माल, मांग और औद्योगिक प्राथमिकताएं

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दीनदयाल उपाध्याय

आयात निर्भरता

औद्योगीकरण का अर्थ है कच्चे माल का विधायन करके उससे उपभोग योग्य वस्तुओं को तैयार करना। कच्चा माल और पक्के माल की मांग ही औद्योगीकरण के स्वरूप और मात्रा को निश्चित करते हैं। कच्चे माल के लिए व्यक्ति की दृष्टि स्वाभाविक तौर पर अपने आसपास की प्रकृति संपदा एवं कृषि उत्पादन पर जानी चाहिए। किंतु निर्मित वस्तुओं के जो स्वरूप पश्चिम में निश्चित हैं, उनसे ही बंधे रहने के कारण तथा निर्माणविधि का पूरा ज्ञान न होने के कारण हम अभी तक अपनी संपूर्ण संपत्ति का ठीकठीक उपयोग नहीं कर पाए हैं। प्रत्युत हमारा औद्योगीकरण अपने कच्चे माल का उपयोग न करके विदेशों से आयातित कच्चे अथवा अर्ध निर्मित माल के आधार पर चल रहा है। वैसे तो आज के आधुनिक उद्योगों में एकाध ही निकलेगा, जो अपने कच्चे माल की संपूर्ण आवश्यकताएं देश में पूरा कर लेता हो किंतु जो उद्योग भारत में निर्मित माल के पर्याय या पूरक के रूप में उत्पादन करने के हेतु स्थापित हुए हों, उनकी परनिर्भरता तो बहुत खलती है। प्लास्टिक और रेयन ऐसे उद्योग हैं। इनको बहुतांश में अभी तक मशीनों के लिए ही नहीं, कच्चे माल के लिए भी विदेशों पर निर्भर रहना पड़ता है। भारत में यद्यपि काफी तेल पैदा किया जा सकता है, किंत साबन के लिए तेल हमें बाहर से ही मंगाना पड़ता है। लंबी रेशे के कपास और जूट के लिए भी देश के विभाजन के बाद हम आत्मनिर्भर नहीं रहे। हम रेडियो तो खूब बना रहे हैं किंतु उसके 90 प्रतिशत हिस्से बाहर से लाकर लगा देते हैं। ड्राइबैटरियों में 78 प्रतिशत और बिजली के बल्बों में 90 प्रतिशत आयात निर्भरता है। 1956-57 में हमें 138.73 प्रतिशत माल बाहर से मंगाना पड़ा। इसके अतिरिक्त लगभग 200 करोड़ रुपए का अर्धनिर्मित माल हम बाहर से मंगाते हैं।

हमारी इस अत्यधिक आयात निर्भरता का कारण उद्योग-धंधों में पूरी तरह विदेशी अनुकरण है। अनेक उद्योग जो विदेशी कंपनियों ने भारत में खोले हैं, वे बहुत सा कच्चा माल भी बाहर से मंगाते हैं, जैसे साबुन और रंग का उद्योग। हाल के कुछ उद्योग केवल बाहर से माल लाकर उनका पैकिंग या एकत्रीकरण मात्र यहां करते हैं। दूसरी ओर यद्यपि देश के लिए तेल और खली दोनों की ही हमें नितांत आवश्यकता है, फिर भी हम उसे बराबर भारी मात्रा में बाहर भेजते जा रहे हैं। चमड़ा सिझाने के लिए अभी तक हम वाटल छाल को दक्षिण अफ्रीका से मंगा रहे हैं। यदि हम अपने पुराने उद्योगों का आधार बनाकर विकास का मार्ग निश्चित करेंगे तो फिर उल्टे बांस बरेली को भेजने वाली उक्ति चरितार्थ नहीं होगी। जिन वस्तुओं का हम सर्वाधिक उत्पादन करते हैं, उनका विधायन करके हम एक प्रभावी स्थिति प्राप्त कर सकते हैं। दूसरे हम जिन साधनों से अनेक वस्तुएं निर्माण करते आए हैं या तो उन्हें ही विकसित करेंगे अथवा उनके उपयुक्त पर्याय देश में ही ढूंढ़कर निकालेंगे। विदेशों से माल लाकर उनका थोड़ा-बहुत विधायन हमारे देश की समस्या का हल नहीं कर सकता।

