धारा 370 और 35A: जम्मू-कश्मीर के विकास में प्रमुख बाधा


Posted in:
23 Jun, 2019
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23 Jun, 2019

केंद्र में नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में भाजपा और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एन.डी.ए.) की दोबारा सरकार बनते ही जम्मू-कश्मीर में धारा 370 और 35A हटाने का उमीद फिर से बन गई हें। भाजपा ने विभिन्न अवसरों पर पहले भी इस मुद्दे को उठाया है। लेकिन इस बार भाजपा ने अकेले ही 303 सीट जीतकर सत्ता में पहले से मजबूत जनादेश हासिल किया है। साथ ही एन.डी.ए. को 353 सीटें मिली हैं। इस बदली हुई परिस्थिति में यह उम्मीद होने लगी है कि प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली नई सरकार, जम्मू कश्मीर में से धारा 370 और 35A ख़त्म करने के पहल करेगी। इन दोनों धाराओं के कारण जम्मू कश्मीर का विकास रुक गया है और वहां की अर्थव्यवस्था चरमरा गई है।

कितनी अजीब बात है कि जिस धारा के कारण जम्मू—कश्मीर पिछले सत्तर सालों से पिछड़ा हुआ हें, उस विवादित धारा 35A का संविधान में अलग से कहीं जिक्र भी नहीं मिलता। अनुच्छेद 35A जम्मू-कश्मीर विधानसभा को यह विशेष अधिकार प्रदान करता है कि वह भारतीय संविधान में नागरिकता की परिभाषा से अलग भी कोई नई परिभाषा तय कर सकता है। जम्मू—कश्मीर विधानसभा द्वारा तय की जाने वाली यह परिभाषा ही जम्मू कश्मीर के ‘स्थायी नागरिक’ की परिभाषा मानी जाएगी। संविधान के अनुच्छेद 35A को 14 मई, 1954 में राष्ट्रपति के आदेश से संविधान में शामिल किया गया हैं। इससे पहले यह विवादित धारा भारत के मूल संविधान में मौजूद नहीं थी।संविधान सभा से लेकर संसद की किसी भी कार्यवाही में, अनुच्छेद 35A को भारतीय संविधान का मूल हिस्सा बनाने या इसमें शामिल करने के विषय में कोई संविधान संशोधन विधेयक सदन में लाये जाने का विवरण भी कहीं नहीं मिलता। इस तरह यह तथ्य सामने आता है कि अनुच्छेद 35A को लागू करने के लिए तत्कालीन सरकार ने धारा 370 के तहत अन्तर्निहित विधायी शक्तियों का उपयोग किया और जम्मू कश्मीर की विधानसभा को नागरिकता निर्धारित करने का असीमित अधिकार दे दिया।
इस प्रकार अनुच्छेद 35A लागू हों जाने से जम्मू-कश्मीर की राज्य सरकार को यह अधिकार मिल गया है कि वह किस भारतीय को देश का नागरिक माने और किसे नहीं माने। इसका नतीजा यह हुआ कि आजादी के समय कश्मीर के अलावा बाहर से आने वाले व्यक्तियों या शरणार्थियों को जम्मू-कश्मीर में वहां के मूल नागरिकों जैसी सुविधाएँ नहीं दी गईं। क्योंकि उन्हें जम्मू—कश्मीर का नागरिक ही नहीं माना गया।
यदि तथ्यों की बात की जाए तो 14 मई, 1954 को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने इस सम्बन्ध में एक आदेश पारित किया, जिससे जम्मू कश्मीर विधानसभा को नागरिकता तय करने का असीमित अधिकार मिल गया था। यहीं से भारत के संविधान में एक नया अनुच्छेद 35A जोड़ दिया गया, जो आज जम्मू कश्मीर के लिए नासूर बन चुका है।
यह अनुच्छेद 35A केवल नागरिकता तय करने तक ही सीमित नहीं है, इसकी वजह से जम्मू कश्मीर के बाहर का कोई भी व्यक्ति या दूसरे राज्य का निवासी जम्मू-कश्मीर में ना तो किसी प्रकार की अचल संपत्ति खरीद सकता है और ना ही वहां का स्थायी नागरिक बनकर निवास कर सकता है। इस एक कानूनी बंधन के कारण बाद के वर्षों में कई तरह की विसंगतियां पैदा होती चली गई।
