगी। तो क्या तृणमूल और कांग्रेस-पश्चिम बंगाल में गठबंधन करेंगे। ऐसे ही केरल में कांग्रेस और वामपंथी एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ेंगे। पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस ने जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाने की कोशिश की।

आज वे प्रतिद्वंद्वी हैं और स्वायत्तता या ‘1953 से पहले की स्थिति’ के खतरनाक एजेंडे पर हैं, लेकिन वह गठबंधन के साथ हाथ मिला सकते हैं। बीजू जनता दल, टीआरएस और वाईएसआरसीपी गठबंधन के साथ नहीं हैं। नेतृत्व का मुद्दा एक निरपेक्ष पहेली है। कांग्रेस अध्यक्ष श्री राहुल गांधी एक नामुनासिब नेता हैं। उनकों आजमाया और परखा जा चुका है और वह असफल रहे। मुद्दों को लेकर उनकी समझ में कमी स्पष्ट नजर आती है। वह इस अराजक गठबंधन के नेता बनने की इच्छा रखते हैं। ममता दीदी इस गठबंधन के सूत्रधार के रूप में खुद को आगे बढ़ा रही हैं। उन्होंने पश्चिम बंगाल में कांग्रेस या वाम दलों के साथ एक भी सीट के लिए समझौता नहीं किया है, लेकिन वह चाहती है कि अगर गठबंधन सफल होता है, तो बाकी दल उनका अनुसरण करें। नीतिगत मुद्दों पर उनकी टिप्पणियां सहज ही प्रतिकूल होती है। पिछले लोकसभा चुनाव में बसपा की कद्दावर नेता रहीं मायावती का सफाया हो गया। उन्होंने अपनी रणनीति में बदलाव किया। वह एक मजबूत बसपा और कमजोर कांग्रेस चाहती है।

वह अभी अपने पत्ते नहीं खोलना चाहती। परिणाम घोषित होने के बाद ही वह इसका खुलासा करेंगी। उन्होंने उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ ‘मजबूरी का गठबंधन’ किया है, लेकिन इससे समाजवादी पार्टी के साथ उसके ऐतिहासिक संघर्ष के दाग नहीं मिटने वाले है। वह एक मजबूत बसपा और कमजोर कांग्रेस चाहती है। लचीली विचारधारा वाले नेता सोचते हैं कि वे सभी के लिए स्वीकार्य हैं। विपक्ष का गठबंधन अस्पष्ट है – यह बिल्कुल कमजोर नजर आता है। चुनावों में अपनी जीत को लेकर कोई भी विपक्षी दल सक्षम दिखाई नहीं देता है। यह गठबंधन स्थिर तो नहीं होगा। इसमें अत्यधिक महत्वाकांक्षी, आत्म-केंद्रित और उस्ताद नेताओं का जमावड़ा है। कांग्रेस और वाम दलों को छोड़ दें, तो ज्यादातर ने अतीत में भाजपा के साथ राजनीतिक गठबंधन किया है। उनकी विचारधारा और गठबंधनों के प्रति उनकी वचनबद्धता व्यापक रूप से भिन्न है। यह लड़ाई एक ऐसे नेता के साथ है जिसके हाथों में देश विकास कर रहा है और सुरक्षित है। उस पर भरोसा किया जा सकता है। वहीं विपक्ष में नेतृत्व की स्पष्टता दिखाई नहीं दे रही। यहां कई नेता हैं, और सभी एक दूसरे को पछाड़ने की कोशिश कर रहे हैं। यदि हम पिछले उदाहरणों पर गौर करे तो, वे केवल एक अस्थायी सरकार का वादा कर सकते हैं। एक अराजकता माहौल सुनिश्चित कर सकते है। चयन स्पष्ट है – यह मोदी या अराजकता।

प्रधानमंत्री मोदी का राष्ट्रीय सुरक्षा सिद्धांत विकसित करना

पुलवामा में जैश के आतंकवादी हमले ने राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर ध्यान केंद्रित किया है। भारत देशभक्त लोगों की भूमि है। हमारे पास वीरता और बलिदान का लंबा इतिहास रहा है। भारत ने आजादी के लिए संघर्ष तो किया, लेकिन उनका सिर हमेशा ऊंचा रहा। हमें अभी भी 1962 के अपने अपमान को पचाना मुश्किल लगता है। हम 1965 और 1971 के युद्धों और 1999 के कारगिल युद्ध को सम्मान और संतुष्टि की भावना से याद करते हैं। भारतीयों का मानना है कि देश को सुरक्षित होना चाहिए। पूरे देश ने एक स्वर में आतंकवाद की निंदा की है, जिसकी कीमत हमें दो पूर्व प्रधानमंत्रियों के जीवन और हमारे सुरक्षाकर्मियों एवं नागरिकों के प्राणों के साथ चुकानी पड़ी है।

