त्याग एवं समर्पण की प्रतिमूर्ति ‘राजमाता’ विजया राजे सिंधिया

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               (12 अक्टूबर, 1919 – 25 जनवरी, 2001)

राजमाता विजया राजे सिंधिया का जन्म 12 अक्टूबर, 1919 में सागर, मध्य प्रदेश के राणा परिवार में हुआ था। श्रीमती विजया राजे सिंधिया के पिता श्री महेन्द्रसिंह ठाकुर जालौन ज़िला के डिप्टी कलेक्टर थे और उनकी माता श्रीमती विंदेश्वरी देवी थीं। श्रीमती विजया राजे सिंधिया का विवाह के पूर्व का नाम ‘लेखा दिव्येश्वरी’ था। राजमाता सिंधिया के पुत्र श्री माधवराव सिंधिया, पुत्री श्रीमती वसुंधरा राजे सिंधिया और श्रीमती यशोधरा राजे सिंधिया हैं।

श्रीमती विजया राजे सिंधिया को ग्वालियर की राजमाता के रूप में जाना जाता था। भारत के विशालतम और संपन्नतम राजे-रजवाड़ों में से ग्वालियर एक था। उस रियासत के महाराजा के साथ उनका विवाह हुआ था। 1957 में श्रीमती विजया राजे सिंधिया ने कांग्रेस से चुनाव लड़ा और वे विजयी हुईं। अपने पति के स्वर्गवास के बाद सन् 1962 में कांग्रेस के टिकट पर वे संसद सदस्य बनीं। पांच साल के बाद अपने सैद्धान्तिक मूल्यों के कारण वे कांग्रेस छोड़कर जनसंघ में शामिल हो गईं। एक राज परिवार से रहते हुए भी वे अपनी ईमानदारी, सादगी और प्रतिबद्धता के कारण पार्टी में सर्वप्रिय बन गईं। शीघ्र ही वे पार्टी में शक्ति स्तंभ के रूप में सामने आईं।

राजमाता विजया राजे सिंधिया भारतीय जनता पार्टी के संस्थापकों में से एक थीं। राजमाता को जनसंघ और भाजपा के कई प्रमुख नेताओं जैसे– श्री अटल बिहारी वाजपेयी और श्री लालकृष्ण आडवाणी के साथ काम किया। यही नहीं, मध्य प्रदेश की राजनीति में भी उनका महत्वपूर्ण योगदान है। 1967 में मध्य प्रदेश में सरकार गठन में उन्होंने बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। हालांकि, श्रीमती विजया राजे सिंधिया का सार्वजनिक जीवन प्रभावशाली और आकर्षक था, लेकिन उन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन में मुश्किलों का सामना किया।

सन् 1989 के आम चुनाव में राजमाता विजया राजे सिंधिया एक बार फिर गुना से भाजपा प्रत्याशी के रूप में जीत दर्ज कीं। इससे पहले 22 साल पूर्व सन् 1967 में राजमाता वहां से जीती थीं। 1991 के चुनाव में श्रीमती विजया राजे सिंधिया ने कांग्रेस प्रत्याशी को पराजित किया।

राजमाता सिंधिया सिद्धांतों के प्रति समर्पित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से ओतप्रोत विदुषी जननायक थीं। उन्होंने महलों के वैभव को छोड़कर जनता के न्याय के लिए संघर्ष का मार्ग स्वीकार किया और सड़कों पर उतरकर ‘राजमाता’ से ‘लोकमाता’ बन गईं।

उन्होंने समर्पित जीवन जिया। सेवा की उनमें ललक थी। सादगी और सरलता उनका स्वभाव था। राजमाता का मानना था की अपनों की जड़ खोदकर कभी कोई दूसरों का चहेता नहीं बना है।
राजमाता सिंधिया लंबे समय तक महिलाओं से जुड़ी रहीं और उन्हें सदैव प्रेरित करती थीं। वे हमेशा सेवा के लिए समर्पित रहीं। उन्हें पद और सत्ता ने कभी आकर्षित नहीं किया। उन्होंने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के लिए खुद को पूरी तरह समर्पित कर दिया।

राजमाता त्याग एवं समर्पण की प्रतिमूर्ति थी। राजमाता विजया राजे सिंधिया ने लोगों के दिलों पर बरसों राज किया। सत्ता के शिखर पर रहने के बाद भी उन्होंने जनसेवा से कभी अपना मुख नहीं मोड़ा। राजमाता का सपना था कि जब देश में कमल खिलेगा तभी अंतिम सांस लेंगी। यह स्वप्न पूरा भी हुआ और श्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनी। सन् 1998 से राजमाता का स्वास्थ्य ख़राब रहने लगा और 25 जनवरी, 2001 में राजमाता विजया राजे सिंधिया का स्वर्गवास हो गया।