खेत और कारखानों की दूरी

देश के अंदर भी कच्चे माल और उनके कारख़ानों का हमने ठीक मेल नहीं बिठाया है। बहुत से कारख़ाने विभिन्न ऐतिहासिक कारणों से बंबई और कलकत्ता के आसपास खुल गए हैं। अर्थात् जहां माल है, वहां कारख़ाने खोलने के स्थान पर हमने जहां कारख़ाने हैं, वहां माल ढोने की नीति अपनाई है। इसका परिणाम एक ओर तो देश का अत्यंत ही असंतुलित औद्योगीकरण तथा दूसरी ओर बिचौलियों की बढ़ती में हुआ है। कच्चे और पक्के माल के मूल्यों के बीच तालमेल भी इस कारण नहीं बैठ पाता। हम यदि इन सभी दृष्टियों से विचार करेंगे, तो हमें औद्योगीकरण का जाल विकेंद्रीकरण के आधार पर सभी प्रदेशों एवं ग्राम-ग्राम में फैलाना होगा।

मांग

विदेशों में नए बाज़ारों की खोज

मांग और उद्योगों का जहां ठीक-ठीक संबंध हो जाता है, वहां एक संतुलित अर्थव्यवस्था रहती है। साधारणतया जिस चीज़ की मांग हो, उसे पैदा करना चाहिए, किंतु आजकल बाज़ार ढूंढ़ने, लोगों की अभिरुचि को समझने और परखने के अतिरिक्त विज्ञापन एवं प्रचारतंत्र के सहारे बाजार बनाने, लोगों की अभिरुचि निर्माण करने और बदलने पर भी बल दिया जाने लगा है। अतः हमें देश में जिन चीजों की मांग है, उनके लिए उद्योग प्रारंभ करने के साथ ही जिन चीजों को हम पैदा करते हैं उनके लिए नए-नए बाजार बनाने की भी चिंता करनी होगी। हमने पश्चिम के प्रचारतंत्र से अपनी अभिरुचि तो बदल दी और इस प्रकार अपने उद्योग-धंधों के लिए देश का बाजार समाप्तप्राय कर दिया; किंतु इस बात का प्रयास नहीं किया कि इन उद्योगों के लिए हम दूसरा बाज़ार ढूंढ़ निकालें। यदि प्रयास किया जाए तो पश्चिम के देशों में बहुत बड़ी मांग हमारी वस्तुओं के लिए उत्पन्न की जा सकती है। मनुष्य स्वभाव से कभी एक ही प्रकार की वस्तु पसंद नहीं करता। यदि आज हम मानव हस्तकौशल और दक्षता के परिणामस्वरूप कलापूर्ण, विविधता भरी, कृतियों की सुंदरता से विमुख हो मशीनों की एकरूपता की ओर झुके हैं, तो पश्चिम में निश्चित ही इसकी प्रतिक्रिया उत्पन्न होकर मशीन से मानव की कृति का प्रेम उत्पन्न होगा। हमें अपने बाज़ारों का विकास करना होगा।

देश में व्यापक बाज़ार

विदेशों में हम नए-नए बाजार खोजते और बढ़ाते रह सकते हैं, किंतु यह सत्य है कि वहां की मांग के आधार पर हम अपने देश के सुदृढ, टिकाऊ औद्योगिक ढांचे को नहीं खड़ा कर सकते। हमारे कार्यक्रम का मुख्य आधार तो हमारे देश का बाज़ार ही हो सकता है। भारत इतना विशाल देश है तथा इसकी जनसंख्या इतनी अधिक है कि वह स्वयं तक आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था को आधार बन सकता है। हमारी मांग ही कोई कम नहीं है।