आतंकवाद और उग्रवाद के खिलाफ लड़ाई को वोट बैंक से जोड़ने का खतरा

परंपरागत रूप से भारत ने एक स्वर में आतंकवाद और उग्रवाद के किसी भी रूप की निंदा की। जब मुस्लिम समुदाय के एक गुमराह तबके ने अपने मुद्दों को उठाने के लिए विश्व स्तर पर आतंकवाद का सहारा लिया, तो भारतीय मुसलमानों ने मुख्य रूप से उस दर्शन का हिस्सा बनने से इनकार कर दिया। सौभाग्य से हमारे लिए यह प्रवृत्ति आज तक जारी है। दुर्भाग्य से भारत में कुछ गुमराह करने वाले मॉड्यूल उभर कर सामने आए। वे खतरनाक हैं, लेकिन हमारे सुरक्षा बलों ने उनमें से ज्यादातर को नष्ट कर दिया है।

जब श्री राजीव गांधी सत्ता में थे, तब टाडा को कानूनी मान्यता दी गई थी। इसका उपयोग और दुरुपयोग किया गया, लेकिन यह एक कानून के रूप में जारी रहा। 1993 के मुंबई बम विस्फोट के बाद इसका व्यापक रूप से आतंकवादियों के खिलाफ इस्तेमाल किया गया था, इसके खिलाफ एक सांप्रदायिक अभियान शुरू किया गया। टाडा को अल्पसंख्यक विरोधी करार दिया गया। इसके निरस्तीकरण का अभियान शुरू हुआ। नरसिम्हाराव के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने टाडा को निरस्त कर दिया। अब भारत जो आतंक से सबसे अधिक प्रभावित था, बिना आतंकवाद विरोधी कानून के था जो एक मजबूत निवारक के रूप में काम करेगा और इसमें आतंक से संबंधित अपराध से निपटने के लिए प्रक्रियात्मक और संवैधानिक दोनों प्रावधान शामिल थे। श्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार ने पोटा कानून को मान्यता दी। इस कानून को मंजूरी देने के लिए सरकार को संसद के दोनों सदनों का संयुक्त सत्र बुलाना पड़ा। कांग्रेस ने कानून को निरस्त करने का प्रयास किया। आतंकवाद विरोधी और अल्पसंख्यक विरोधी कानून के बीच अंतर महत्वपूर्ण है। कांग्रेस और उसके सहयोगियों ने उस अंतर को कम करने की कोशिश की। इसके बाद से कांग्रेस आतंक पर नरम पड़ने लगी। उसने आतंकवाद के माध्यम से तुष्टिकरण की राजनीति शुरू कर दी।

जब बाटला हाउस मुठभेड़ हुई और आतंकवादी मारे गए, तो कांग्रेस नेताओं ने इसे फर्जी मुठभेड़ करार दिया। उन्होंने दावा किया कि आतंकवादी निर्दोष थे। जब 1993 के मुंबई बम धमाके के दोषी, भारत की वाणिज्यिक राजधानी पर 26/11 हमला करने वाले और संसद हमले के दोषियों को सजा की बात आयी, तो कई कांग्रेसियों ने माफी की अपील करना शुरू कर दिया। इन विघटनकारी शक्तियों ने जो खुद को उदारवादी वामपंथी कहलाना पसंद किया, आतंकवादियों को बचाने के लिए कानूनी लड़ाई लड़ी।

