मैं और हम

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दीनदयाल उपाध्याय

गतांक का शेष

साध्य से ही साधन की महत्ता है

और ‘हम’ का यही अंतर है। महाभारत का उदाहरण लें। महाभारत में कहा गया है कि ‘यतो धर्मस्ततोजय:’ यानी जहां धर्म है, वहीं विजय है। तब लोग एक प्रश्न करते हैं कि महाभारत के युद्ध में कौरवों के जितने प्रमुख सेनापति थे, सब चालाकी से मारे गए। भीष्म को मारने के लिए शिखंडी को खड़ा किया गया। द्रोणाचार्य को युद्ध में समाप्त करने के लिए युधिष्ठिर ने झूठ बोला। कर्ण तब मारा गया, जब वह अपने रथ का पहिया उठाने का अर्जुन से अवसर मांग रहा था। जयद्रथ की मृत्यु का कारण सूर्य का बादलों में छिपना और प्रकट होना बताया जाता है। दुर्योधन की मृत्यु तो कमर के नीचे गदा मारने से ही भीम के हाथों हुई। इसके आधार पर पूछा जा सकता है कि पांडवों की जीत के लिए ये सब जो कार्य हुए क्या उन्हें धर्मानुकूल कहा जाएगा? पांडवों ने छल किया। फिर भी ‘जहां धर्म वहां जय’ की घोषणा वेदव्यास करते हैं तो क्या यह परस्पर विरोधी बात नहीं है? क्या धर्म के नाम पर अधर्म नहीं हुआ? इसका उत्तर खोजने पर हमें विदित होगा कि कौरव और पांडव पक्ष के बीच एक बड़ा मूलगामी अंतर था। कौरव पक्ष का प्रत्येक योद्धा व्यक्तिवादी था। इसलिए अनर्थ का साथ दे रहा था।

समाज के हित में व्यक्तिगत अपमान भी शिरोधार्य

कौरव पक्ष के योद्धा वीर तथा युद्धकुशल थे, किंतु उनका व्यक्तिवादी दृष्टिकोण इसी बात से प्रकट होता है कि उन्होंने सोचा, ‘’मैंने प्रतिज्ञा की है, शिखंडी के आने के बाद मैं बाण नहीं चलाऊंगा।’’ भीष्म पितामह ने यह नहीं सोचा कि वे सेनापति हैं, उन पर सेना का भार है। उन्हें केवल अपनी निजी प्रतिज्ञा की चिंता थी। दूसरी ओर अर्जुन ने जब इस प्रकार का अपना व्यक्तिवादी दृष्टिकोण बताकर शस्त्र रखने की बात कही तो भगवान् कृष्ण ने उन्हें धर्म का रहस्य बताया कि तू यदि अपने तक सोचता है तो व्यर्थ सोचता है। अर्जुन ने ‘मैं’ को छोड़ा और ‘हम’ को स्वीकार किया। भीष्म पितामह ने न अपने पक्ष का, न समाज का, किसी का भी विचार नहीं किया। केवल ‘मैं’ का विचार मात्र किया। इधर भगवान् कृष्ण ने भी महाभारत में शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा की थी। फिर भी जब अवसर ऐसा ही आ गया कि उन्हें शस्त्र ग्रहण करने पड़े तो उन्होंने आगा-पीछा नहीं किया। समष्टि के हित के लिए उन्होंने यह नहीं सोचा कि उन्हें व्यक्तिगत रूप से क्या कहा जाएगा? धर्मराज युधिष्ठिर ने भी उनका कहना माना और समष्टि की मांग के समक्ष उन्होंने अपना रथ थोड़ा नीचा कर लिया। उधर द्रोणाचार्य को पुत्र का मोह था। वे पुत्र-वध का समाचार पाकर शस्त्र छोड़ बैठे।

