आतंकी राजनीति के विरुद्ध ‘जन रक्षा यात्रा’

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रल में माकपा के आतंकी राजनीति के विरुद्ध पदयात्रा का शुभारंभ कर भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने जैसे ही जनसंघर्ष का बिगुल बजाया, पयान्नूर की सड़कें पदयात्रा में भाग लेने आये लोगों के सैलाब से भर गईं। यह पहली बार है कि माकपा के नेतृत्व में बनी गठबंधन सरकार को इतनी कड़ी चुनौती मिल रही है। लोग भारी संख्या में हिंसा, हत्या, खूनखराबा और आतंक के विरुद्ध सड़कों पर उतर रहे हैं। जिस जघन्य तरीके से भाजपा–संघ के कार्यकर्ताओं की हत्या की जा रही है, उससे यह प्रमाणित होता है कि विरोध के किसी भी स्वर को दबाने के लिये कम्युनिस्ट राजनीतिक हिंसा में विश्वास रखते हैं। ‘वर्ग–शत्रु’ के सफाये के नाम पर कम्युनिस्टों का हिंसा से इतना अटूट लगाव रहा है कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देशों में जिस भी राज्य में इनका शासन रहा, लोगों को भयानक हिंसा का सामना करना पड़ा। प. बंगाल और त्रिपुरा में भी सत्ता की भूख तथा अधिनायकवाद ने इन्हें रक्तपिपासु बना दिया। भारत की लोकतांत्रिक परंपराओं से प्रेरणा लेने के स्थान पर ये स्टालिन, माओ और पॉलपॉट जैसे भयानक नरसंहारों को अंजाम देने वाले तानाशाहों को अपना आदर्श बना लिया, जिससे भारत में भी हिंसा की राजनीति इनका मूलमंत्र बन गया। इसका परिणाम यह हुआ है कि त्रिपुरा में इनके पैर उखड़ रहे हैं और केरल में अब तक की सबसे बड़ी चुनौती का सामना भाजपा के रूप में कर रहे हैं। यह अति दुर्भाग्यपूर्ण है कि मीडिया का एक वर्ग देश में चल रहे कम्युनिस्ट हिंसा पर प्रश्न खड़े करने से कतराता रहा है। इसी प्रकार का रवैय्या तब देखा गया जब प. बंगाल में कम्युनिस्ट अपने सत्ता के नशे में खुलेआम अपने राजनीतिक विरोधियों को कुचलने का षड्यंत्र करते थे। आज भी तापसी मलिक जैसों का बलात्कार एवं जघन्य हत्या लोग भूले नहीं हैं और इस जैसे अनगिनत संगीन मामलों का संज्ञान नहीं लिया जा सका है।

हालांकि नंदीग्राम और सिंगूर में मचे लोमहर्षक तांडव से कम्युनिस्ट पूरी तरह से बेनकाब हो चुके हैं, परन्तु इनके शासन में हुए राजनीतिक हिंसा की पूरी पड़ताल होनी बाकी है। केरल में केवल 2001 से अब तक 120 से अधिक भाजपा–संघ कार्यकर्ताओं की राजनीतिक हत्या कम्युनिस्टों द्वारा की जा चुकी है। पिछले वर्ष इनके सत्ता में आते ही राजनीतिक हिंसा में तेजी आई है तथा केरल में अनेक भाजपा–संघ के निर्दोष कार्यकर्ताओं की नृशंस हत्याएं हुई हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि सत्ता तथा शासन के संरक्षण में ये अपने राजनैतिक विरोधियों को कुचल देना चाहते हैं। हाल में भाजपा के बेहतर प्रदर्शन से अब यह स्पष्ट है कि कम्युनिस्टों की राह अब प्रदेश में बहुत कठिन हो चुकी है। जहां माकपा ने इस चुनौती का जवाब हिंसा, हत्या और खून–खराबा से देना शुरू किया है, वहीं भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह कम्युनिस्टों की हिंसा और हत्या की राजनीति का लोकतांत्रिक तरीके से जवाब देने को कृतसंकल्पित है।
अमित शाह द्वारा शुरू किये गये ‘जनरक्षा यात्रा’ तथा विभिन्न प्रदेश राजधानियों में चल रहे पदयात्रा से कम्युनिस्टों का भयावह चेहरा अब जनता के सामने आ रहा है। पूरे देश में इन यात्राओं में भारी जनभागीदारी से यह स्पष्ट है कि केरल और त्रिपुरा में अब इनके दिन बस गिनती के रह गये हैं। यह कम्युनिस्टों के हिंसा, लोकतंत्र–विरोधी तथा तानाशाही प्रवृत्ति में अटूट विश्वास का ही परिणाम है कि पूरी दुनिया से इनका सफाया हो चुका है। जहां भी ये किसी प्रकार से सत्ता में बने हुए हैं, अपने अस्तित्व की अंतिम संघर्ष में उलझे हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि इन्हीं कारणों से जिस पार्टी को ‘1917 की कथित बोलशेविक क्रांति’ का शताब्दी वर्ष अभी मनाना चाहिये था, अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है। जैसे–जैसे ‘जनरक्षा यात्रा’ आगे बढ़ रही है और जनभागीदारी इसमें बढ़ती जा रही है, कम्युनिस्टों के पांव उखड़ते जा रहे हैं।

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