धारा 370 और 35A से मिले असीमित अधिकारों के बाद 1956 में जम्मू कश्मीर का नया संविधान बना, जिसमें वहां के स्थायी नागरिकता की नई परिभाषा दी गई। इसके अनुसार जम्मू—कश्मीर का स्थायी नागरिक वह व्यक्ति होगा, जो 14 मई, 1954 को राज्य का नागरिक रहा हो या फिर उससे पहले के 10वर्षों से राज्य में निवास करता रहा हो। साथ ही राज्य में कोई संपत्ति आधिकारिक तौर पर उसके नाम पर दर्ज हो।
इतना ही नहीं, बल्कि अनुच्छेद 35A के अनुसार यदि जम्मू-कश्मीर की कोई लड़की किसी अन्य राज्य के लड़के से विवाह करें, तो उसे जम्मू—कश्मीर सरकार से मिलने वाले सभी अधिकार स्वयमेव रद्द हो जायेंगे। साथ ही उसकी संतानों को भी जम्मू—कश्मीर के संविधान के अनुसार कोई अधिकार प्राप्त नहीं होंगे।
ताजा विवाद इस बात को लेकर है कि इस अनुच्छेद हटाने के लिए आखिर इतनी बेचैनी क्यों दिखाई जा रही है? एक तर्क यह है कि इस अनुच्छेद को संसद में विधेयक लाकर लागू नहीं करवाया गया था। इसके अलावा दूसरा तर्क यह भी है कि देश के विभाजन के समय बड़ी संख्या में पाकिस्तान से जो शरणार्थी भारत आए, उनमें से लाखों की संख्या में शरणार्थी आज भी जम्मू-कश्मीर के निवासी हैं। जम्मू-कश्मीर सरकार ने अनुच्छेद 35A के जरिए इन सभी शरणार्थियों को जम्मू-कश्मीर का स्थायी नागरिक मानने से इनकार कर दिया और उन्हें वहां का मूल निवास प्रमाणपत्र भी नहीं दिया। ऐसा अनुमान है कि इन शरणार्थियों में से करीबन 80 प्रतिशत पिछड़े और दलित हिंदूओं है।
अभी एक नया विवाद और पैदा हुआ जब सर्वोच्च न्यायलय में जम्मू—कश्मीर की नागरिकता से वंचित समुदाय के कुछ सदस्यों ने याचिका लगाईं। इस याचिका के अनुसार अनुच्छेद 35A के कारण भारतीय संविधान से मिलने वाले उनके मूल अधिकार, जम्मू-कश्मीर में रहने के कारण स्वयमेव समाप्त मान लिए गए हैं। इसलिए राष्ट्रपति को एक नया आदेश लाकर अनुच्छेद 35A को जल्द से जल्द निरस्त करना चाहिए। अब देखना होगा कि सर्वोच्च अदालत क्या फैसला लेती है। साथ ही इस फैसले के दूरगामी परिणाम क्या होंगे? इसके अलावा अदालत के फैसले के बाद केंद्र सरकार इस विवादित धारा को हटाने की दिशा में क्या कदम उठाती है? क्योंकि जब तक जम्मू को शेष भारत के सामान कानून के दायरे में नहीं लाया जायेगा, तब तक वह भारत में रहते हुए भी इससे अलग बना रहेगा और वहां विकास की वैसी तस्वीर नजर नहीं आएगी, जैसाकि बाकी राज्यों दिखती है।
देश के अन्य राज्यों में अपना कारोबार करने वाले बहुत से व्यापारी भी यह सुझाव देते हैं कि जम्मू—कश्मीर में बाकी राज्यों की तरह कारोबार की छूट मिलनी चाहिये। इससे न केवल रोजगार बढ़ेगा, बल्कि यहाँ कि अर्थव्यवस्था को भी गति मिलेगी। और तब यहाँ के युवाओं को पांच सौ रुपये के लिये सेना या पुलिस के जवानों पर पत्थर फेंकने जैसा निकृष्ट कार्य नहीं करना पड़ेगा। बल्कि तब वे भी अपनी मेहनत की कमाई हासिल कर सकेंगे और उनमें भी एक नया आत्मविश्वास पैदा होगा।
भले ही कुछ विरोधी दल के नेता धारा 370 और 35A ख़त्म करने के कदम का विरोध करते रहे हों, लेकिन देश के व्यापक हित में मोदी सरकार अब इस विवादित धारा को हटाने कि पहल निश्चित रूप से करेगी। आने वाले दिनों में कुछ और राज्यों में विधानसभा चुनाव समाप्त होंगे और इन विधानसभाओं में भाजपा तथा एनडीए को स्पष्ट बहुमत मिलेगी, तब मोदी सरकार के लिए यह विवादित कानून, जो जम्मू-कश्मीर के विकास में प्रमुख बाधा हैं उसको समाप्त करने की रास्ता और आसान हो जाएगा।

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और स्वतंत्र स्तंभकार है)