कर्ण ने तो सूर्य द्वारा प्रदत्त अपने कवच-कुंडल भी इंद्र को दे दिए। यद्यपि सूर्य ने चेतावनी दी थी कि कवच-कुंडल न देना। किंतु कर्ण को अपनी दानवीरता का ध्यान था। उसने सबका विचार नहीं किया। इधर कुंती ने आवश्यकता पड़ने पर जाकर कर्ण को बता दिया कि वह उसका ही पुत्र है। कुंती जब कुंवारी थी, तब कर्ण का जन्म हुआ था। यह बात बताने में कुंती को कितना अपमान सहना पड़ा, किंतु समष्टि के लिए उसने न केवल यह बात घोषित की, वरन् अर्जुन को छोड़कर अन्य किसी पांडव पर कर्ण बाण नहीं चलाएगा, यह वचन भी कुंती ने प्राप्त कर लिया। उधर भीष्म की मृत्यु का रहस्य किसी को पता नहीं था, किंतु द्रौपदी ने जाकर जब पूछा तो भीष्म ने बता दिया कि शिखंडी के सामने आने पर वे युद्ध करना बंद कर देंगे। भीष्म ने यह नहीं सोचा कि सेनापति का ऐसा करना सबके हित में नहीं है, किंतु उन्हें सबका नहीं, अपना ही खयाल रहा। इसलिए हम पाते हैं कि कौरव पक्ष में पांडवों के पक्ष की तुलना में एक-से-एक बढ़कर योद्धा और शूरवीर थे, फिर भी उनकी सभी कृतियां अलग-अलग थीं। सबका मिलकर कोई एक कार्य संचालन नहीं था। सबको अपनी-अपनी ही चिंता थी। भीष्म को प्रतिज्ञा की चिंता थी। द्रोणाचार्य को पुत्र का मोह था। दुर्योधन को मात्र अपने राज्य की चिंता थी।

समष्टि के लिए व्यष्टि का त्याग

उधर पांडवों के पक्ष में सबका मिलकर कार्य था। उनमें से प्रत्येक ने अपने-अपने व्यक्तिवादी दृष्टिकोण को छोड़ा। भगवान् कृष्ण के नेतृत्व में एकजुट होकर जो भी कार्य आया, निभाया। कर्ण से भीख मांगना था-मांगी, झूठ बोलने का क्षण आया-बोला, निजी गुप्त रहस्य का उद्घाटन कर स्वयं लांछित होने का प्रश्न आया तो भी चिंता नहीं की, जैसा कृष्ण ने कहा, सब करते रहे। अपना-अपना आग्रह छोड़कर समष्टि के लिए ही कार्यरत हुए। उसका समष्टि का विचार कर कार्य करने का ढंग ही धर्म हुआ और व्यक्तिवादी आधार पर सोचने के कारण कौरवों का पक्ष अधर्म का पक्ष गिना गया। जीत धर्म की हुई, अधर्म की नहीं। यानी समष्टिवाद ही धर्म है। व्यक्तिवाद अधर्म है। राष्ट्र के लिए काम करना धर्म है। राष्ट्र कार्य को साधने के लिए जो कुछ आ पड़े, करना ही उचित है। सच, झूठ, सबकी कसौटी समष्टि का हित है। इसका अर्थ यह नहीं कि धर्मराज ने झूठ बोला, इसलिए हम भी अपने दैनिक जीवन में झूठ बोलने लगे। झूठ बोलना तो खराब गिना ही जाएगा। प्रश्न है कि राष्ट्र का, समष्टि का विचार कर कार्य किया गया है या नहीं? जैसे किसी की हत्या करना पाप है, किंतु युद्ध में लड़ने वाले सैनिकों को कोई हत्यारा नहीं कहता। शत्रु पर वार करना यह सैनिक का धर्म है। युद्ध में सैनिक रोज हिंसा करता है। उसे परमवीर चक्र देकर हम सम्मानित करते हैं, क्योंकि इस कार्य में वह व्यक्तिवादी ढंग से नहीं सोच रहा। राष्ट्र का विचार कर उसने आचरण किया है, इसलिए अभिनंदनीय है। यही आचरण यदि व्यक्तिगत जीवन में कोई करे तो उसे फांसी की सजा होगी, किंतु युद्ध में शत्रु का विनाश करना राष्ट्ररक्षा का पुनीत कर्तव्य बन जाता है। शत्रु पक्ष में जाकर जासूसी करते समय कितने ही कार्य करने पड़ते हैं। जिन्हें व्यक्ति जीवन में अनुचित ही कहा जाएगा। झूठ बोलना, चोरी करना और कितने ही प्रकार के कार्य करके शत्रु पक्ष के भेद लाने होते हैं। किंतु चूकि ये कार्य समष्टि के हित का ध्यान रखकर संपन्न किए जाते हैं, इसलिए ये सम्मानित होते हैं। राष्ट्र के लिए की गई चोरी चोरी नहीं रहती, यानी कर्म का महत्त्व इस बात पर है कि किस विचार से किया गया है। यदि समष्टि का विचार कर किया गया तो पुण्यकर्म ही है। समष्टि का विचार कर कार्य करने वाले लोगों की शक्ति ही सामूहिक संगठित शक्ति है। व्यक्तिवादी संगठित शक्ति नहीं बना पाते हैं। इसलिए कहा गया है कि राष्ट्रीयता का भाव ही शक्ति का मार्ग है।