मांग और उत्पादन का मेल

जब हम देश की मांग का विचार करते हैं तो हमें मनुष्य की (1) प्राथमिक और इसलिए मुख्यतः आय निरपेक्ष (income inelastic) तथा (2) बढ़ती हुई आय के साथ पैदा होने वाली मांगों का विचार करना होगा। उत्पादन की पद्धति, वित्त संचय एवं कराधान, वितरण व्यवस्था, सामाजिक विधान और रहन-सहन में परिवर्तन, इन कारणों से भी कुछ मांगों में बदल होता है। हमें इनका ध्यान रखकर ही अपना कार्यक्रम बनाना चाहिए। जब लोगों को रोटी और कपड़े की मांग हो उस समय हम रेडियो सेट और झूठे मोती बनाने का उद्योग प्रारंभ करें तो उचित नहीं होगा। यदि आय के बढ़ने के कारण मोटे कपड़े के स्थान पर बढ़िया कपड़े की मांग है तो हमें पैदा करना होगा। शहर-प्रधान उत्पादन प्रणाली अपनाकर हमें नगरों में लगने वाली वस्तुओं का उत्पादन करना ही होगा। अर्थव्यवस्था के संपूर्ण ढांचे का अभिन्न एवं अंतर्संबंध होने के कारण हमें अपनी प्रत्येक योजना का मांग पर होने वाला परिणाम दृष्टि में रखना होगा। उसकी घट-बढ़ के अनुसार ही हमें उपाय योजना करनी होगी। अतः जहां उद्योगों के स्वरूप के निर्धारण में श्रम, शक्ति, पूंजी और प्रबंध आदि को ध्यान में रखना होता है, वहां बाजार का विचार भी आवश्यक है। वास्तव में तो मांग रही तो फिर सब खेल जमाने की ज़रूरत है, यदि वह नहीं तो केवल उद्योगों के लिए ही उद्योग तो स्थापित नहीं किए जा सकते। औद्योगीकरण के कार्यक्रम की सफलता इसमें भी है कि वह किसी भी स्तर पर तथा किसी भी क्षेत्र में मांग की पूर्ति न कर सकने के कारण संकीर्णता (Bottleneck) तथा बिना मांग के उत्पादन के कारण मंदी (Depression) की स्थिति उत्पन्न न कर दे। इसके लिए हमें औद्योगिक कार्यक्रम की प्राथमिकताओं का विचार करना होगा।

उद्योगों के प्रसार

उद्योग-धंधों को हम इन तीन वर्गों में बांट सकते हैं-(1) उपभोग वस्तु उद्योग, (2) उत्पादन वस्तु उद्योग, (3) मूल उद्योग। प्रथम श्रेणी में वे उद्योग आते हैं, जो मनुष्य के उपभोग में आने वाली वस्तुएं, जैसे कपड़ा, साबुन, माचिस आदि पैदा करते हैं। दूसरी श्रेणी में वे उद्योग हैं, जो उन चीज़ों को पैदा कराते हैं, जिनसे उत्पादक वस्तुएं बनती हैं। अथवा जो उनके बनाने में प्रयुक्त होते हैं, जैसे सूत, टायर-ट्यूब, पेंसिल का लेड, मशीनें आदि। आधारभूत उद्योग वे हैं, जिनके सहारे उपभोग या उत्पादक वस्तुएं बनती हैं। बिजली, लोहा, इस्पात, भारी रसायन आदि इसके अंतर्गत आते हैं। कुछ जनोपयोगी सेवाएं रेल आदि भी इसी में शामिल हैं। यह वर्गीकरण मोटा-मोटा है। एक ही वस्तु एक स्थान पर उत्पादक वस्तु हो सकती है तो दूसरे पर उपभोग। साधारणतया विचार किया जाए तो आधारभूत उद्योग का पहला स्थान आता है, क्योंकि जब तक वे नहीं होंगे, बाक़ी उद्योग चल ही नहीं सकेंगे। उसके उपरांत उत्पादक वस्तुएं और सबसे अंत में उपभोग वस्तुएं बनाना, यही क्रम सामने आता है। किंतु जब हम मांग का विचार करते तो सबसे अधिक मांग उपभोग वस्तुओं की है। इतना ही नहीं तो वह बराबर बढ़ भी रही है। आधारभूत और उत्पादक उद्योगों में जिनको काम देते हैं, उनकी आय में वृद्धि होने के कारण उनकी मांग और बढ़ जाती है। इस बढ़ी हुई मांग को यदि पूरा करके योग्य उपभोग वस्तुओं का अभाव रहा तो मूल्य बढ़ जाएंगे। इसका परिणाम उत्पादक और आधारभूत उद्योगों के उत्पादन व्यय पर पड़ेगा, जो कि आगे चलकर उपभोग वस्तुएं बाज़ार में आएंगी, तब तक मूल्य स्तर, जो कि स्फीतिजनक होगा, इतना बढ़ चुका होगा कि साधारणजन के लिए एक समस्या पैदा हो जाएगी। आधारभूत उत्पादनों का मूल्य तो उपभोग प्रकार निरपेक्ष है, किंतु उत्पादक वस्तुएं सदैव प्रचलित अभिरुचि एवं फैशन से सापेक्षिक संबंध रखती हैं। जब हम छुआछूत के कारण कांच के और चीनी के बरतनों का प्रयोग नहीं करते थे, उस समय बड़े पैमाने पर कांच के कारखाने खोलना हितावह नहीं होता। अत: ऊपर से स्वाभाविक दिखने वाली इन प्राथमिकताओं में हमें बदल करना होगा।