कांग्रेस की राजनीति में सबसे निचला स्तर देखने को तब मिला जब अलगाववादियों, जेहादियों और माओवादियों से हमदर्दी रखने वाले लोगों ने नई दिल्ली के जेएनयू में ‘देश के टुकड़े-टुकड़े’ करने के नारे लगाए और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े रहे। भारत को टुकड़ों में तोड़ने की बात को अभिव्यक्ति की आजादी करार देने वाली इस घटना ने कांग्रेस के चरित्र को सबके सामने ला दिया। राहुल गांधी चरमपंथियों के साथ नहीं जुड़ने वाली कांग्रेस की विरासत से भटक गए थे। एक बार जब माओवादियों और अलगाववादियों के साथ कांग्रेसियों की पहचान हो गई, तो राहुल गांधी द्वारा शहरी माओवादियों के हितों का समर्थन करना स्वाभाविक था, जो कथित तौर पर भारत के प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश रच रहे थे। इसलिए, यह आश्चर्यजनक नहीं है कि छत्तीसगढ़ की नई सरकार ने वामपंथी उग्रवाद से हमदर्दी रखते हुए कई फैसले लिए हैं, जिसमें माओवादियों के खिलाफ पुलिस की कार्रवाई की जांच के लिए समितियों का गठन शामिल है। वोटों की खातिर आतंक और उग्रवाद के खिलाफ लड़ाई को कमजोर करने वाली कांग्रेस पार्टी और उसके महागठबंधन के मित्रों के कारण ही आतंक के खिलाफ लड़ाई कमजोर हुई है।

कश्मीर और आतंक

जम्मू और कश्मीर आंतकवादी हमलों का सबसे प्रमुख शिकार हुआ। जम्मू-कश्मीर के लोग इससे सबसे ज्यादा पीड़ित हैं। पाकिस्तान कभी भी जम्मू और कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग स्वीकार नहीं कर पाया। पाकिस्तान ने इसके लिए युद्ध तक छेड़े, लेकिन वह सफल नहीं हो पाया। उसने सीमा पार विद्रोह को प्रोत्साहित करने और घरेलू आतंकवादियों का समर्थन करने का सहारा लिया। इस समस्या से निपटने के लिए यूपीए के दस वर्षों के दौरान कांग्रेस के पास कोई ठोस योजना नहीं थी।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को विरासत में यह मुद्दे मिला। उन्होंने पाकिस्तान के साथ रिश्ते को सुधारने के लिए अपने प्रसास जारी किए। उन्होंने पारंपरिक तरीके का प्रयोग इस उम्मीद के साथ किया कि इससे दोनों देशों के बीच एक समझदारी कायम हो, लेकिन पाकिस्तान ने पठानकोट, उरी और पुलवामा के साथ जवाब दिया। प्रधानमंत्री ने घाटी में मौजूद मुख्यधारा के राजनीतिक दलों को राष्ट्रीय गठबंधन का हिस्सा बनने के लिए प्रोत्साहित किया, लेकिन दुर्भाग्य से दिल्ली से बातचीत और जमात-ए-इस्लामी का दबाव अलगाववादियों की विरोध वाली नीति के विरुद्ध था।

पुलवामा और बालाकोट

पुलवामा की आतंकी वारदात में भारत के 41 सीआरपीएफ के जवानों को अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी। इस घटना ने पूरे देश की अंतरात्मा को हिला कर रख दिया। हमारे सुरक्षा बलों ने पुलवामा हमले में शामिल कुछ प्रमुख आतंकवादियों को इस घटना के कुछ समय बाद ही समाप्त कर दिया। उरी हमले के बाद हमारी सेना और सरकार के पास नियंत्रण रेखा के पास बने आतंकवादी प्रशिक्षण शिविरों के संबंध में खुफिया जानकारी मिली। सेना ने सितंबर, 2016 में सर्जिकल स्ट्राइक को बेहद सटीक तरीके से अंजाम दिया। भारतीय तरफ कोई हताहत नहीं हुआ और उन शिविरों को नष्ट कर दिया गया। हमने 1971 के युद्ध के बाद पहली बार एलओसी को पार किया था।

हमारे सुरक्षा बलों और सरकार को फिर से खुफिया एजेंसियों के माध्यम से बालाकोट में जैश के एक विशाल आतंकवादी प्रशिक्षण शिविर के संबंध में जानकारी मिली। 26 फरवरी, 2019 को वायु सेना ने हवाई हमले किए और इन शिविरों को नष्ट कर दिया, जिसमें भारी मात्रा में जान-माल की हानि के साथ आतंकवादी ढांचे को गंभीर क्षति हुई।