व्यक्ति का महत्त्व राष्ट्र से है

यह सामूहिक भाव याने राष्ट्रीयता की वह कसौटी है, जिस पर हमारी प्रत्येक कृति, प्रत्येक व्यवस्था ठीक या गलत गिनी जाएगी। उदाहरणार्थ, प्रजातंत्र में प्राप्त नागरिकों के अधिकारों को ही लें। वोट का अधिकार है। वोट देते समय यदि राष्ट्र का विचार रहा तो धर्म होगा और यदि व्यक्तिगत विचार से प्रेरित होकर संपन्न हुआ तो अधर्म हो जाएगा। राष्ट्रीयता यदि ठीक है तो सब व्यवस्था ठीक गिनी जाएगी और यदि राष्ट्रीयता के विपरीत कार्य हुआ तो श्रेष्ठ व्यवस्था भी गलत सिद्ध होगी। जो लोग राष्ट्रीयता का मखौल उड़ाकर, राष्ट्र के विचारों को तिलांजलि देकर विभिन्न प्रकार के ‘वादों’ के नारे में उलझते हैं, वास्तव में वे भूल करते हैं। उनके हाथ से कोई अच्छा कार्य नहीं हो सकता। समाजवाद, पूंजीवाद, प्रजातंत्र अथवा अन्य कोई भी अधिक-से-अधिक एक रास्ता है, प्रगति का आधार नहीं। व्यक्तिगत, दलगत या वादगत कोई विचार लेकर चलने से प्रगति नहीं हो सकती। राजनीति आखिर राष्ट्र के लिए ही है। यदि राष्ट्र का विचार छोड़ दिया, यानी राष्ट्र की अस्मिता, उसके इतिहास, संस्कृति, सभ्यता को छोड़ दिया तो राजनीति का क्या उपयोग? राष्ट्र का स्मरण कर कार्य होगा तो सबका मूल्य बढ़ेगा। राष्ट्र को छोड़ा तो सब शून्य जैसा ही है। राष्ट्र का विचार लेकर आगे बढ़े तो एक और एक मिलकर दो नहीं ग्यारह होते हैं। इस आधार पर संगठन करते जाएं तो एक, एक, एक, एक होकर एक हज़ार एक सौ ग्यारह हो जाते हैं। राष्ट्रीयता छोड़ी तो दशमलव लग गया। अब चाहे जितने एक जोड़ते जाएं शून्य घटता ही जाएगा। राष्ट्र के आधार पर ही व्यक्ति की क़ीमत बढ़ती है। राष्ट्र को छोड़ा तो क़ीमत घटती है।