उपभोग वस्तुओं को प्राथमिकता

हमने कृषि उत्पादन की वृद्धि तथा कृषि पर से भार कम करने की आवश्यकता को अनुभव किया है। हमने यह भी स्वीकार किया है कि किसान हमारा प्राथमिक उत्पादक ही नहीं, वह हमारे मुख्य बाजार का क्रेता भी है। हम यदि उससे विपणनीय अतिरेक चाहते हैं, तो हमें उसकी मांग पूरी करनी होगी। इस दृष्टि से कृषि के लिए उत्पादक वस्तुएं तथा किसान की उपभोग-वस्तुओं का उत्पादन हमारी प्रथम आवश्यकता है। इन वस्तुओं के उत्पादन में लगे हुए लोगों तथा शेष के लिए भी हमें उपभोग-वस्तुओं का उत्पादन करना होगा, क्योंकि संपूर्ण बाजार को हम कृषक और गैर-कृषक इस आधार पर नहीं बांट सकते। इतने व्यापक बाजार की मांग पूरा करने वाले उद्योग हमने खड़े कर दिए तो हम अधिकांश लोगों को काम दे सकेंगे। किंतु प्रश्न उपस्थित होगा कि इन उद्योगों को खड़ा करने के लिए हम उत्पादक मशीनें आदि कहां से लाएं। यदि हम कोरी स्लेट पर लिखते होते तो हमारे लिए यह बड़ी कठिनाई थी, किंतु हमारे देश में पहले से ही उपभोग-वस्तुओं का निर्माण करने वाले बहुत से उद्योग हैं। शासन अपनी विभिन्न नीतियों से उन्हें योग्य प्रोत्साहन प्रदान कर सकता है। कुछ अंशों तक उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हम आयात पर निर्भर रह सकते हैं, क्योंकि हम उस अर्थनीति की कल्पना करके नहीं चले, जिसमें अंतरराष्ट्रीय व्यापार से हमारा कोई संबंध न हो।

उत्पादक एवं मूल उद्योग

उद्योग उपभोग-वूस्तुओं के उद्योग के व्यापक प्रसार के साथ-साथ उत्पादक वस्तुओं के उद्योग स्वतः विकसित होते जाएंगे। आवश्यकतानुसार उन्हें संरक्षण आदि की सुविधाएं दी जा सकती हैं। हां, आधारभूत उद्योगों में से कुछ को तो हमें जल्दी से जल्दी पूरा करना चाहिए तथा कुछ के लिए हम एक लंबी अवधि का कार्यक्रम बनाकर चल सकते हैं। ये उद्योग पूंजी प्रधान होने के कारण एकबारगी प्रारंभ नहीं किए जा सकते। बिजली प्रथम वर्ग में आती है तथा इस्पात, भारी रसायन आदि दूसरे वर्ग में। हम यह न मान लें कि इन उद्योगों को हम अभी टालकर किसी एक ही पंचवर्षीय योजना के अंदर पूरा कर लेंगे। किसी भी एक समय इन पर एकांगी भार कठिनाई पैदा कर देगा। हां, उपभोग उद्योगों का अधिक विस्तार होने तथा देश की प्राविधिक कुशलता आदि के बढ़ाने के कारण वह सुवह्य हो सकता है। वांछित तो यह है कि चालीस वर्षों का इस संबंध में कार्यक्रम बनाकर थोड़े से प्रारंभ कर उत्तरोत्तर बढ़ाते जाएं। हर समय उपभोग वस्तुओं पर बल अधिक रहे। सब लोगों को काम मिलने तथा उनकी आय के अंतर्गत ही उपभोग वस्तुओं के सुलभ होने के कारण वे अपना जीवनस्तर ऊंचा उठा सकेंगे। उनके पास जो थोड़ा-बहुत बचे उसके अधिपोषण की व्यवस्था रही तो वित्त संचय बढ़ता जाएगा। छोटे-छोटे उद्योगों में पूंजी लगाने की उन्हें स्वयं भी सुविधा रहेगी। वित्त की वृद्धि के साथ हम अधिक पूंजी प्रधान उद्योगों की स्थापना कर सकेंगे। प्राविधिक एवं प्रबंध संबंधी योग्यता भी बढ़ती जाएगी तथा ऐसा कोई समय नहीं आएगा, जबकि उत्पादित वस्तु के लिए बाज़ार न मिलें, क्योंकि वह तो बढ़ती हुई आय और रोजगारी के साथ बढ़ेगा ही। आज हमने एक पूंजी प्रधान योजना हाथ में ली है, जिसके परिणामस्वरूप एक ओर मुद्रास्फीति के मूल्य बढ़ रहे हैं तो दूसरी ओर कपड़े और सीमेंट का स्टाक जमा होता जा रहा है, यद्यपि लोग नंगे और आवासहीन घमते हैं।

