कांग्रेस ने खोया जन-विश्वास

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नई दिल्ली में हाल ही में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन केवल शोर–शराबे का कार्यक्रम बनकर रह गया। हालांकि, कांग्रेस ने इस सच्चाई को स्वीकार किया कि वह भाजपा को अकेली टक्कर नहीं दे सकती, परन्तु जिन पार्टियों को आज वह समान विचारधारा वाली कह कर सहयोग लेने को आतुर है, उन्हीं को 1990 के मध्य में अपने राजनैतिक प्रस्ताव में राजनैतिक संवाद को प्रभावित करने वाले ‘विभाजनकारी एजेंडे के साथ सतही ताकतें’ बताने से नहीं चूकी। अपने अतीत का झूठा घमंड कांग्रेस को यह मानने नहीं दे रहा कि केवल कुछ पार्टियोें को इकट्ठा कर वह जनता का विश्वास नहीं जीत सकतीं। उसे जनता का विश्वास इस देश की महान जनता द्वारा चलाये गये राष्ट्रीय आंदोलन से प्रवाहित होती लोकतांत्रिक एवं राष्ट्रवादी सिद्धांतों पर निष्ठा प्रमाणित करने पर ही प्राप्त होगा। कांग्रेस को यदि लगता है कि वह अपनी वंशवादी, भ्रष्ट, घिसे–पीटे सांप्रदायिक–जातिवादी–क्षेत्रवादी–विभाजक राजनीति से जनता को मूर्ख बना सकती है, तब यह कहने में कोई संशय नहीं कि वह भयंकर भूल कर रही है। केवल नकारात्मक राजनीति जनता को इसके करीब नहीं ला सकती, क्योंकि इससे यही पता चलता है कि कांग्रेस के पास देश के लिये कोई सकारात्मक कार्यक्रम नहीं है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि कांग्रेस अपने इतिहास के सबसे नीची ढलान पर है और इसे अब और नीचे जाने से कोई रोक नहीं सकता। इसका बार–बार देश की स्वतंत्रता की लड़ाई में योगदान का रट लगाने से अब कुछ होने वाला नहीं, क्योंकि अब सोनिया–राहुल की कांग्रेस वह कांग्रेस नहीं जो विदेशी शासन के विरुद्ध देश की आकांक्षाओं का प्रतिनिधि करती थी। स्वतंत्रता के बाद इसने अपने आप को सत्ता–केंद्रित राजनीति में डूबो दिया और देश को जाति, संप्रदाय, भाषा और क्षेत्र के नाम पर बांटने लगी। अपने लंबे समय के कुशासन, भ्रष्टाचार, पॉलिसी पैरालिसिस और नकारात्मक नीतियों से इसने जनता का विश्वास खो दिया। कांग्रेस यह स्वीकार नहीं कर पा रही कि देश की सारी समस्याओं की जड़ इसकी ही असफल नीतियां और विभाजनकारी राजनीति रही है। इसने देश को हर क्षेत्र में पीछे कर दिया। इसकी असफल विदेश नीति देश को विश्व में एक उभरती शक्ति बन पाने में रूकावट बनी रही, क्योंकि इसकी अधिकतर नीतियां जमीनी सच्चाइयों से दूर रहीं तथा भारत को एक ‘सॉफ्ट–स्टेट’ बना दिया। आतंकवाद और आंतरिक सुरक्षा के मामले में भी कांग्रेस की नीतियां अस्पष्ट और ढीली–ढाली रही। जहां यूपीए सरकार ‘पॉलिसी पैरालिसिस’ से ग्रस्त रही, महत्वपूर्ण विषयों पर इसकी आर्थिक नीतियां दिशाहीन रही तथा भारी भ्रष्टाचार और सरकारी धन को लूट से स्थिति बद–से–बदतर होती गई। कृषि क्षेत्र की भयंकर उपेक्षा का ही परिणाम है कि आज देश के किसान कठिन दौर से गुजर रहे हैं। ग्रामीण अर्थव्यवस्था एवं कृषि की पूरी उपेक्षा के कारण ग्रामीण युवा शहरों को पलायन को मजबूर हुए, जिससे हजारों गांव तो उजड़े ही साथ में शहरों पर भारी बोझ बढ़ा। इसकी दिशाहीन आर्थिक–नीतियां एवं भयंकर लूट का ही परिणाम था कि देश की अर्थव्यवस्था पर संकट खड़ा हो गया। इसने कभी देश में न तो आत्मविश्वास पैदा किया, न ही भविष्य के लिए आशा की कोई किरण ही दिखाई, बल्कि देश को दहाई अंकों की मुद्रास्फीति तथा धीमी गति से चलने वाली अर्थव्यवस्था बना दी।

लोगों के लिये कांग्रेस की इस धोखाधड़ी के इतिहास को भुला पाना अब मुश्किल है। अपनी सत्ता को बचाये रखने के लिये इसने सभी सरकारी संस्थानों में राजनैतिक आधार पर अपने आदमी भरे तथा देश की प्रतिभा को इनसे बाहर रखा। हालांकि आज यह हिंदू धर्म की अच्छाई बांचने को बाध्य है और राहुल गांधी अपने राजनैतिक दौरों में मंदिरों की परिक्रमा भी कर रहे हैं, पर यह कोई नहीं भूल सकता कि ‘सेकुलरिज्म’ के नाम पर ये खुलेआम अल्पसंख्यक तुष्टीकरण का खेल खेलते रहे हैं। हिंदुओं के गौरव के प्रति ये कितना समर्पित हैं, उनकी कर्नाटक सरकार द्वारा हिन्दुओं को बांटने के षड्यंत्र से ही साफ हो जाता है। लगता है कि ये स्वयं अपने ए. के. एंटोनी रिपोर्ट से भी कोई सीख नहीं ले पाये तथा इन्हें अपने हिन्दू–विरोधी एजेंडों को दुहराने की आदत पड़ गई है। अपने वैचारिक भटकाव और पार्टी की वंशवादी राजनीति से बचाने के उपायों पर मंथन करने के बजाए कांग्रेस ने दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से केवल मोदी–विरोधी, भाजपा–विरोधी राग ही पूरे अधिवेशन में अलापा है। इससे कांग्रेस का यह अधिवेशन केवल शोर–शराबे का कार्यक्रम बनकर रह गया और पार्टी में नई जान फूंकने में विफल साबित हुई है।

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