सामूहिक जीवन के इन संस्कारों को मजबूत करना ही प्रगति का मार्ग है। प्रत्येक व्यक्ति ‘मैं’ और ‘मेरा’ विचार त्यागकर ‘हम’ और ‘हमारा’ विचार करे। अथवा कई बार देखा जाता है कि व्यक्ति कहता है कि राष्ट्र के लिए जान हाज़िर है और जीवन में सब कार्य व्यक्ति का विचारकर ही करता रहता है, इसमें न व्यक्ति का भला है और न समष्टि का। वास्तव में समष्टि के लिए कार्य करना, यानी धर्माचरण करने की भी शिक्षा होती है। उसमें भी संस्कार डालने होते हैं। इन संस्कारों को प्रदान करना ही राष्ट्र का संगठन करना है।

मैं की सार्थकता हम से ही

किंतु इसका अर्थ यह नहीं लगाना चाहिए कि ‘मैं’ नाम की कोई सत्ता ही नहीं है। तात्पर्य इतना ही है कि ‘मैं’ की सार्थकता ‘हम’ से होती है। शक्तिभाव जिसमें व्यक्ति का व्यक्तित्व ढलता है, आवश्यक ही होता है। व्यायाम से शरीर बलशाली होता है। संध्या उपासना करने से अंतःकरण को शांति मिलती है, दीर्घायु प्राप्त होती है। व्यक्तिभाव से व्यक्तिश: सेवा-शुश्रूषा करने से ही यह सब हो पाता है। व्यक्ति को निरोग, दीर्घजीवी, हृष्ट-पुष्ट, आनंदित, प्रसन्न, कार्यक्षम, यशस्वी होना ज़रूरी है। जहां व्यक्ति निर्बल होकर निकम्मा हो जाता है, वहां समष्टि की आराधना का पूरा लोप होना स्वाभाविक ही है। इसलिए व्यक्ति के गुण विकसित होने चाहिए। व्यक्ति निकम्मे हों तो समाज की सेवा किस प्रकार करेंगे। यजुर्वेद में भी कहा गया है कि :

अन्धंतम: प्रविशन्ति ये असम्पूतिमुपासते।
ततो भूयऽइव ते तमो यथउ सम्पूत्यां रता:।।
यजु. 9740

जो व्यक्तिवाद का अवलंबन करते हैं, वे अधःपतन को प्राप्त होते हैं, परंतु जो समष्टिवाद में रमते हैं, वे उससे भी अधिक नीचे गिरते हैं।
अस्तु भारतीय तत्त्व ज्ञानियों ने ‘मैं’ और ‘हम’ को समन्वित करने का विचार रखा है। उनका कहना है-

संभूतिं च विनाश च यस्तद्वेदो भयं छ सह।
विनाशेन मृत्यु तीर्त्वा सष्णुत्यामृतमश्नुते।।
यजु. 11/40

समष्टिवाद और व्यक्तिवाद ये दोनों साथ-साथ रहें, तो लाभदायक होते हैं। व्यक्तिवाद के अनुष्ठान से व्यक्ति के कष्ट दूर किए जाते हैं और समष्टिवाद से अमरत्व की प्राप्ति होती है।

यही ‘संभूय समुत्थान’ का अर्थ है। संघ बनाकर उठना ही प्रगति का रास्ता है। संघ बनाकर न रहना अर्थात् व्यक्तिश: रहना, व्यक्ति का पृथक रहना असंगठित अवस्था है। इसी का नाम विनाश है, क्योंकि व्यक्ति विनाश को प्राप्त होता है और संघ अजरामर रह सकता है। मानवों का अमरत्व संघ भाव से है और व्यक्ति बिखरा हुआ रहे तो व्यक्ति का नाश निश्चित है। इसलिए व्यक्तियों को गुणवान, शक्तिवान बनना चाहिए और व्यक्तिवाद छोड़कर संघ शक्ति की आराधना करना चाहिए। मनुष्य अमरत्व चाहता है। वह अमरत्व संभूति से ही मिल सकता है। ‘संभूत्या अमृतं अश्नुते’ संघ से अमरत्व प्राप्त होता है। संघजीवन, सामुदायिक जीवन जीना ही अमरत्व प्राप्त करना है। इस दृष्टि से ‘मैं’ के वास्तविक रूप ‘हम’ को ग्रहण करना चाहिए।

— (राष्ट्रधर्म, सितंबर 5, 1956) समाप्त