पूंजी प्रधान भारी उद्योगों को चलाने के लिए परिवहन आदि की व्यवस्था भी बड़े पैमाने पर करनी पड़ती है। फल यह होता है कि पूंजी की दुर्लभता और भी बढ़ती जाती है। पूंजी और देश के अन्य साधन जब इन कुछ भारी उद्योगों के लिए ही पूरे नहीं पड़ते, तो शेष उद्योगों के सम्मुख साधनों का उत्तरोत्तर अभाव होता जाता है, जिसमें उनका विकास अवरुद्ध हो जाता है। समाज को इस प्रकार भारी मूल्य चुकाना पड़ता है।

सुरक्षा और भारी उद्योग

भारी और आधारभूत उद्योगों का सुरक्षा की दृष्टि से अवश्य महत्त्व है। आधुनिक शस्त्रास्त्र के लिए वे अपरिहार्य हैं। किंतु किसी भी देश की सुरक्षा केवल शस्त्रास्त्रों से नहीं होती। अन्न, वस्त्र आदि की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति की ओर दुर्लक्ष्य करके सुरक्षा की तैयारी नहीं की जा सकती। इन उद्योगों को खड़ा करने में ही यदि हमने अपने साधन लगा दिए तो युद्ध के समय तो हमारी स्थिति और नाजुक हो जाएगी। इसलिए सुरक्षा का विचार भी हम यथार्थवादी एवं सर्वतोमुखी दृष्टिकोण से करें।

भारी उद्योगों के लिए भारी बलिदान

सुरक्षा के समान ही कई बार प्रतिष्ठा की भावना से भी भारी उद्योगों का कार्यक्रम हाथ में लिया जाता है। यह विश्वास किया जाता है कि भारी उत्पादक और आधारभूत वस्तुओं की उत्पादन क्षमता हमें विश्व की आंखों में ऊंचा उठा देगी। किंतु ये सब कारण अर्थशास्त्र की कसौटी पर खरे नहीं उतरते। इन्हें पूरा करने के लिए न केवल हमें अधिक दिनों तक अपने जीवनस्तर को नीचा रखना पड़ेगा, बल्कि राजनीतिक क्षेत्र में भी प्रजातंत्र के सिद्धांतों की बलि देनी होगी। इस कार्यक्रम की सफलता केवल सोवियत मूल्यों की स्थापना और वहां जैसे नेतृत्व के प्रादुर्भाव और मान्यता पर ही नहीं अपितु उत्पादन और उपभोग और व्यापक नियंत्रण के सफल व्यवहार की संभावनाओं पर निर्भर करती है। जब तक यह नहीं होता और जब तक निजी क्षेत्र में उत्पादन की छूट तथा उपभोग स्वतंत्रता विद्यमान है, तब तक पूंजी प्रधान उत्पादन के क्षेत्र में भारी वृद्धि का परिणाम मुद्रास्फीति और अंत में संपूर्ण योजना का विस्फोट ही होगा।

(‘भारतीय अर्थ-नीित विकास की एक दिशा’ से साभार)