इन दो हमलों से प्रधानमंत्री मोदी ने भारत के आंतरिक सुरक्षा सिद्धांत को विकसित किया। क्या हम केवल खुफिया जानकारी के आधार पर हमलों को रोकने और कूटनीतिक रूप से पाकिस्तान को अलग-थलग करके ही आतंकवाद से लड़ते रहेंगे? ऐसे मामलों में क्या हम सौ प्रतिशत सफलता सुनिश्चित कर पाएंगे। हमारे खिलाफ बाधाओं को उत्पन्न किया गया है। भले ही आतंकवादी साल में एक बार ही सफल हों, लेकिन वे अपने मनसूबों में कामयाब होते हैं। हमें सुरक्षा के मामले में सौ प्रतिशत सफल होना होगा। यह एक बड़ी चुनौती है। वैकल्पिक रूप से सर्जिकल और एयर स्ट्राइक ने एक नीति विकसित की है कि आतंक के उद्गम पर चोट पहुंचानी होगी। दोनों ही मामलों में हम सफल रहे। पाकिस्तान ने महसूस किया कि अगर उसने आतंक को संरक्षण देना जारी रखा तो इसकी उसे भारी कीमत चुकानी होगी। दुनिया ने हमारे इस सक्रिय दृष्टिकोण का स्वागत किया। पाकिस्तान कूटनीतिक रूप से अलग-थलग हुआ है। उसके पारंपरिक मित्र उसका साथ छोड़ रहे है।

राजनीतिक लड़ाई

केंद्र और छत्तीसगढ़ दोनों में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार ने वामपंथी उग्रवाद के खिलाफ लगातार मजबूत से लड़ाई लड़ी। जेएनयू से लेकर छत्तीसगढ़ तक कांग्रेस ने उनका साथ दिया है। घाटी में कश्मीरी जेहादियों को सक्रिय रूप से प्रोत्साहित करने वाले वामपंथी उग्रवादियों की संख्या बढ़ी है। कांग्रेस आतंक के स्रोत पर ही नष्ट करने वाले सक्रिय दृष्टिकोण के विचार का विरोध नहीं करती है। प्रधानमंत्री मोदी की छवि पर इस सक्रिय दृष्टिकोण के राजनीतिक प्रभाव से वह परेशान है। पुलवामा की निंदा करने पर कांग्रेस सरकार के साथ एक है, लेकिन बालाकोट को लेकर परेशान है। इस प्रकार वह सर्जिकल स्ट्राइक को निरंतर एक विवादित मुद्दा बनाए रखना चाहती है। कांग्रेस यह तर्क देता है कि ऐसे हमले अतीत में हो चुके हैं। वह इसका श्रेह प्रधानमंत्री मोदी को नहीं देना चाहती। हवाई हमलों पर, उनका आचरण और भी संदिग्ध है। पहले दो दिनों भारतीय वायु सेना के साथ सहानुभूति रखते हुए, उन्होंने इस मुद्दे पर चौतरफा हमले शुरु कर दिए। कांग्रेस ने हमलें की सफलता पर सवाल उठाए। उन्होंने सबूत मांगना शुरू कर दिया कि बालाकोट में कितने आतंकवादी मारे गए। उन्होंने यहां तक कहा कि यह हमला आतंक के खिलाफ नहीं, बल्कि आगामी चुनावों में भाजपा की जीत सुनिश्चित करने के लिए किया गया है। घरेलू राजनीति साधने के लिए यह कांग्रेस द्वारा एक सोची समझी रणनीति के तहत किया जा रहा था। लेकिन ऐसा करके कांग्रेस पाकिस्तान के हाथों में खेल रही थी, जहां राहुल गांधी सहित कांग्रेस नेताओं के बयान पाकिस्तान में टेलीविजन चैनलों पर दिखाए गए। पाकिस्तान सरकार ने अपनी झूठी बातों को सही साबित करने के लिए इन बयानों का हवाला दिया।

अब अंतिम प्रश्न यह उठाता है। जब भारत अल्ट्रा-लेफ्ट और जेहादी आतंकवादियों से लड़ता है, तब उसे सीमा पार आतंकवाद के गंभीर खतरे का सामना करना पड़ता है, तो भारत को कैसी प्रतिक्रिया देनी चाहिए? 2019 के आम चुनावों में मतदाताओं के सामने विकल्प है। क्या नई दिल्ली में वामपंथी उग्रवाद के एक अति-सहयोगी दल को सत्ता में रखा जा सकता है? क्या वोट बैंक की राजनीति के लिए आतंक के खिलाफ लड़ाई को कमजोर करने वालों पर भरोसा किया जा सकता है? क्या इन चुनावों में पाकिस्तान के हाथों में खेलने वालों को कड़ा सबक नहीं सिखाया जाना चाहिए? उपरोक्त प्रश्न का उत्तर एक बड़ा ‘हां’ है। यह देश प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार में सुरक्षित महसूस करता है।

       (लेखक केंद्रीय वित्त मंत्री हैं)